‘गर्दिशों के गणतंत्र में’ काव्य संग्रह में मानवीय चेतना के विविध प्रसंग-
हिंदी साहित्य में काव्य की प्राचीन परंपरा रही है। आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल आदि में साहित्य काव्यात्मक रूप से लिखा गया। रीतिकाल के बाद रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त कवियों ने काव्य की रचना की। धीरे-धीरे कविता ने गद्य का रूप धारण कर लिया। उसके बाद लगातार छंद मुक्त कविताएं लिखी जाने लगी। आधुनिक काल में कविताओं के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं
मानवीय मूल्यों एवं राष्ट्रीयता को ध्यान में रखकर सामाजिक समस्याओं को उकेरने का काम समकालीन कविताएं करती हैं। इसी प्रसंग में प्रो. (डॉ.) शशिकांत ‘सावन’ का ग़ज़लनुमा काव्य संग्रह ‘गर्दिशों के गणतंत्र में’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। चर्चित साहित्यकार प्रो. सावन इस ग़ज़लनुमा काव्य संग्रह में कविता और ग़ज़ल विधा को मिलाकर एक नया रूप देते हैं। जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है कि इसमें लोकतंत्र की सफलता के लिए समस्याओं से लड़ने की आवश्यकता है। भारत की आजादी से पहले जो गर्दिश के दिन आम जनता को देखने पड़े और आजादी के बाद जो अच्छे दिन आने चाहिए थे। लेकिन कुछ लोगों को छोड़कर ज्यादा लोगों के गर्दिश के दिन ही रहे।
राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण गर्दिशों के गणतंत्र में’ पुस्तक समाज को अपनी ओर झांकने पर मजबूर करती है। ग़ज़लनुमा काव्य संग्रह को पढ़ने पर यह गीतिका छंद में मालूम होती है। इसलिए मात्रिक छंद के नियमों के अनुसार इसमें 26 मात्राओं के साथ पूरी नहीं होती। प्रो. सावन के इस संग्रह में लोकतंत्र को कमजोर करने वाली मानसिकता, धर्म-जाति के द्वंद, संविधान का विरोध करने वाले लोग इत्यादि को रेखांकित करते हैं। पुस्तक में दिए गए वक्तव्य में डॉ. कुसुम वियोगी लिखते हैं कि “लोकतंत्र में बुद्धिजीवियों की चुप्पियां ही दावत देती हैं दरिंदों को, ऐसा मेरा मानना है।धार्मिक उन्मादियों के चक्रव्यूह में फंसा गणतंत्र आज गर्दिशों के दौर में है, जो चिंतनीय है। धर्मतंत्र के आगे सभी व्यवस्थाएं बौनी नजर आ रही हैं।”1.
आज भूमंडलीकरण का दौर है, मानव हर वस्तु का भोग करने पर लालायित है और धन संचय करने के लिए उत्साहित इतना है कि वह किसी भी हद तक जा सकता है। पश्चिमी संस्कृति में जिसे खुलापन कहा गया है उसकी परछाइयां अब देश में सर्वत्र दिखाई दे रही हैं। इसका प्रभाव है कि सामाजिक मर्यादा और मानवीय मूल्यों की धज्जियां सरेआम उड़ाई जा रही हैं। यहां तक की मानवीय संबंधों में भी स्वार्थ घुस गया है। आतंकवाद, पूंजीवाद, भ्रष्टाचार, ठगी, कुकर्म, ईर्ष्या, भोगवादी संस्कृति, नशाखोरी इत्यादि को मौज मस्ती और आनंद समझने लगे हैं। एक मजबूत राष्ट्र के लिए ये घातक वृत्तियां हैं। ‘उपयोग करो और फेंक दो’ की संस्कृति एवं संकुचित मानसिकता समाज में तेजी से पनप रही है। कवि पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं कि –
“सच्चाई के मेलों में झूंठों की दुकानें सजने लगी।
बेईमानी की तिजोरियों में ईमानदारी कैद होने लगी।
भूमंडलीकरण के भ्रष्ट बाजार क्या खुले। नौटंकीबाजों की कीमतें बढ़ने लगी।।”2.
दरअसल, प्रोफेसर सावन की ग़ज़लनुमा कविताएं मानवीय मूल्यों का खजाना है। ऐसी राष्ट्रीय एकता अखंडता, नैतिकता और समाज की विसंगतियों को दूर करने वाली कविताएं कम ही देखने को मिलती हैं।लोकतंत्र को बचाने और शोषितों को एकाग्रता के साथ होकर कार्य की प्रेरणा कविताएं देती हैं। उनकी हर एक कविता-गजलें प्रेरणादायक हैं। मानव ही मानव की सेवा कर सकता है इसलिए कवि मानवता का महासागर बनने की बात कर रहा है। सत्य सौंदर्य को समझने के लिए अजंता-एलोरा की ओर जाने का आह्वान कवि करता है। युवा पीढ़ी में जो कुत्सित विचार घर कर गए हैं तथा उसकी आदतें समाज को खोखला कर रही हैं, उस युवा को बचाने की सख्त जरूरत है। क्योंकि वही देश के भविष्य हैं। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगातार कठिन परिश्रम करते रहे, स्वयं को दीपक बना लीजिए, देश-समाज को उजाला बनाकर प्रेरित करें, जिससे आने वाली पीढ़ी भी सुरक्षित रहे। ऊंचाई छूने के लिए लगातार अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहे और खून पसीना एक करके अपने सपनों को साकार करे। हमेशा सत्य के मार्ग पर चलने से जीवन के अंधकार को मिटाया जा सकता है। स्वयं का सूर्य खुद को बनना पड़ेगा। समाज में निर्धन लोगों के लिए सहायता और समानता की मशाल जला कर रखें। मानवता के गीत गाते रहें, जीवन क्षणभंगुर है, वतन की मिट्टी की महक से जुड़े रहे।
मानवीय मूल्यों को जीवन में अपना कर चलें। जीवन में इंसानियत का दीपक भी जलाते हुए चलें, जिससे परिवार, समाज और देश में अनगिनत दियों की रोशनी होगी और भारत की संस्कृति, समाज, इतिहास, सामाजिक आर्थिक रूप से वंचित, स्त्री, वृद्ध, दलित और आदिवासी इत्यादि को मान सम्मान दें और साथ लेकर चलें।उपभोक्तावादी संस्कृति में अपनी जड़ों से जुड़े रहे।
व्यक्ति के जीवन में इज्जत का विशेष महत्व है। ईमानदारी, मेहनत करने वाले श्रमिक, पगड़ी की लाज, दहलीज पर झुकना, शान-शौकत, इत्यादि जगहों पर इज्जत मान सम्मान दिलवाती है। लेकिन आज के दौर में झूठे-मक्कार, भ्रष्टाचारी, धर्मभीरू तथा गलत तरीके से धन संचय करने वाले लोगों का समाज में अधिक सम्मान दिया जाता है। शोषित वर्ग ने सदियों से अत्यधिक अत्याचार सहे हैं, अब उनको अपने अधिकारों को प्रति जागृत होना चाहिए। आधुनिकता के दौर में उन्हें भी इंसान समझ कर उन्हें भी सम्मान देना अपेक्षित है।
भारतीय संस्कृति की गौरव गाथाओं से पोथियां भरी पड़ी हैं। उनका सही इस्तेमाल कर इंसानी समाज का उद्धार किया जा सकता है। इस संबंध में प्रोफेसर सावन लिखते हैं कि –
“घरों घरों में इंसानियत की अजान होनी चाहिए।
तिरस्कृत वंचितों की जिंदगी में रोशनी होनी चाहिए।
युगों-युगों से जिन्हें अबला, दरिद्री शुद्र बनाए रखा…
उनके प्रति अब सम्मान सहयोग के सच्चे भाव जगने चाहिए।।”3.
