hindi cinema bhasha

सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक बहुत ही अच्छा माध्यम है। सिनेमा में हर तरह की हिंदी के लिए जगह है। फिल्म में पात्रों की भूमिका व परिस्थतियों को देखकर ही भाषा का प्रयोग किया जाता है। जिससे प्रारंभिक दौर से लेकर आज तक इसका रूप निरंतर परिवर्तित होता जा रहा है। अगर देखा जाए तो प्रारंभिक दौर की फ़िल्में अधिकतर देवी-देवताओं, पुराणों और ग्रन्थों के चरित्र पर बनती थी
जिनमें ज्यादातर में हिंदी भाषा ही प्रयोग में लायी जाती थी। इसके बाद ऐतिहासिक काल वाली फिल्मों में मुग़ल काल की प्रधानता होने के कारण उर्दू का अधिक प्रयोग किया जाने लगा। वही ग्रामीण परिवेश की प्रधानता वाली फिल्मों में हिंदी व प्रांतीय बोलियों का ही अधिक प्रयोग किया जाता था। जिस तरह ‘मदर इण्डिया’ में हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी भाषा का भी प्रयोग किया गया है व खेती छोड़कर गाँव से शहर में जाकर रहने वाले किसान की व्यथा कथा को आधार बनाकर बिमल राय द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ में भी हिंदी भाषा का प्रयोग किया व गानों में भोजपुरी भाषा के शब्दों की अधिकता रही। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और भाषा के चयन को लेकर भी अब बदलाव हो रहे हैं।
हमारा सिनेमा संवादों की परम्परा के साथ सीधे ही रंगमंच और तत्समय व्याप्त शैलियों से बड़ा प्रभावित रहा है। सिनेमा से पहले रंगमंच था, पात्र थे, अभिव्यक्ति की शैली थी। बीसवीं सदी के आरम्भ में नाटकों में पारसी शैली के संवाद बोले जाते थे। पृथ्वीराज कपूर जैसे महान कलाकार नाटकों के जरिए देश भर में एक तरह का आन्दोलन चला रहे थे जिससे अपने समय के बड़े-बड़े सृजनधर्मी जुड़े थे। नाटकों, रामलीला, रासलीला में पात्रों द्वारा बोले जाने वाले संवादों का असर सिनेमा में लम्बे समय तक रहा है। सोहराब मोदी, अपने समय के नायाब सितारे, निर्माता-निर्देशक की अनेक फिल्में इस बात का प्रमाण रही हैं। बुलन्द आवाज और हिन्दी-उर्दू भाषा का सामन्जस्य उस समय के सिनेमा की परिपाटी रहा। आजादी के बाद का सिनेमा सकारात्मकता, सम्भावनाओं और आशाओं का सिनेमा था। धरती के लाल, कल्पना और चन्द्रलेखा जैसी फिल्में उस परिवेश की फिल्में थीं। नवस्वतंत्र देश का सिनेमा अपनी तैयारियों के साथ आया था। कवि प्रदीप जैसे साहित्यकार पौराणिक और सामाजिक फिल्मों के लिए गीत रचना कर हिन्दी साहित्य का प्रबल समर्थन कर रहे थे। हिन्दी में सिनेमा बनाने वाली धारा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों से आयी। निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, नायक-नायिका, विभिन्न चरित्र कलाकारों में जैसे श्रेष्ठता की एक श्रृंखला थी। इन सबमें हिन्दी के जानकार और अभिव्यक्ति की भाषा में हिन्दी के सार्थक उपयोग की चिन्ता करने वाले लोगों के कारण सिनेमा को एक अलग पहचान मिली।
साहित्य और सिनेमा की समीक्षा की कसौटी भी अलग-अलग होती है। सिनेमा की भाषा वह भी है जिसे निर्देशक कैमरे से, प्रकाश से, नृत्य से, शारीरिक हाव-भाव और ध्वनि से अभिव्यक्त करता है। फिल्म निर्देशक कैमरे के एंगल, उसकी गति (मूवमेंट्स), संगीत, गीत, प्रकाश, ध्वनि, अभिनय, रंग, ड्रेस, लोकेशन आदि कई माध्यमों से अपना संदेश दर्शकों तक संप्रेषित करता है। संवाद उसका एक हिस्सा होता है लेकिन उसका स्थान बहुत बाद में आता है। सिनेमा की भाषा के रूप में संवाद का महत्व बॉलीवुड में अधिक है जबकि हॉलीवुड की फिल्मों में संवाद कम होते हैं। हिंदी सिनेमा इतिहास की कई फिल्में ऐसी हैं जिनमें संवाद की तुलना में अन्य माध्यमों से सम्प्रेषण का प्रयास अधिक किया गया है। साहित्य में जो बात कई पन्ने रंग कर कही जाती है उसी बात को सिनेमा कुछ दृश्यों के माध्यम से आसानी से ही कह देता है।
