jazbaat

किसी को जज़्बात, जता कर भी क्या करते
यूं बिखरे अरमान, सजा कर भी क्या करते

यारों न थी उन्हें मंज़ूर जब मोहब्बत हमारी,
तो खामखा दिल को, सता कर भी क्या करते

उनको तो चाहिए थीं यूं ही बरबादियाँ हमारी,
फिर तो वफ़ाओं को, जता कर भी क्या करते

हमें यक़ीन था जिन पे वो तो बेख़बर निकले,
फिर ज़ख्म गैरों को, दिखा कर भी क्या करते

बड़ी आफ़तों से गुज़री थी ज़िन्दगी की गाड़ी,
फिर से दल दल में, फंसा कर भी क्या करते

जब पता ही था कि खेल किस्मत का है ‘मिश्र’,
फिर तो दोष औरों पे, लगा कर भी क्या करते

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