हम अपने घर में भी नई पीढ़ी को इस तरह से प्रशिक्षित कर रहे हैं कि उनमें इंसानियत हो, समाज असहाय और निर्धन की सहायता कर सके। सदियों से दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग और स्त्रियों पर जो भी अत्याचार और शोषण हुए अब उनके प्रति सम्मान और सहयोग की भावना अपेक्षित है।
इसी प्रकार दीपक हताश-निराशा और जिंदगी से दुखी व्यक्ति के लिए नया संचार का काम करता है। जीवन के अंधकार को प्रकाश में बदलना, हमेशा दूसरों के लिए रोशनी प्रदान करना और जिन दूसरों का हक़ न छीनना, प्रार्थना घर की शोभा बढ़ाना, घर को रोशन करना, ज्ञान की परिभाषा और सन्मार्ग की अभिलाषा इत्यादि बना हुआ है दीपक। मनुष्य संसार में खाली हाथ आता है और मृत्यु के समय भी वह खाली हाथ ही जाता है। लेकिन उसका अच्छा व्यवहार लोगों के मन में समा जाता है। कई बार उसका जीवन आगामी पीढ़ी के लिए अभिप्रेरणा बन जाता है। मनुष्य का दुर्व्यवहार या कटु वचन भी दिल को ठेस पहुंचा देता है। कहते हैं कि पिटने का या कटने का घाव भर जाता है लेकिन जुबान का घाव मनुष्य लंबे समय तक नहीं भूलता। कई मनुष्य अपनों के बीच में खुश नहीं रहता अनजान लोगों से सुख का अनुभव करता है। इसी प्रकार लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे कदम बढ़ाना जरूरी है, सही दिशा में की गई कठिन मेहनत से मंजिल की प्राप्ति होती है।
जीवन की राह में कदम बढ़ाने वाला, संघर्ष का पसीना बहाने वाला, अथाह सागर में गोते लगाने वाला ही अपनी मंजिल प्राप्त करता है। कवि समाज के वंचित और भटके हुए लोगों को समाज की धारा में लाना चाहते हैं।समाज में अज्ञानता, छल-पाखंड, अपाहिज़ों का सहारा, पीड़ित, कला कौशल, निर्धनता, अन्याय, दरबारी संस्कृति इत्यादि देखने को मिलता है। दूसरों की मदद करने का अलग ही आनंद होता है। जूठन के सहारे जीने वाले ही एक वक्त के भोजन की कीमत पहचानते हैं। असहाय लोगों की मदद का संतोष चेहरे पर नूर ला देता है। इस संबंध में प्रोफेसर सावन लिखते हैं कि –
“कभी गरीबों के चेहरे की , रौनक बनकर देखो।
कभी श्रमिकों के दिलों का संतोष बनकर देखो।
करोड़ों कमाकर भी, परेशान कंजूस रहने वालों…
कभी पीर – फकीरों की, दरियादिली भी बनकर देखो।।”4.
मनुष्य अपना भला करने में लगा हुआ है।आधुनिकता की इस अंधी रेस में वह धन – पद एकत्रित करने पर आतुर है। वह इतना घमंडी हो गया है कि स्वयं को ऐन केन प्रकारेन सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने से नहीं चूकता। इससे समाज में भेदभाव और हीनता की भावना जन्म लेती है और युवा पीढ़ी नकारात्मक पहलुओं की ओर अधिक आकर्षित होती है। प्रेम, भाईचारा, दया, करुणा, त्याग, मार्गदर्शन जैसे मानवीय मूल्य उभर कर आते हैं।
दिहाड़ी मजदूर की मेहनत का मूल्य और संतोष कर्म की भावना की ओर प्रेरित करता है। लोगों के पास और अकूत संपत्ति है, लेकिन आज भी वे खर्च करने में कंजूसी करते हैं। कहीं पर मुफ्त का कुछ मिल रहा होगा तो पंक्ति में खड़े होकर भिखारी की तरह तैयार हैं। ऐसा शासन व्यस्था में भी हो रहा है, वहां पर अमीर लोग खुद को कागजों में गरीब दिखाकर सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। उनमें यदि पीर फकीरों की जैसी त्याग की भावना जागृत हो तो समाज से गरीबी को दूर किया जा सकता है। पीर फकीरों की तरह दरियादिली से समाज से द्वेष, असमानता, लालच, मोह, छल-प्रपंच, झूठ, ईर्ष्या, चुगली, चोरी, स्त्री शोषण, अपमान, नशा और छुआछूत इत्यादि को मिटाया जा सकता है।
शरद की पूर्णिमा को आकाश में टिमटिमाते तारे और चांद की चांदनी दीप्तिमान होती है। मन में मिलन की प्रसन्नता परिलक्षित होती है। किसान की मेहनत की रोटी और गरीब की कमाई पर सबका ध्यान जाता है। वहीं पर शरद की पूर्णिमा की चांदनी आकाश के उजाले का कार्य करती है तथा धरती पर बिखरी रहती है। सर्दी की ठंडक में किसान की रजाई ठंड से लड़ती हुई प्रतीत होती है। खेतों में ज्वार की फसल और धान की बालियां झूमती हुई लगती हैं। जंगल में बकरियों का झुंड और चरवाहे की इच्छा घूमती हुई प्रतीत होती हैं। किसान की कजलियां और गोरियों के गालों पर लेटें झूलती रहती है। आदमियों की होली और पहाड़ों में जीवन की ध्वनियां गूंजती रहती हैं।
हमेशा छल प्रपंच से लड़कर सत्य का साथ दें। शोषण करने वालों और मुखौटाधारियों को मुंहतोड़ जवाब अवश्य देना चाहिए। समाज को उनकी असलियत से अवगत अवश्य कराएं। समाज में एकता अखंडता की मिसाल पैदा करते रहें। अपने लोगों की परीक्षा भी लेते रहें और उन्हें आजमाते भी रहें। अत्याचारियों के छद्म आवरण को उघाड़ते रहें। मनुष्य को अनंत में फैले रंग बिरंगे आसमान का हिस्सा बनना चाहिए। छल कपट और पाखंड को छोड़कर विज्ञान और प्रकृति के साथ चलना चाहिए। किसी के जीवन को समाप्त करने के बजाय जीवन देने वाला बनना चाहिए। चकवा चकवी की तरह प्रीति निभाने का कार्य करें। मानवीय संबंधों में प्रेम को बनाए रखें। हिमालय-सी निर्मल धारा अपने जीवन में भी बहाकर मन को स्वच्छ रखें।
मनुष्य को हमेशा सकारात्मक सोच रखना चाहिए, जिससे कमजोर तबके के लोग भी लाभान्वित हो सकें। जीवन में बहुउद्देश्य विचार रखना भी बहुत जरूरी है। बच्चों से लेकर वृद्धों तक घुलना मिलना भी आना जरूरी है। समाज को मजबूत देने कार्य करें और अपनेपन की भावना हमेशा रखना।आपसी संबंधों को जकड़ कर रखें तथा बड़ों का आशीर्वाद और छोटों का प्यार बनाएं रखें। किसी का भला न कर सके तो बददुआओं से भी बच कर रहना चाहिए। जीवन में जहर घोलने वाले पग-पग पर मिलेंगे इसलिए अपनी वाणी में शीतलता और मिठास बनाए रखें। हमेशा न्याय, सत्य और अहिंसा का मार्ग चुने और जीवन में खुशहाली से भरपूर रहें। आपसी रिश्तों की गहराइयों को महसूस कर देख लेना चाहिए तथा रिश्तो की दरार को समय रहते रोका जा सकता है।
स्त्री से ही संसार की सृजन हुआ है, वह सभ्यता, संस्कार और संस्कृति को आगे लेकर चलती है। वह संपूर्ण कलाओं में कुशल और अपने हुनर से नव निर्माण करती है,वह संसार में क्षितिज के समान है। स्त्री के संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि –
“सदियों से संस्कृतियों की सृजनहार है स्त्री। युगों-युगों से सभ्यताओं की तारणहार है स्त्री।प्राकृतिक गरिमाएं, जिसने नित उन्नति की है, विश्व की वह पहली रचनाकार है स्त्री।।” 5.
स्त्री सांस्कृतिक विरासत की सृजनकर्ता रही है। समाज और सभ्यता को बचाए रखने और अंकित करने में सर्वेसर्वा रही है। प्रकृति के साथ उसका संबंध अंतरंग रहा है। वह संसार की सबसे पहली सृजनकर्ता और कारीगर भी है। बचपन के संस्कार और सद्गुणों का भंडार भी स्त्री द्वारा गढ़े जाते हैं। लेकिन आज वह मनुष्य संतति की जन्मदाता होते हुए भी उपेक्षित जीवन जीने पर विवश है।
देश के राष्ट्रीय आंदोलन में हमारे शहीदों का विशेष योगदान रहा है। उनके खून की बदौलत हमें आजादी मिली, लेकिन सत्ता के भूखे लोगों ने कब्जा कर वंचित वर्ग को गुमनामी और यातनाएं झेलने के लिए विवश कर दिया। स्त्रियों को दिखाने के लिए सम्मानित किया जा रहा है लेकिन उनके आंसू आज शोषितों के शोषण के कारण रुक नहीं रहे हैं। जो सदियों से हमारी सभ्यता संस्कृति को संवारती रही, आज वह हर एक मोड़ पर अपमानित की जा रही है। देश की आजादी में आदिवासियों की अहम भूमिका रही है, बेशक उन्हें इतिहास में हल्का करके दिखाया। लेकिन उन्होंने हर मोर्चे पर दुश्मन को धूल चटाई। उनके आंदोलन ने देश की आजादी के लिए एक दिशा और दृष्टि देशभक्तों को दी। जबकि उस समय में भी अंग्रेजों की चाटुकारिता करने वालों की कमी नहीं थी। बल्कि चाटुकार देशभक्त-वीरों की जासूसी करके इनाम के लालच में अंग्रेजों को उनकी खबर देते थे।वे चाटुकार आज देश पर कब्जा करके सबसे बड़े राष्ट्रभक्त बने हुए हैं।और चीख चीख कर कर मंचों से अपने को स्थापित करने में लगे हुए हैं।आदिवासी ही यहां के मूल निवासी थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर किए और असहनीय यातनाएं झेली। इस संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि –
“आदिमों के आंदोलन, आजादी की बुनियाद बन गए।
उलगुलान के स्वर, स्वतंत्रता के बिगुल बन गए।
वतन के लिए जिन्होंने प्राणों की बाजी लगाई, वही आदिवासी आज, अवहेलना के शिकार बन गए।।”6.