सिनेमा में अगर बोलियों के प्रयोग को देखा जाये तो कहा जा सकता है कि हिंदी बोलियों का सिनेमा अपनी तकनीकी अपरिपक्वता तथा अपने सीमित संसाधनों के कारण भले ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना पाया हो किन्तु इन बोलियों की शक्ति को बचाएँ रखने की सम्भावना उसने जरूर दिखाई है। जैसे जवरीमल्ल पारख कहते हैं कि “बिमल राय हिंदी में सिनेमा बनाते हैं, लेकिन बार-बार वे हिंदी में बंगला समाज को प्रस्तुत करते हैं, चाहे वह ‘देवदास’ में हो या ‘परिणीता’ में।
जब वे ‘यहूदी’ में बंगाली समाज के बाहर जाते हैं तो वे हिंदी भाषी समाज की तरफ नहीं मुड़ते बल्कि हिन्दुस्तानी से दूर रोम और मिश्र के इतिहास की तरफ मुड़ते हैं। गुजरात के महबूब खान भी अपनी महाकाव्यात्मक फिल्म ‘मदर इण्डिया’ में गुजराती पृष्ठभूमि में किसान समस्या को उठाते हैं। इसी सच्चाई को हम वी. शांताराम से श्याम बेनेगल तक लगातार देख सकते हैं। वे हिंदी भाषा में तो सिनेमा बनाते हैं, लेकिन उस यथार्थ को लेकर जिसका सम्बन्ध या तो उनकी मातृभाषा से है या फिर किसी एक भाषाई क्षेत्र से उसे जोड़ना कठिन है। ‘गंगा जमुना’ या ‘लगान’ जैसी फ़िल्में, जिनमें भोजपुरी या अवधी का प्रयोग किया गया है हिंदी भाषी क्षेत्र की फ़िल्में नहीं कही जा सकती। स्थानीय स्पर्श देने के लिए इनमें क्रमशः भोजपुरी और अवधी का प्रयोग किया गया है।”
हिंदी फिल्मों के विस्तार का प्रभाव क्षेत्रीय भाषाओं पर भी पड़ा है और इसी प्रभाव के कारण हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी आदि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में बननी शुरू हुई। हिंदी की सहायक भाषाएँ होने के कारण अपने क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी ये चर्चित हुई। भोजपुरी फ़िल्में भी पहले अपने क्षेत्रों तक ही सीमित थी लेकिन अब महाराष्ट्र, उड़ीसा, असम, बंगाल और मध्यप्रदेश में भी काफी प्रचलित है। “हिंदी फिल्मों पर भोजपुरी का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि हिंदी की अधिकांश मसाला फ़िल्मों में भोजपुरी गीत, संवाद, या पात्र रखना एक आम बात हो गई है। भोजपुरी फ़िल्में कम लागत में अधिक लाभ देती है। यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद लगभग दो सौ से ज्यादा फ़िल्में बन चुकी है और काफी संख्या में आज भी निर्माणाधीन है इनमें कुछ चर्चित फ़िल्में -‘सबहिं नचावत राम गोसाई’, ‘करार’, ‘नथुनियाँ’, ‘तोहार किरिया’, ‘पैजनियां’ आदि है।” आज हिंदी सिनेमा को जरूरत है कि क्षेत्रीय भाषाओं में फ़िल्में अधिक से अधिक बने जिससे की हिंदी भाषा का वटवृक्ष और भी ऊर्जा स्त्रोत विकसित कर सके क्योंकि इन विभिन्न प्रकार की बोलियों को बोलने वाला सिनेमा भी अंततः हिंदी भाषा के विकास में महत्त्वपूर्ण साबित होता है। जिससे राष्ट्रीय एकता को भी दृढता मिलती है। भाषा में समाज और संस्कृति का प्रवाह रहता है। हिन्दुस्तानी समाज में हिंदी सिनेमा ने विभिन्न राष्ट्रीयता, सामाजिक ढाँचा, पारिवारिक रिश्ता, आतंकवाद, कृषि, किसान, बाजारवाद, प्रवासी जीवन आदि अनेक मुद्दों को उठाया है। हिंदी सिनेमा ने अपने कथानक, संवादों, पात्रों और भाषा की अभिव्यक्ति के आधार पर इन मुद्दों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है।
हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ हिंदी भाषी समुदाय की चुनौतियों, चाहतों तथा संघर्ष सपनों को भी विश्व-फलक पर पहुँचाने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। हिंदी भाषा का विश्व व्यापी प्रसार इन मुद्दों को संबोधित किये बिना अधूरा ही माना जाता है लेकिन हिंदी सिनेमा ने अपनी इस भूमिका का बखूबी निर्वहन किया है। दुनिया की कोई भी भाषा अपने नए माहौल से अनुकूलन किये बिना अपना अस्तित्व स्थापित नहीं कर सकती। समाज की नई हलचलों को पहचानने घटनाओं को जानने तथा उनके अभिलेखन के लिए एक भाषा का अपना ताना-बाना बदलना ही पड़ता है।
हिंदी भाषा भी नवीन चुनौतियों के वहन के लिए नयी विधाओं और नए नए रूपों में हमारे सामने आई है। हिंदी भाषा में सिनेमा निर्माण के साथ-साथ उर्दू को प्रमुख सहायिका भाषा के रूप में प्रयोग किया है गीतों और संवादों के लिए दृश्यता का समावेश किया। भाषा और बिम्ब के अंतर की पहचान बढ़ाई। नयी-नयी शैलियों जैसे मुम्बइया भाषा को भी सिनेमा ने मानक बनाया। नए-नए कोड, मिथकों, प्रतीकों का ईजाद किया। पटकथा-लेखन, संवाद लेखन एवं गीत-संगीत लेखन जैसी कई नयी विधाओं का सृजन किया। हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा को तकनीकी अनुकूलन के लायक बनाया। इस प्रकार से कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा के नए नए रूप-रंग और साँचे-ढाँचे को गढ़ा है। हिंदी साहित्य, हिंदी भाषा और हिंदी की अन्य उपबोलियों भाषाओं पर हिंदी सिनेमा का गहरा प्रभाव पड़ा है।
पहले हिन्दी फिल्मों में भोजपुरी या पुरबिया बोली का जितना उपयोग होता था अब उनके स्थान पर पंजाबी और गुजराती भाषा के शब्दों का अधिक प्रयोग होने लगा है। इसका कारण है कि विदेशों में पंजाबी और गुजराती भाषी लोग अधिक हैं। ये फिल्में आम हिंदुस्तान की फिल्में नहीं हैं बल्कि ‘न्यू इंडिया’ की फिल्में हैं इसलिए इनकी भाषा पर भी अंग्रेज़ी का प्रभाव अधिक है। बात हिन्दी पर उर्दू या अंग्रेज़ी के प्रभाव की हो लेकिन सभी यह मानकर चलते हैं कि नाम अगर हिन्दी सिनेमा है तो जो कथा दर्शक को दिखाई जा रही है उसमें बोली जाने वाली भाषा का रूप जरूरी तौर पर उसी दर्शक के अनुरूप होगा। इसी भाषा को कोई हिन्दी कहता है तो कोई उर्दू और कोई अंग्रेज़ी के प्रभाव वाली हिन्दी। हिन्दी एक ऐसी भाषा है जिसे सब अपनी तरह इस्तेमाल करते हैं और वह होती जाती है। उसके इस उदार रवैये ने ही इसे बचा कर रखा हुआ है। हिन्दी सिनेमा में हर तरह की हिन्दी के लिए जगह है।
सिनेमा के दृश्य माध्यम का यहां इस तरह इस्तेमाल हुआ है की कार के दाहिने, बाएं और सीधे- इन तीनों दिशाओं को दिखाते हुए ड्राइवर यह संवाद कह पाता है- कथा के नायक को इन तीन मे से किसी एक दिशा मे अब जाना होगा यह बात यहां सूचित होती है। `साहित्य का सिनेमा मे योगदान’, इस विषय पर अक्सर बातें होती रहती हैं। मगर सिनेमा का साहित्य मे योगदान अब तक जांचा नहीं गया। शायद सिनेमा मनोरंजन का लोकफ्रिय माध्यम है और लोकफ्रिय यानी अगंभीर, ऐसा माना जाता है, इसलिए अन्य ललित कलाओं जितना तवज्जो सिनेमा को नहीं दिया जाता। साहित्य का गुणधर्म है -असरदार, नयापन और कलात्मक पेशकश। जबकि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है,जो साहित्य के एकाधिक भिन्न स्वरूप के जरिये अपना व्याकरण तैयार करता है। लेकिन साहित्य के तमाम अवयवों को सिनेमा किस तरह अपने ढंग से तराशता है, यह देखना रसपूर्ण होगा। ऊपर `आर्टिकल-15′ के दृश्य में हमने संवाद में जो छिपे संकेत देखे वैसे संकेत कथा या कविता मे भी पाये जाते है पर हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सिनेमा के पास शब्दो के अलावा दृश्य से भी कुछ कहने की सुविधा होती है।
यह एक ऐसे माध्यम के रूप में हमारे बीच है जो अपने आप में कई कलाओं और संस्कृतियों को समेटे हुए है। समय के साथ हिंदी सिनेमा की तस्वीर भी बदल रही है। आज फिल्मों को लेकर नए-नए प्रयोग ज्यादा हो रहे हैं। फिल्मों के विषय चयन से लेकर संवाद लेखन और पटकथा तक पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव दिखने लगा है। हालांकि इस तरह के प्रयोग बॉलीवुड में पहले से ही होता आ रहा है, लेकिन आजकल ये प्रयोग बढ़ गया है।
