महंगाई बढ़ रही है, संबंध घट रहे हैं
वो हम से कट रहे हैं, हम उन से कट रहे हैं
इतिहास हो गए अब आँगन के खेल सारे
क्वार्टर के दायरे में, अब घर सिमट रहे हैं
महफिल सजी-सजी पर, सब कुछ बनावटी है
ये लोग संगणक के, ज्यादा निकट रहे हैं
कैसे सिखाएँ घर पर, बेटे को भाईचारा
जब आप-हम परस्पर, खेमों में बट रहे हैं
होली हो या दिवाली या ईद चाहे क्रिसमस
अब जश्न में भी जम कर बारूद फट रहे हैं
हम आदमी हैं या बस, कहने को आदमी हैं
जहाँ स्वार्थ से रहा है, वहीं पर लिपट रहे हैं….