आजादी के आंदोलन की बुनियाद रखने वाले और क्रांति के स्वर जनमानस में फूंकने वाले आदिवासी समुदाय आज अवहेलना के शिकार हैं। जिन्होंने वतन के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाई, उनकी संतति आज दर-दर की ठोकरें खाने पर विवश हैं। और उपेक्षित – अपमानित जीवन जी रहे हैं। सत्ता के भूखे उन्हें लालच दिखाकर वोट की भीख मांग लेते हैं और फिर उन्हें उनके हालात पर छोड़ देते हैं। शोषण, अन्याय और दुख-दर्द देकर आदिवासियों को हाशिए पर धकेल दिया।
मनुष्य आज चांद पर पहुंच गया, धरती – आकाश की दूरियां माप ली। लेकिन समाज के वंचित वर्ग पर हमारा ध्यान नहीं रहा कि उन्होंने समाज की मुख्य धारा में शामिल कर सकें। हम पत्थर की मूर्ति को तो पूजते रहे। लेकिन जीवित मानव को हमेशा उपेक्षित करते रहे, यहां तक कि उन्होंने जीव जंतुओं को मनुष्य से अधिक सम्मान और प्यार दिया। सदियों से सदाचार की बातें करते रहे, लेकिन पूर्ण मनुष्य की मंजिल पर बहुत कम मनुष्य पहुंचे। हम धार्मिक पाखंड और कर्मकांडों में इतनी खो गए कि करोड़ों वर्षों की काल्पनिक बातों को भी दिल-दिमाग में बैठा लिया। उसका परिणाम यह हुआ कि मनुष्य ऊंच-नीच, गरीब-अमीर और जाति-धर्म में बंटा ही रह गया। कोई टुकड़ों पर पलता रहा तो कोई नाचता रहा। अब हालात यह है कि इंसान और जानवरों में कोई फर्क नजर नहीं आता।
अब समय आ गया हम अपने ऊपर जमी धूल को हटाकर समाज के लिए सूर्य बनकर काम करें। समाज की विषमताओं को हटाकर इंसानियत तैयार करें। हम इंसान को सहायता, सम्मान, समानता और भाईचारे का सहारा देकर उनकी पीड़ा का हरण कर सकते हैं। और बंजर भूमि पर भी मधुबन महका सकते हैं। जीवन के सच्चाई-जज्बातों को समझें। खुद ही मंजिल का चुनाव करके लक्ष्य हासिल करें और नई पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक बने। यह सब अपने कौशल और मेहनत से संभव है। हमे भूखे प्यासे के लिए ही सहारा बनना होगा, समाज को आगे ले जाने के लिए हमें हर एक इंसान को जागृत करना पड़ेगा।
पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘गणतंत्र को गतिमान बनाने’ वाली गजल की पंक्तियों से शुरू किया गया है वह इस प्रकार है – “गणतंत्र को गतिमान बनाने, साथ सब चलें। संसद को शक्तिशाली कराने, साथ सब चलें। फिर से यह वतन सोने की चिड़िया कहलाएगा,
जरा संविधान की बुनियाद की ओर, साथ सब चलें।।”7.
इसमें प्रो. सावन लोकतांत्रिक व्यवस्था को गतिशील बनाने और हमारे संसद को मजबूती देने के लिए मिलकर एक साथ चलने का आह्वान करते हैं। भारत के सुनहरे भूतकाल से प्रेरित वर्तमान-भविष्य को संवारने के लिए संविधान की बुनियाद को मजबूती देने के लिए भारतवासियों को एक साथ चलना होगा । ‘बर्फ सी जमीन जिंदगियों को…’ गजल में बर्फ की तरह ठहरा जीवन, विस्थापित होते लोग, समाज में महिलाओं की स्थिति, भ्रूण हत्या, महिलाओं को देवी का अवतार बताना, अज्ञान का अंधेरा, पाखंड का विरोध, मूर्ति पूजा का विरोध, छल-प्रपंच, विषमताएं, बेघर, सहायता और शोषितों का शोषण इत्यादि का वर्णन किया गया है।
समाज की विसंगतियों को दूर करने के लिए किसी को तो आगे आना होगा। मन में कुछ करने का जज्बा हो तो काम आसानी से हो जाते हैं। अंधेरे में दीपक जलाने से उजाला होता है इस काम के लिए मन में दृढ़ निश्चय जरूरी है। रेगिस्तान में बीज बोने, पत्थरों पर चलने, कटीली डगर पर चलने और कांटे कुचलने, सच्चाई बयां, लुच्चे लफंगों की पोल खोलने, नकाबपोशों की रंगीन दुनिया का पर्दाफाश करने, मुखोटों के किरदार का असली चेहरा दिखाने इत्यादि से मनुष्य को किसी ने रोका नहीं है। वह चाहे तो अपनी जान की परवाह न करते हुए उपरोक्त कार्य कर सकता है। प्रो. सावन इसमें युवा पीढ़ी को जीवन में नैतिक और साहसिक कार्य करने के लिए प्रेरित और उत्साहित करते हैं।
‘अज्ञान के अंधेरे मिटाओ…से तात्पर्य यह है कि हमें पाखंड और रूढ़िवादिता से बचकर वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हमें सभ्यता – संस्कृति को बचाने का आवश्यक प्रयास करने की जरूरत है, इसके लिए हमें मानवता का दीप बनना होगा। ‘कभी अंधेरे में जलते दीपक…’ में कवि कहना चाहता है कि ‘ जाके पैर न फटी डिवाइ सो क्या जाने पीर पराई’ वाली कहावत आज भी समाज में प्रासंगिक है।मनुष्य को दूसरे के दुख का अहसास तब अधिक होता है, जब वह उस स्थिति से गुजर चुका होता है। चाहे हम निर्धनों की बात करें, असहाय – अपाहिजों की बात करें, रिश्ते, धोखाधड़ी, बेवा की मांग का सूनापन, प्रताड़ित करना, कन्या की शादी, आदर्श और ईमानदारी का जीवन इत्यादि।
‘जैसे मिलते हैं जमीन-आसमान…’ में शोषक और शोषित के बीच की गहरी खाई दिखाई देती है। सूर्य चंद्र की रोशनी का अंतर अमीरी गरीबी का प्रतीक है। जमीन पर हरी घास है लेकिन किसान के जीवन में सूखापन। वसंत में कुकती कोयल भी है, लेकिन अभी समाज के पीड़ित वर्ग में उदासी छाई हुई है।झरनों की कल कल ध्वनि मन को प्रफुल्लित करती है, लेकिन बेसहारा मनुष्य के जीवन में अंधकार फैला हुआ है। जंगल में खिलते वन फूलों की महक और रंग बिरंगी तस्वीर अभी आदिम जाति के जीवन में खिलना शेष है। हवा में उड़ते पक्षियों से मनुष्य को हौसला तो मिलता है, लेकिन उड़ान भरने में और अधिक समय चाहिए। इसलिए मनुष्य को अपने स्तर पर लगातार प्रयास करते रहना जरूरी है।
शासन-व्यवस्था को आम जनता की भाषा में संप्रेषित करने के लिए एक राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। वह भाषा भारत में हिंदी ही है, जो की अन्य भारतीय भाषा-बोलियां को भी किनारा देने का काम करती है। यह राष्ट्र का गौरव है और विश्व में भी अपना लोहा मनवा चुकी है। उत्सर्ग, समर्पण, मानवता और शांति महात्मा बुद्ध की भूमि पर बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है। संस्कृतियों का सरोकार भी इसी भाषा में दिखाई देता है। इस संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि –
“ज्ञान विज्ञान की अब भाषा है हिंदी
रोजगार और तकनीकी का लिबास है हिंदी सातों समानदारों पर गूंजने वाली… सांस्कृतिक समन्वय की संवाहिका है हिंदी।।”8.