14 मार्च 1934 में जब हिन्दी फिल्मों का सफर शुरू हुआ तो हिन्दी भाषा अपने असली रूप में थी, पर आज पान सिंह तोमर, उड़ता पंजाब, तन्नु वेडस मन्नु, गैंस ऑफ वसेपुर जैसी फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा में भाषा के ट्रेंड को बदला और फिल्मों में हिन्दी के साथ ही क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल होने लगा या फिर उन क्षेत्रों में हिन्दी बोलने के अदाज़ को फिल्मों में अपनाया जाने लगा। अब फिल्मों में भारत के अलग-अलग राज्यों के भाषा की सौंधी खुशबू आती है।
सिनेमा के मुख्य किरदार के संवाद अब क्षेत्रीय बोली में लिखे जाते हैं, उदाहरण के लिए तन्नु वेडस मन्नु की मुख्य किरदार कंगना उर्फ कुसुम अपना परिचय देते हुए कहती है ‘ म्हारा नाम कुसुम सांगवानी से, जिला झझड़ 124507, फोन नं. दौं कोणा’ दरअसल इस संवाद के जरिए हरियाणवी भाषा को भी व्यापक स्तर पर पहचान मिलती है। ऐसे ही बाजीराव मस्तानी में रणवीर सिंह उर्फ बाजी राव पेशवा के ज़रिए मराठी भाषा तो गैंग्स ऑफ वासेपुर में भोजपुरी, उड़ता पंजाब से पंजाबी, तो पान सिंह तोमर के जरिए ब्रज भाषा हिंदी के साथ मिश्रित हो लोगों तक पहुंची।
फिल्मों के संवाद और विषय चयन के अलावा हिन्दी फिल्मों के गाने भी क्षेत्रीय भाषा और बोली की शब्दावलियों के इस्तेमाल से बनने लगे हैं। जहां हिन्दी सिनेमा में खड़ी बोली का इस्तेमाल किया जाता रहा है उदाहरण के तौर पर पियूष मिश्रा का “आरम्भ है प्रचंड, बोले मस्तकों के झुंड, आज ज़ंग की घड़ी की तुम गुहार दो” जैसे हिन्दी के गीत लिखे। वहीं उसी हिन्दी सिनेमा में अब “जिया हो बिहार के लाला, जिया तू हजार साला” या मैं घणी वावली होगी जैसे क्षेत्रीय शब्दावली के साथ गीतों में नए-नए प्रयोग भी किए जा रहे है।
फिल्म और साहित्य दोनों ही समाज का दर्पण माने जाते हैं। दर्पण वही दिखाता है जो सच हो। ऐसे में आज फिल्मकार जब फौजी से बागी बने पान सिंह तोमर पर फिल्म बनाते हैं तो इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं कि पान सिंह तोमर जिस पृष्ठभूमि से आता है वो अपनी बोलचाल में भी वहीं का लगे । इसलिए संवाद लेखक उस किरदार के लिए “हमाई मां को बंदुक की बट्ट तो मारो” जैसे संवाद लिखता है।
बहस ये भी चलती है कि इस बदलाव से हिन्दी भाषा को कितना नुकसान पहुंचा है, और कितना फायदा। इस विषय पर सबकी अपनी अलग- अलग राय हो सकती है। मूलत: हिन्दी फिल्मों में क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव से हिन्दी का स्तर गिरा नहीं बल्कि क्षेत्रीय भाषा एक बड़े समूह तक पहुंची है और सबने इसे स्वीकारा भी है। अगर इस बदलाव से हिन्दी भाषा या हिन्दी फिल्मों को कोई नुकसान होता तो प्रयोग के इस दौर में मोहनजोदाड़ो और जोधा अकबर जैसी खड़ी हिन्दी में फिल्में नहीं बनती। हां ये ज़रूर है कि आज बॉलीवुड में ज्यादातर फिल्मों में खिचड़ी भाषा का इस्तेमाल होता है जिसमें अंग्रेजी, हिंगलिश सब होता है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल से हिंदी भाषा खराब नहीं हो रही, बल्कि वो और समृद्ध हो रही है। इसके साथ ही क्षेत्रीय भाषा और बोली भी संरक्षित हो रही है, क्योंकि वो किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नही रहती।
सन्दर्भ –
पारख जवरीमल्ल, ‘साझा संस्कृति, साम्प्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’ (2012 ), ‘वाणी प्रकाशन’ दरियागंज, नयी दिल्ली पृष्ठ 245-246

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