मोहब्बत के बिना रहना,क्या खाक होता
यूं ज़िंदगी में जोश भरना,क्या खाक होता
गर न होते दुनिया में,सुख दुःख के पचड़े,
तो फिर अश्कों का झरना,क्या खाक होता
गर न होती किसी के जिगर में,ये बेचैनियां,
तो ज़िंदगी जीने का मज़ा,क्या खाक होता
यारों न होतीं अगर,महफ़िलों की रंगीनियां,
तो जामे महफ़िल का नशा,क्या ख़ाक होता
न होता अगर ये,शान ओ सौकत का जज़्बा,
तो फिर दिखावे का रुतवा,क्या खाक होता
अगर न पड़ती किसी को,ज़रुरत किसी की,
फिर नाते रिश्तों का जलवा,क्या खाक होता
‘मिश्र’ बन जाते तुम भी,गर इंसां से फरिश्ता
तो फिर उस ख़ुदा का दर्जा,क्या खाक होता