इस प्रकार हिंदी अब ज्ञान विज्ञान की भाषा बन चुकी है। यह रोजगार और तकनीक का लिबास भी है तो हिंदी में विज्ञापन से लोग करोड़ों कमा रहे हैं। यह बाजारवाद का अच्छा स्रोत है। विदेश के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी का ज्ञान दिया जा रहा है। अब हिंदी की गूंज विदेश में भी सुनाई देने लगी है। संस्कृतियों को जोड़ने का कार्य भी हिंदी कर रही है
“भूख के निवालों का नाम…” में कवि ने जिंदगी को परिभाषित करने की कोशिश की है। जीवन कहीं पर भूख के निवालों का नाम है तो कहीं पर दानों को जुटाने का काम भी है। खुद की तमाम खुशियों को दूसरों को अर्पित कर उन्हें जिताने का काम भी जीवन है। जीवन कहीं सूरज से बरसने वाली आग है, तो कहीं पृथ्वी और सूर्य का प्रेम भी है। कहीं तेज धूप तो कहीं शीतल छांव भी जीवन में मिलती है। जीवन कहीं पर मिट्टी की महक में बसी सुगंध है तो कहीं पानी में जन्मती तरंग है, ऊर्जा से परिपूर्ण नवजीवन की उमंग है। जीवन में प्रकृति की पारदर्शी प्रतिभा दिखाई देती है।
“खुदा खैर करे…” में एक ओर खुशियों की दुआएं हैं, पीड़ितों की पुकार है, प्रार्थना है, फरियाद है, दूसरी तरफ ढोंगी-पाखंडियों और भ्रष्टाचारियों, गलत कार्य करने वालों का भी ईश्वर भला करें। और उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करें। घमंडी और मुखौटाबाजों, औरतों को देवी मानकर पूजने वाले और शोषण करने वालों धार्मिक पाखंडियों का भी ईश्वर भला करें। मनुष्य इतना स्वार्थी है कि उसे बदलने में देर नहीं लगती। काम बदलने, नाम, मोहजाल, रंगों को, झंडों को, बहादुर योद्धाओं को, गवाहों को, जवाबों को बदलने में, सजा बदलने में, उसूलों से गिरने में, वादों से मुकरने में, शतरंज के मोहरों इत्यादि की तरह इंसान को आज बदलने में देर नहीं लगती।
मानव जीवन के सद्गुणों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है। तभी मानव समाज का संपूर्ण विकास संभव है। हमें सत्य, करुणा, समर्पण, अपनापन, प्रेम, धर्म की पाखंडता का विरोध इत्यादि को लेकर चलने की जरूरत है। शासन व्यवस्था की बंदर बांट आज प्रासंगिक है। सत्ता, धन और लालच के चलते ऐसा हो रहा है। इस संबंध में प्रो.सावन लिखते हैं कि –
“मोह माया त्यागने का उपदेश देने वाले करोड़पति बन गए।
सत्संग के मेले लगाने वाले, भ्रष्टाचारियों के सरकार बन गए।
स्वाधीन देश के ये बिना वह पूंछ के रंग-बिरंगे बंदर,
मतलब के लिए, पूंछ हिलाने वाले बन गए।।”9.
इस प्रकार आज जो धर्मगुरु मोह माया त्यागने का उपदेश दे रहे हैं, वे महंगी कारों में घूम रहे हैं, और अपार धन संचय किए हुए हैं। सत्संग के नाम पर, मेले लगाकर करोड़ कमा रहे हैं। भ्रष्टाचारियों को पनाह दे रहे हैं। बिना पूंछ वाले रंग-बिरंगे इंसान स्वार्थवश अपनी दुम हिलाने के लिए आतुर हैं। भारत की भूमि बुद्ध की भूमि है। बुद्ध की शिक्षाएं समाज को सच्ची दिशा और दृष्टि प्रदान करती हैं जिसे ईमानदारी, मानवता, समर्पण, वैज्ञानिक सोच झलकती है। अशोक चक्र की स्वर्णिम संस्कृति, प्रतिभा का सम्मान, कठिन मेहनत, ज्ञान और लोक संस्कृति को समझने की आवश्यकता है। पक्षियों और पानी की लहरों की तरह हमें भी मुक्त होकर धार्मिक आडंबर, जातिवाद की सीमाएं लांघकर अपना जीवन जीना चाहिए।
हम अपने घमंड में चूर अजनबीपन का अभिनय करते हुए मानव जीवन को मृत्यु के हवाले करके हम सभी निकल पड़े हैं, अपने जीवन रूपी सफर पर। हमें स्वार्थ त्याग कर अपने चाहने वालों या रिश्तों की कद्र करनी चाहिए। हमें अपने अहम का त्याग करना है। कुएं का मेढ़क नहीं बनना, अन्यथा हम अपने ही द्वारा बिछाए जाल में फंसकर मरेंगे। हमें नि:स्वार्थ भाव से मानव कल्याण के कार्य करने चाहिए। स्वार्थ के लालच में हम जीवन भर चमगादड़ों की तरह उल्टे लटके रहेंगे।
मानव का कल्याण करने वाले कुछ लोग ही अपने नियत को साफ रखकर जीवन में आगे बढ़ते रहे हैं, और खामोशी से जीवन बिताते रहे हैं। स्वार्थी किस्म के लोग मानव समाज के ताने-बाने को आहत करने में व्यस्त रहते हैं। वे मानव जीवन के लिए बेदखली की अलख जगाने में समय बिताते रहते हैं। आज आधुनिकता का यंत्र युग है। सारे काम मशीनों से आकर्षक ढंग से तैयार हो रहे हैं। इससे लघु उद्योगों में हस्तशिल्पियों के कारखानों का दीवाला निकल गया। उनके उद्योग कारखाने नष्ट होने के कगार पर आ गए। कई ने अपने धंधे ही बदल लिए। उन्हें मेहनत की कीमत भी नहीं मिली, उनमें अब काम करने की हिम्मत भी नहीं रही। हाथ से बनने वाले सामान अब गायब सा हो गया। कवि को लगता है कि डालियों का दर्द, फूलों की पीड़ा, कायनात की कीमत और चांदनी रात की झिलमिलाहट सिमट-सी गई है। मानव ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया है, तो प्रकृति का बिखरा रूप अब देखने को मिलता है।
देश में जनता के शासन को गति देने के लिए और संसद को शक्तिशाली बनाने के लिए सभी को साथ चलने की आवश्यकता है। भारत देश को फिर से सोने की चिड़िया कहलाने के लिए जरूरी है कि भारत के संविधान की बुनियाद को मजबूत रखा जाए। यह काम पूरे देश के नागरिक एकता के साथ पूरा कर सकते हैं। परपीड़ा को परखने और समझने, उत्सर्ग, गैरुएं रंग में रंगने, सत्य को बचाने, पाखंडवाद को ध्वस्त करने, वैज्ञानिक सोच निर्मित करने, आजादी का जश्न मनाने, तिरंगे की शान को मन में रखने तथा महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं कार्यान्वित करने इत्यादि के लिए सभी भारतीयों को साथ चलना होगा। तभी हमारा देश दिन दूने और रात चौगुनी प्रगति के पथ पर होगा।
हमें अपने जीवन का सावन खुद बनना होगा। अच्छे कर्म करके इंसानियत को भी सुधरा जा सकता है। इस संबंध में प्रो.सावन लिखते हैं कि –
“जिंदगियां के पन्नों पर, सच्चाई की दास्तान लिखते चलो।
मानवता की किताबों से इंसानियत के पाठ पढ़ाते चलो।
जहां डाल-डाल पर कभी बैठी थी, सोने की चिड़िया,
उस मधुबन की, अब फिर से अमन बनाते चलो।।”10.
मनुष्य के जीवन में अपार कठिनाइयां हैं, उसे अपना जीवन सफल बनाने के लिए कठिन मेहनत और लगातार सार्थक अभ्यास करने की जरूरत है। इसलिए ईमानदारी से की गई मेहनत पर ही जिंदगी की सच्ची दास्तान लिखी जा सकती है। इंसानियत, नैतिकता और माननीय गुणों को समाज में संप्रेषित करना जरूरी है। जिस भारतीय वर्ष में कभी हरी भरी खुशहाली थी और धन वैभव से भरा हुआ था, सब उजड़ चुका। अब फिर से अमन चैन लाने की जरूरत है। उस भारतवर्ष को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था उसे फिर से हरा भरा करना है।
जीवन में जो सूखापन है उसे मेहनत करके हरा भरा करते चलिए। दुख के पहाड़ जीवन में है, मेहनत करके उनमें मधुबन खिलाना है। अपनी मातृभूमि से जुड़े रहने की जरूरत है। प्रेम की इस शांत भूमि पर हमेशा विशाल हृदय लेकर, कमजोर प्राणियों की सहायता करते रहे। ‘अब कोई नया दौर ऐसा…’ में कवि नए दौर, कोई कारवां, मिशन और कोई नया संकल्प करने की बात कर रहे हैं। जिससे समाज को अज्ञानता, शोषण, फरेबी चेहरे, दुखी चेहरों, गुनहगारों, स्वयं की तिजौरियां भरने वाले तथा जातीयता का जहर इत्यादि से सतर्क रहना है। इस संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि-
“अब कोई संकल्प नया,ऐसा भी किया जाए।
मनो से जातीयता का, विष सारा फेंका जाए।
विषमताओं की बिन से, जो बनाते रहे इंसानों का सांप।
इन जहरीले इंसानी-सांपों के फन सारे कुचलें जाएं।।”11.
इस प्रकार समाज में जातीयता का जहर फैलाने वालों का सिर कुचलने की सख्त आवश्यकता है। इस तरह का संकल्प नूतन पीढ़ी में भी विकसित करना है, जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण किया जा सके।
समाज में मेहनतकश लोगों को मनचाहे काम की जरूरत है। और रोजगार से वंचित युवाओं को भी अपने कौशल का सम्मान मिलना चाहिए। पुरानी बातों की अफवाह फैलाकर लोगों में भ्रम पैदा कर गुमराह नहीं किया जा सकता। वर्तमान में पीढ़ी को जीवन जीने की राह मिलनी चाहिए। लोगों को अब जिंदादिली, प्रेम, नया अहसास तथा जिंदगी की नई बाहर इत्यादि में रुचि है। अब समय आ गया है कि जब गर्दिशों के गणतंत्र को बहती बेईमानी से बचाना होगा। पीड़ित प्रजा की वेदनाएं, अधिकारों से वंचित लोग, अंधेरे आशियाने, अंधकार में डूबे मनुष्य को दिमाग में नई सुबह की उम्मीद जगानी होगी।
भारतीय प्रजातंत्र को दीन दुखियों के उत्थान, न्याय, एकता और समानता के लिए स्थापित किया गया। श्रमिकों की शक्ति, कौशल, संघर्ष और कठिन मेहनत इत्यादि से राष्ट्र का निर्माण हुआ। पूरे देश के उत्थान के लिए संविधान सर्वोपरि है। भारत देश को धूर्त और भ्रष्टाचारियों से बचाना है। हमें अपने अंदर रोशनी जलाने की जरूरत है। संविधान को जन-जन तक समझाना है ताकि लोग अपने अधिकारों-कर्तव्यों के प्रति सजग रहे।
हमारे गणतंत्र पर जो धूल जमी है, उसे हटाना है। समानता का बोलबाला है, अब इंसानियत को बचाना बहुत जरूरी है। देश में पहले पाखंडवाद का पर्दाफाश होना भी जरूरी है तभी हम विश्व, देश, समाज और परिवार इत्यादि का संपूर्ण विकास कर सकते हैं। इस संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि-
“सभी की स्वतंत्रता का सम्मान, बनाए रखना जरूरी है।
हक और कर्तव्यों का अहसास, जगाए रखना जरूरी है।
यदि सचमुच चाहते हैं हम, प्रजातंत्र का उत्थान,
तो सच्चे सविधान के मार्ग पर, सभी को चलना जरूरी है।।”12.
इस प्रकार हर भारतीय नागरिक का सम्मान बनाए रखना और अधिकारों-कर्तव्यों के प्रति सजग रहना भी अति आवश्यक है। लोकतंत्र के उत्थान के लिए सभी नागरिकों को संविधान के मार्ग पर चलना होगा। धार्मिक-राजनीतिक प्रपंचों और पाखंडियों से संविधान को बचाना होगा। समय-समय पर संविधान को कमजोर करने की साजिशें रची जाती रही हैं, इसलिए प्रत्येक नागरिक को सचेत रहने की आवश्यकता है।
किसी देश का लोकतंत्र यदि गर्दिश में है तो देश का बिखरना भी तय है। साजिशें परिवार, समाज और देश को खोखला बना देती हैं। चालक लोग अपने नजदीक के लोगों पर पहले वार करते हैं, वे आदर्श मूल्यों को गिराने से नहीं हिचते। समय बदल रहा है अब शोषित भी चापलूस बनकर अपने ही लोगों का शोषण करवा कर खुश हो रहा है। शोषित गुलामी से दिमागी रूप से गुलाम बनता जा रहा है। जो कामचोर, नौटंकीबाज और धूर्त जैसे थे, वे भी अब नैतिकता की बातें करने लगे हैं। दिखावे की संस्कृति ने लोगों में होड पैदा कर दी है।
इस असहाय और अपाहिज युग में मनुष्य का गिरगिटों की तरह रंग बदलना, मगरमच्छों की तरह अश्क गिराना, गुलामी में भी सुकून महसूसना, पाखंडियों के प्रवचन और परलोक पाप-पुण्य का भय दिखाकर रंगदारी करना, मुंह में राम बगल में छुरी, लफंगेबाजी, धोखेबाजी, लालच तथा लोगों का लावारिस बन कर जीना इत्यादि देखने का मिलता है। कृत्रिमता के युग में अपने फायदे के लिए अपना चोला बदलना कोई मनुष्य से सीखे। परिस्थितियों के साथ अपने को ढालना, स्वाद का सरताज बनने की होड़ में करेला मीठा बनने की कोशिश कर रहा है, मगरमच्छ झूठे आंसू गिराते हैं, शिकार को देखकर वे रोने का दिखावा कर रहे हैं, भेड़िया महात्मा बनने का ढोंग कर रहा है, नीम की निंबोलियों भी मधुबन का बादशाह बनने के लिए जायकेदार बनने का दिखावा कर रही हैं, ठीक इसी प्रकार से मनुष्य भी करता है।
बदलते परिवेश में समाज में बुराइयों का दबदबा बढ़ने लगा है, इसलिए समाज और संस्कृति में विकृतियां प्रवेश कर चुकी हैं।अज्ञानियों ने पाखंड की दुकान को गति प्रदान की है। नैतिक मूल्यों को पाखंड और धर्म का चश्मा चस्पा कर दिया है। ईमान पर बेईमानी हावी और सच्चाई की हवा जहरीली हो गई है। समाज के रिश्तों में स्वार्थ भर चुका है।
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में धूर्त और मक्कारों की बल्ले बल्ले हो रही है। आज झूठ, बेईमानी, बदमाशी, चोर उचक्कों की तकदीर , कुकर्मियों की कामयाबी, गरीबी, स्वार्थ, लूट खसोट करना, पाखंड की दुकान, कुएं का मेंढक बनना, मानव सेवा का धर्म, सांप्रदायिक झगड़े और स्त्रियों पर अत्याचार इत्यादि देखने को मिलता है। इस संबंध में प्रो.सावन लिखते हैं कि-
“आदमियों में भेदभाव और कब तक करवाओगे?
स्त्रियों पर अत्याचार कब तक चलवाओगे?गणतंत्र और संविधान के समतावादी युग में भी,
तुम्हारी विषमता और विकृतियों की जड़ें, कब तक फैलाओगे ?”13.
इस प्रकार समाज में फैली बुराइयों में भेदभाव, छुआछूत, सांप्रदायिकता, असामाजिक तत्वों के कुकृत्य, स्त्रियों का शोषण, संविधान के नियमों का उल्लंघन, विषमतावादी प्रवृत्ति और विकृत मानसिकता इत्यादि पर जोरदार प्रहार कवि ने किया है।
इंसानियत अब खत्म होती जा रही है, अब इंसानों में लालच, धन कमाने की अभिलाषा एवं अकर्मण्यता हावी हो रही है। इसलिए किसानों के खराब हालात, देश के लिए शहीद होने वालों की उपेक्षा, लोगों की खुशियों को मातम में बदलना, मेहमानों का सम्मान कम होना और समाज के संस्कारों का गायब होना इत्यादि देखने को मिलता है। लोग साल दर साल कैलेंडर तो बदलते रहे हैं, लेकिन स्वयं को नहीं बदल पाए। नैतिकता, धार्मिक एवं अन्य शिक्षा की पोथियां भरी हुई हैं, लेकिन प्रेम की परिभाषा को कार्यान्वित नहीं कर सके। भौतिक संसाधनों की प्राप्ति के लिए रात दिन दौड़ रहे हैं, नाच रहे हैं, खुद ईमान और इंसानियत भी बेच चुके हैं। आज समाज कंगूरे में लगी ईंट जैसा है और लोग कंगूरे की तारीफ किए जा रहे हैं। कंगूरे की ईंट के बारे में कोई जानता तक नहीं। समाज को धूर्त-मक्कार लोग लूट रहे हैं और खून चूस रहे हैं।
अत्याचार सहन करने वाला भी अत्याचार करने वाले के बराबर दोषी होता है। कुएं के मेंढक की तरह जीने से अच्छा मनुष्यता के उत्थान के लिए कार्य करना चाहिए, अन्यथा विसंगतियों सिर उठाकर समाज को मानसिक विकृतता में धकेल देंगी। विश्व स्तर पर फैली कोरोना महामारी में लोगों को मुसीबत का सामना करना पड़ा। मनुष्य मनुष्य को देखकर भाग खड़ा हुआ और जिस तरह से दलित और आदिवासियों से लोग छुआछूत बरतते थे ठीक उसी तरह कोरोना मरीज के साथ सभी बरतने लगे। लोग पानी की एक बूंद और अनाज के दानों के लिए तरस गए। गरीब लोगों की झोपड़ियां जलाना, मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ना, ठीक उसी तरह रोटी के लिए लड़कियां चिराना, पानी के लिए कोल्हू का बैल बनना, गुलामी, हरिजन बोलना, शूद्रों के मुंह पर लौटा बांधना, पैर के निशान मिटाने के लिए कमर में झाड़ू बांधकर चलना, शिक्षा एवं सुविधाओं से वंचित रखना तथा गंवार कहना इत्यादि कविता में दिए गए हैं।
समय तेजी से बदल रहा है। मनुष्य ने गिरगिट का रूप धारण कर लिया और उनके शासन में भेड़िए जैसा व्यक्ति शेरों से शासन चुराकर बादशाह बनकर बैठा है। गणतंत्र में मक्कार और गधे जैसे लोग चुनकर जा रहे हैं और वे समाज के लिए कलंक हैं। रक्षक ही समाज के लिए भक्षक बन गए है। मगरमच्छ आंसू गिराकर मनुष्यता की मिसाल बन रहे हैं। बस्तियों को जलाने वाले मददगार बनने का ढोंग कर रहे हैं। चोर साहूकार बन रहा है, बैंक से पैसे का गबन करके विदेश भाग रहा है। गरीब मौत को गले लगाने के लिए मजबूर है। तलवे चाटने वाले मालदार बन रहे हैं और मेहनतकश दोपहर की रोटी के लिए मोहताज बने हुए हैं।
प्रकृति की उन्मुक्तता को रोका नहीं जा सकता। बारिश, हवा, झरने और हरियाली मन को मोह लेती है और जीवन में खुशियों का संचार कर देती है। पेड़ बचे रहेंगे तो जीवन भी बचा रहेगा। डालियां झूला झूलेंगी, पेड़ों पर फूल फल लगेंगे इससे जीवन में भी हर्षोल्लास बना रहेगा। समाज के कमजोर तबके की समय-समय पर सहायता भी अति आवश्यक है। मानवता, समानता, प्रेम तथा दया की बौछारें जीवन में चलती रहें तो देश की असहाय जनता का विकास भी तेजी से होगा।
आज के समय में भी लोगों में मानसिक गुलामी, भेदभाव, पाखंड को बढ़ावा देना, अंध, कृत्रिमता का जाल बनाकर रखना, जमीन, जंगल, पहाड़ और नदियों को चीरकर संसाधनों पर हमला कर रहे हैं। बेईमानी और नफरत की भावना समाज में फैला रहे हैं। इस संबंध में प्रोफेसर सावन लिखते हैं कि –
“धरती को लहूलुहान कर रहे हैं लोग।
अंबर का मंजर बदल रहे हैं लोग।
करोड़ों काली करतूतें छिपाकर,
खुद को सूरत साबित कर रहे हैं लोग।।”14.
यह तकनीकी युग है, और दुनिया में अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं से छेड़छाड़ जारी है। इसका खामियाजा संपूर्ण मानव जाति को भुगतना पड़ेगा। धन लोलुप धरती का सीना चीरकर तरह तरह के कीमती पत्थर, कोयला और खनिज निकाल कर घर भरने में लगे हुए हैं। आकाश में ग्रह-उपग्रह तथा रॉकेट छोड़कर नई-नई खोज की जा रही है। लेकिन इसका भी नकारात्मक प्रभाव मानव पर ही पड़ेगा। अपनी काली करतूतें छुपा कर स्वयं को सूरज की तरह बताने की कोशिश में लोग लगे हुए हैं।
इंसान इतना मतलबी हो गया है कि उसे अपने दुख: के अलावा दूसरे के दुख को नौटंकी समझता है। कुछ लोग पाखंड फैलाने में इतने माहिर होते हैं कि आनन फानन में धर्म के नाम पर झूठ फैलाकर लोगों को चकित कर देते हैं। आज इतनी विकृत मानसिकता हो गई है कि ढोंग करके लोगों के बीच अपने को ईश्वर तुल्य बनाने पर उतारू है। वे स्वयं की पूजा करवाने के लिए आतुर है तथा यह समाज के लिए खतरनाक संकेत है। स्वार्थी, मनगढ़ंत, अनर्गल बातों का होना, केकड़े की तरह जीना, टांग खींचना,लालच की सराहना, दौलत के नशे में चूर होना, घर-घर में लड़ाई झगड़ा होना, टुकड़ों में बंटना, हैवानों की रोटियां पर पलना, दिमाग को गिरवी रखना तथा कुत्ते की तरह भौंकना इत्यादि देखने को मिलता है।
आज समाज आपसी खींचतान में उलझा हुआ है, और टेढ़े-मेढ़े रास्तों में धंसा हुआ दिखाई देता है। लोगों का बड़ा दिल न होकर एक बोनसाई पौधे की तरह सिमट पर रह गए हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, ईर्ष्या, चापलूसी करना, नाम बदलना, असलियत को छुपाना, अपने को ज्ञानी साबित करने में लगे रहना तथा कूप मंडूप बनकर जीना इत्यादि हरकतों से बाज नहीं आ रहे।
समाज में पहले एक अपराधी या तो उसके गुर्गे की संख्या भी कम होती थी। अब तो जितने अपराधी हैं, उतने ही उनके चमचे या चेले चपाटे नजर आते हैं। इसलिए अपराध का खौफ और भय हर घर में दिखाई देता है। अब हर एक नेता-अफसर शोषण और अपराधी बन बैठा है। वह समाज का शोषण अपना अधिकार जताकर करता है। तथा अपने आकाओं के ये नामचीन दलाल बने हुए हैं। लोगों का शोषण करने वालों की यह पूजा करते हैं। शोषण करने का इनका अपना तरीका है। इन अपराधियों की आधी उम्र टहल सेवा में ही निकल जाती है। ये ईमान, धर्म तथा मानव सेवा का त्याग कर शोषण करने पर तत्पर रहते हैं। जीवन भर अपने आकाओं की गुलामी करते हैं। अधर्मी बनकर असामाजिक तत्व लोगों के खून के प्यासे बन गए।
स्त्रियों को देवी बताकर उनको पूजने का ढोंग करके उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करने से नहीं चूकते। शोषण करने और समाज को बांटने वाले धर्म ग्रंथों पर लोग घमंड करने लगे। तथा समाज में विषमता मिटाने के स्थान पर बढ़ावा देने का कार्य यथावत जारी है। स्त्री शोषण भी लगातार हो रहे हैं। देश में विदेशी ताकतों से और असामाजिक तत्वों से आमने-सामने की भिड़ंत में देश खून के आंसू रो रहा है। सरहद पर सिपाही शहीद हो रहे मांग सूनी हो रही, खुशी-उल्लास के स्थान पर घर में मातम छा गया है। इस संबंध में प्रोफेसर सावन लिखते हैं कि-
“सिपाहियों के खून से, राष्ट्र रक्त रंजित होने लगे।
बेवाओं की मांग से, जीवन सूने होने लगे।जिन आंखों में सजे थे, सुख समृद्धि के सपने, वे नयन अब, आंसुओं के समंदर होने लगे।।”15.
विधवाओं की आंखों में पानी का सैलाब देखकर किसी की भी रूह कांप सकती है। लेकिन नेता यहां पर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते। आज रोजगार के अभाव में नौजवान बदहवास घूमते दिखाई दे रहे हैं। बेरोजगारी तो दो जून की रोटी के लाले पड़ रहे हैं। शिक्षा के नाम पर लोगों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
आजकल समाज मतलबी होता जा रहा है, भोगवादी प्रवृत्ति के लोगों को दूसरों का दुख दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार सदियों से स्त्री पर अत्याचार करने वालों को स्त्री सम्मान की कीमत कैसे पता लग सकती है। वह सच से विमुख, अच्छाई से दूर, छल-कपट में लिफ्ट तथा स्वछंदता से दूर हैं। पाखंड के संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि –
“पाखंडी परिवारों की परंपरा खंडित होगी क्या?
ढोंगी दंभिकों की, मात्रा कम होगी क्या? युगों से लूटने वाले इन नौटंकीबाजों से,
भोली भाली जनता की, सचमुच रक्षा होगी क्या?”16.
समाज को दीमक की तरह खोखला कर रहा पाखंडवाद परिवारों की रीड बन गया है।इसमें स्त्रियां सबसे अधिक लिप्त हैं। पाखंड ने परिवारों को जकड़ रखा है, इससे उनका विकास भी बाधित होकर विपरीत हो गया है। दिनों दिन ढोंगियों घमंडियों की तादाद बढ़ रही है। ये नौटंकीबाज सदियों से समाज को लूटने चले आ रहे हैं। अब डर यह है कि भोली भाली जनता की रक्षा हम कर पाएंगे। इस तरह की गजल समाज की आंखें खोलने का काम करती है।
विज्ञान के इस युग में आज भी हम वशीकरण मंत्र के वशीभूत हैं। और हर एक अच्छे शुभ कार्य के लिए टोने टोटके करते रहते हैं। और शुभ मुहूर्त देखकर आगे का रास्ता तय करते हैं। यह विज्ञान का युग है ना कि पाखंड का। पाखंड के चश्मे को समाज की आंखों से हटाने की आवश्यकता है।
आज हमारे गणतंत्र भारत में सत्ता के अंदर लुच्चे-लफंगे छा गए हैं। वे गिरगिट की तरह रंग बदलते जा रहे हैं। बेईमानी, लालच, प्रकृति के साथ छेड़छाड़, जंगल-पेड़ पौधों को उजाड़ना, पहाड़ों का दोहन, लुच्चे लफंगों का समय तथा धन के पीछे भागना इत्यादि। जब देश का गणतंत्र गर्दिश में चल रहा हो तो देश का बिखरना तय है। साजिशें रचना, शिकंजा कसना, लोगों को कुचलना, आदर्श मूल्यों को ना मानना, विश्वासघात करना, रिश्ते में दरार, सत्ता का लालच, अमानुष लालसा, दुराचारी, असत्य, चोर उचक्कों का जलवा, नाम के विपरीत काम तथा नफरत फैलाना इत्यादि देखने को मिलता है।
विश्व में भारत की पहचान महात्मा बुद्ध के नाम से है जो कि भारत की बुनियाद भी है। मानवीयता तथा शांति का संदेश बुद्ध की शिक्षाओं से मिलता है। इस संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि-
“फिर से चलो, बुद्ध की ओर, मांगल्यदीप जलाने।
फिर से चलो, विश्वदीप की ओर, आलोक को बचाने।
भोग और बेईमानी के दलदल में,इस तरह धंसे…
कि फिर से चलो, पदमपाणी की ओर, जीवन अपना बचाने।।”17.
इस प्रकार समाज को फिर से बुद्ध की शिक्षाओं का रुख करना चाहिए। मंगलदीप समाज में जलाएं और खुशहाली का आनंद लें। प्रकाश को बचाने के लिए विश्व दीप की ओर चलने की आवश्यकता है। समाज भोगवादी संस्कृति और बेईमानी के दलदल में धंसा जा रहा है, जीवन को बचाने के लिए बुद्ध की ओर लौटने की आवश्यकता है। सुखी जीवन के लिए तथागत बुद्ध की ओर चलने की जरूरत है। सद्धम्म को जानने के लिए धम्मदीप की तरफ चलें। सद्ज्ञान की रोशनी पाने के लिए ज्ञानदीप की ओर चलना है। इसी प्रकार मन को पवित्र बनाना है तो गौतम बुद्ध की राह पर चलें, अपने कर्मों को अच्छा करना सीखें, समाज भ्रष्टाचार-भोग विलास में डूब गया है। इसलिए सदाचार की ज्योति जलाने के लिए संघदीप की ओर चलने की जरूरत है। इसी प्रकार विचारों को उन्नत बनाने के लिए विश्व दीप की ओर चलें। भौतिक सुख पाने के लिए शाक्य मुनि का अनुशरण करें। भेदभाव में बंटे मनुष्य को एकता की सूत्र में बांधने के लिए बुद्ध की शिक्षाओं का अनुशरण करने की जरूरत है।
आज के बदलते परिवेश में निराशा, कुंठा, ईर्ष्या, द्वेष की भावनाओं पर विजय पाने के लिए कवि करुणा, शीतलता, इंसानियत का सैलाब, प्रेम, तथा रास्ता दिखाने वाला इत्यादि का जिक्र करता है। वह असामाजिक तत्वों के चेहरे का नकाब हटाने, शबाब को पहचानने, रंग बदलने वालों की पहचान, निकम्मापन, कठपुतली बनने वाले लोग तथा ज़मीर को गिरवी रखने वाले लोगों को एहसास करवाने की बात करता है। आज समाज को बड़ा दिल रखने वाले अर्थात समाज के लिए त्याग, परोपकार, दया तथा प्रेम
करने वाले लोगों की आवश्यकता है, जिससे माटी की सुगंध समाज के लिए हर एक व्यक्ति के मन में बसाई जा सके। समाज में फैल रहे पाखंड पर लगाने के लिए कबीर की जरूरत है। जोकि डंके की चोट पर, सिर पर कफन बांधकर कुरीतियों का विरोध कर सके और समाज को एक सही दिशा और दृष्टि प्रदान कर सके। इसी प्रकार सबकी भलाई करने वाला, उन्नति की कामना करने वाला, भौतिक वस्तुओं का त्याग करने वाला, समाज परिवार की नहीं देश-विदेश में शांति की अलख जलाने वाले विश्वदीप तथागत बुद्ध की आज आवश्यकता है।
समाज का वंचित वर्ग जो अंधेरे में डूबा है और जो शोषित है उसे अब प्रकाश में लाना जरूरी है। हमें सभ्यता और संस्कृति को बचाना है, धरती की हरियाली, आसमान की स्वछंदता, कुदरत की खुशहाली की आवश्यकता है। अब समय बदल रहा है इसलिए बेघर लोगों, भूमिहीन, वतन के लिए शहीद होने वालों और मेहनतकश मजदूरों को उनका अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए।
मनुष्य के सुनहरे भविष्य के लिए जिंदगी की जंग, नेकी और सच्चाई का पाठ, इंसानियत की राह, मेहनत से दोस्ती, संकटों का सामना तथा बुलंदियां छूने की कोशिश इत्यादि जरूरी है। सच कड़वा होता है, वह लोगों के दिल में अमित छाप छोड़ देता है। यह सच, दृढ़ संकल्प, इंसानियत का गहना है। इस संबंध में प्रो.सावन लिखते हैं कि-
“साथियों! सत्य से ही, सृष्टि की स्थापना है। सच्चाई ही सृष्टि कर्ता की आराधना है। करोड़ों भगवान स्वार्थी लोगों ने अब तक…
पर की इबादत ही, सच्ची साधना है।।”18.
इस प्रकार समाज सच के रास्ते पर चलेगा तो अधिक उन्नति होगी और श्रेष्ठ स्वस्थ समाज का निर्माण होगा। समाज के वंचित वर्ग के साथ-साथ स्त्रियों को भी यातनाओं का सामना करना पड़ा। लेकिन अब समय बदल रहा है, संविधान की ताकत सभी के लिए प्रोत्साहन है तथा बल प्रदान करती है। कवि देश की बेटियों से कपट की बेड़ियों को तोड़ने और देश की शाश्वत बुनियाद बनने का आह्वान करता है। सच का साथ देने, दुराचारियों को दंडित करने, अपनी ताकत और हुनर का परिचय कराने, पाखंड का पर्दाफाश करने, फरेब का जाला हटाने और अपनी प्रतिभा दिखाने इत्यादि के लिए कवि प्रेरित करता है। इस संबंध में प्रो.सावन लिखते हैं कि-
“मेरे देश की बेटियों! बुलंद संविधान की शक्ति बन जाओ।
सदियों से छलने वाली, आदिशक्ति की प्रतिभा से बाहर आओ।
अत्याचारों के थे अविरत अंधेरे मिटाने के लिए…
अब 21वीं सदी की ज्वालामुखी बन जाओ।।”19.
इस प्रकार का कवि देश की बेटियों को संविधान से प्रेरित करने और अपने जीवन में शिक्षा को कार्यान्वित करने का आह्वान करता है। तुम पढ़ो और संविधान की शक्ति बन जाओ, पाखंडवाद से बाहर निकालो और अत्याचारों पर विजय प्राप्त करो। इस अद्यतन की ज्वालामुखी बनकर दुराचारियों का सर्वनाश कर दो।
देश की जनता को गुलामी से मुक्त करने, निर्धनों का मसीहा, मार्गदर्शन करने वाले, पराधीनता से मुक्त करने वाले, अछूतों को सम्मान-अधिकार दिलाने वाले, पाखंडवाद का पर्दाफाश करने वाले, स्त्रियों का सम्मान-अधिकार दिलाने वाले बाबा साहब डॉ.बी.आर. अंबेडकर को बार-बार नमन। भारत देश की पावन भूमि ने सेवा-त्याग की मिसाल कायम की है। बुद्ध की धरती की बार-बार वंदना करना हमारा कर्तव्य है। हमें करुणा, मित्रता, बोधिसत्व, भ्रमित कल्पनाओं का त्याग, मानवीयता, स्वार्थ के जालों को हटाना, चमचागिरी, विवेक से काम करना, बुद्ध सत्य को स्वीकार करना, लोगों में प्रेम, दया और भाईचारा की भावना विकसित करना इत्यादि शामिल है।
शिक्षक समाज का मार्गदर्शक और राष्ट्र निर्माता होता है। वह ज्ञान के माध्यम से आदर्शवान पीढ़ी का सृजन करता है। वे शून्य में भी अवसर ढूंढ लेते हैं। वे मददगार बनकर जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। समान व्यवहार , स्वयं से श्रेष्ठ बनाने की कोशिश तथा मनुष्यता के शिल्पी होते हैं। शिक्षकों के संबंध में प्रो. सावन लिखते हैं कि-
“दीपकों की तरह, ये औरों के लिए जलते हैं।
वृक्षों की भांति, ये घनी छांव देते हैं।
बादलों की तरह, सर्वस्व समर्पित करने से ही…
ये मानवता के सागर कहलाते हैं।।”20.
इस प्रकार शिक्षक समाज के लिए या नई पीढ़ी की शिक्षा को कार्यान्वित करने के लिए दीपक की तरह जलता है और वह स्वयं अंधेरे में रहकर दूसरों को रोशनी प्रदान करता है। वे ‘मानवता के सागर’ कहलाते हैं।
बाबा साहब डॉ.बी. आर. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान, बुद्ध के विचारों को आत्मसात करना, संविधान में अछूतों के अधिकार-कर्तव्य और सम्मान दिलवाना, चवदार तालाब का पानी पिलवाना, क्रांति के लिए मशालें सुलगाना, धर्म में पाखंड का पर्दाफाश, समाज में नफरत फैलाने वाली मनुस्मृति का दहन, अछूतों के लिए कालाराम मंदिर के किवाड़ खुलवाना, हिंदू कोड बिल पास करवाना, विश्व गौरव भारतीय संविधान लिखने इत्यादि कार्य देश की जनता के लिए किए। इसी प्रकार भारतीय संविधान में भारतीयता का सम्मान है, पंच प्राण, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, सामाजिक संवेदनाओं का दर्पण, सदाचार, संस्कार, समन्वय, अधिकार-कर्तव्य तथा न्याय इत्यादि में मानव जीवन की शक्ति समाहित है।
आज भी हम अछूत, जातिवाद, वर्ण-व्यवस्था में बंटे हुए हैं इससे समाज में विलगीकरण है। कोरोना जैसी महामारी में वायरस का फैलना, मरीजों का दम तोड़ना, सुविधाओं का अभाव, बेरोजगारी तथा भुखमरी इत्यादि का सामना करना पड़ा। यह परिवर्तन का समय है अब हमें मानव धर्म की सच्ची शुरुआत करनी चाहिए। समाज की कुरीतियों को समाप्त करने का समय आ गया है। महात्मा बुद्ध भारत की बुनियाद, हमारी पहचान, विश्व शांति, मानवता, कालजयी, सत्य, करुणा, सदाचार, दाम्भिकता पर प्रहार, पाखंड का पर्दाफाश, वैज्ञानिक सोच, श्रमजीवी संस्कृति का सम्मान तथा वीर महात्माओं का गौरव इत्यादि में समाहित है।
प्राकृतिक दृश्य को मन में समाता मनुष्य प्रफुल्लित है। फूलों की खुशबू और आसमान के नीलापन से जीवन को महकाया जा सकता है। जीवन में अच्छा आचरण हरियाली जैसा हो और फूलों की तरह स्वच्छ सुंदर जीवन से अपने बेरंग ज़िंदगी में इंद्रधनुष के रंगों को समाहित कर सकते हैं। अपने बंजर जैसे जीवन में बादलों की बूंद, पानी की शीतलता, झरनों की जिंदादिली को समाहित करके जीवन को खुशहाल बनाया जा सकता है। हमें पंछियों की उड़ानों की तरह हौसले रखने चाहिए। नए आवास का निर्माण अपने कौशल से करके सृजनशीलता को बढ़ाया जा सकता है। पपीहे की पीड़ा से हमें सीख लेनी चाहिए।
इस प्रकार कवि प्रो. सावन ने अपनी कविताओं और गजलों में मानवीयता का संदेश दिया है। जिसमें देश, संस्कृति और सभ्यता की झलक परिलक्षित होती है। वे महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को इस माध्यम से बताने में सफल रहे हैं। साथ ही डॉ. बी.आर. अंबेडकर के विचारों को प्रसारित करके वैज्ञानिक सोच के प्रति लोगों को प्रेरणा देते हैं। समाज के वंचित वर्ग-स्त्रियों को अपने अधिकारों को प्रति जागृत करने का आह्वान करते हैं। समाज की कुरीतियों जैसे – जातिवाद, छुआछूत ,वर्ण-व्यवस्था, धार्मिक पाखंड, नफरत, गुंडई करने वाले, स्त्रियों का शोषण, संविधान को नकारने वाले, इंसान के दुश्मन इत्यादि का जमकर विरोध कविताओं और गजलों में मिलता है।
एक ओर प्राकृतिक वस्तुओं का उपमेय-उपमान बनाकर मानवीय भावनाओं के साथ जोड़ा गया है, वहीं पर अनुप्रास, उपमा, रूपक तथा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों के उदाहरण देखते ही बनते हैं। ज्यादातर कविताएं करुण और शांत रस की प्रतीत होती है। कविताओं का शिल्प सौंदर्य कवि की प्रतिभा को उजागर करता है। वहीं कुछ कविताओं में उदासीनता भी मिलती है। लय और तुक को बनाए रखने के लिए शायद ऐसा हुआ है। यहां कविताओं और गजलों को तीन भागों में बांटा गया है लेकिन एक ही विषय की कविताओं को अलग-अलग रखा गया जिसे कविता में भी बिखराव-सा लगता है।कई कविता में शब्दों की पुनरावृत्ति भी परिलक्षित होती है।
कविताओं के मूल में भारतीय संविधान, समाज, गणतंत्र तथा बुद्ध को रखा गया है, जो कि सकारात्मक संदेश समाज को देते हैं। कविताओं में मानव जीवन की बुराइयों पर विजय प्राप्त करने का आह्वान किया गया है। कविता संग्रह में वंचित करके पंख लगाने का कार्य कवि ने किया है, यह संग्रह समाज के लिए ‘पावर बैंक’ का कार्य करेगा। संविधान की उद्देशिका को कवि ने अपनी अभिव्यक्ति दी है। समानता, मित्रता, स्वतंत्रता, अधिकार, सहायता, मेहनत करना, आदिवासी संस्कृति को बचाना, ईमानदारी, इंसानियत की सेवा, संस्कार, प्राकृतिक वस्तुओं का वर्णन, ढोंगियों की पोल खोलना, प्रेम, स्त्रियों का दर्द, कृत्रिमता, दलित चेतना, भूख, सामाजिक आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, राष्ट्रभाषा हिंदी, भ्रष्टाचार, शांति के पथ पर चलना, मनुष्य की क्रूरता, कूपमंडूप बनकर जीना, क्वॉरेंटाइन, मानसिक गुलामी, त्याग तथा बुद्ध की शिक्षा इत्यादि बताने की भरपूर कोशिश कवि ने की है। यह पुस्तक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो कि शोधार्थियों एवं शिक्षकों के लिए उपयोगी साबित होगी।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
1. प्रो. (डॉ.)शशिकांत ‘सावन’ “गर्दिशों के गणतंत्र में” पृष्ठ 7
2. वही पृष्ठ 10
3. वही पृष्ठ 23
4. वही पृष्ठ 28
5. वही पृष्ठ 34
6. वही पृष्ठ 35
7. वही पृष्ठ 39
8. वही पृष्ठ 46
9. वही पृष्ठ 51
10. वही पृष्ठ 56
11. वही पृष्ठ 57
12. वही पृष्ठ 61
13. वही पृष्ठ 70
14. वही पृष्ठ 78
15. वही पृष्ठ 83
16. वही पृष्ठ 84
17. वही पृष्ठ 89
18. वही पृष्ठ 94
19. वही पृष्ठ 95
20. वही पृष्ठ 98
“गर्दिशों के गणतंत्र में” मानवीय संवेदनाओं को बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत करता है। शीर्षक से ही झकझोर देनेवाली यह कृति हर उस आवाज़ को स्वर देती है, जो इस गणतंत्र के हाशिए पर खड़ी है—गर्दिश में है, लेकिन ज़िंदा है।
ग़ज़लों में शिल्प की नजाकत और विषयों की गंभीरता का सुंदर संतुलन है। हर शे’र जैसे आईना है—जो समाज, सत्ता और आत्मा तीनों को एक साथ दिखाता है।
संक्षेप में, यह एक ऐसा काव्य-संग्रह है जो दिल से निकला है और पाठकों के मन में गहराई तक उतर जाता है।
सादर समर्पित,
प्रियदर्शन
हार्दिक आभार सर
“गर्दिशों के गणतंत्र में” कभी हल्की धूप की तरह, कभी कोरे आकाश पर उतरती एक आवाज़ की तरह—यह संग्रह उन अनुभूतियों का दस्तावेज़ है जिन्हें अक्सर इतिहास नहीं लिखता। इन कविताओं और ग़ज़लों में कोई दिखावा नहीं, कोई साजिश नहीं—सिर्फ़ वो सच है जो दिल की कोर पर टपकता है और ज़ेहन में देर तक गूंजता है। हर पंक्ति जैसे अपने ही भीतर से उठी हो, और हर शे’र जैसे समय की सबसे खामोश चीख़ को सलीके से कह गया हो। यह संग्रह नहीं—एक जीवित अनुभव है।
मन से समर्पित,
प्रियदर्शन