प्रणय दिवस बसंतोत्सव, मदनोत्सव और वैलेंटाइन डे पर विशेष

वैलेंटाइन डे वैसे तो पाश्चात्य परिकल्पना है और विगत दो दशकों में इसका विस्तार हुआ है किन्तु यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो पाएंगे कि यह भारतीय संस्कृति में भी चिरकाल से रहा है। उस दिवस के आसपास ही भारत में प्रेम के प्रतीक कामदेव और रति के पर्व बसन्त को मनाया जाता है, जब ऋतु सम पर होती है, मन में प्रणय भाव अंगड़ाई लेने लगता है और प्रकृति भी पीला परिधान ओढ़कर युवाओं के हृदय में प्रीति रस की वर्षा करने लगती है, कामदेव अपने पुष्पबाण से काम भाव जगाते हैं और सर्वत्र व्याप्त हो जाता है प्रेम। आज सुखद संयोग है कि बसंत पंचमी और वैलेंटाइन डे दोनों ही हैं।

पुरातन काल में बसन्त के अवसर पर मदनोत्सव अथवा बसंतोत्सव का पर्व मनाने की परम्परा थी, जिसमें मस्ती, मदिरा, नृत्य तथा प्रणय का उन्मुक्त प्रदर्शन होता था, जो कई दिनों तक चलता था। वैदिक काल में इसी पर्व पर समन पर्व मनाया जाता था, जिसमें नवयुवतियां एवं युवक एक सार्वजनिक स्थल पर एकत्र होकर अपने प्रेम का परस्पर इजहार करते थे और उनका विवाह कराया जाता था। कौमुदी महोत्सव जो शरद पूर्णिमा को मनाया जाता था, वह भी प्रणय पर्व होता था जो राजाज्ञा से प्रतिवर्ष मनाया जाता था। इस दिन सम्पूर्ण नगर को सजाया जाता था और युवक युवतियां सुन्दर परिधान धारण कर एवं सौंदर्य प्रसाधनों से सज संवर कर महोत्सव में आते थे और एक दूसरे से भावयामि अर्थात् आई लव यू तथा प्रति भावयामि अर्थात् आई लव यू टू कहकर प्रेम प्रदर्शित करते थे। चाणक्य ने इस पर्व को बन्द करवा दिया था। वीर मित्रोदय ग्रन्थ में इस पर्व का विस्तृत विवरण मिलता है। इसे रासोत्सव भी कहते थे क्योंकि इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने रासलीला की थी। मान्यता थी कि इस दिन चंद्रमा की पूजा कर युवक युवतियां अपने अटूट प्रेम की कामना करते थे और शिवलिंग का अभिषेक कर उनसे भी अनन्त काल तक चलने वाले प्रेम की कामना की जाती थी।

तो मित्रों, इस नितांत भारतीय पर्व को शालीनता से मनाइए और अपनी रति अथवा वैलेंटाइन से कविताओं में बात करिए और कहिए~~

(1)

बरबाद मेरी ज़िन्दगी
इन फिरोज़ी होठों पर
गुलाबी पाँखुरी पर हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
इन फिरोज़ी होठों पर
तुम्हारे स्पर्श की बादल-धुली कचनार नरमाई
तुम्हारे वक्ष की जादू भरी मदहोश गरमाई
तुम्हारी चितवनों में नर्गिसों की पाँत शरमाई
किसी की मोल पर मैं आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा
मुझसे प्रणय के देवताओं ने
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब-सा इन्द्रधनुषी स्वाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद!
अन्धेरी रात में खिलते हुए बेले-सरीखा मन
मृणालों की मुलायम बाँह ने सीखी नहीं उलझन
सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप जैसा तन
पँखुरियों पर भँवर-सा मन टूटता जाता
मुझे तो वासना का
विष हमेशा बन गया अमृत
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद!
गुनाहों से कभी मैली पड़ी बेदाग तरुणाई —
सितारों की जलन से बादलों पर आँच कब आई
न चन्दा को कभी व्यापी अमा की घोस कजराई
बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पण भी
हमेशा आदमी
मजबूर होकर लौट आता है
जहाँ हर मुक्ति के, हर त्याग के, हर साधना के बाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद! (धर्मवीर भारती)

(2)

हम तेरी चाह में, ऐ यार! वहाँ तक पहुँचे।
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे।
इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे।
वो न ज्ञानी ,न वो ध्यानी, न बिरहमन, न वो शेख,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे।
एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द जुबाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे।
चाँद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे। (गोपालदास नीरज)

(3)

हे मेरी तुम!
आज धूप जैसी हो आई
और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा
मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा
वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।
मैं हताश हूँ
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना:
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझ से मिलने
आज सवेरे,
और दुपट्टा रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?
क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण? (केदारनाथ अग्रवाल)

(4)

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखा‌एँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जा‌एँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पा‌एँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दि‌ए धर कंधों पर, जो रोरोकर हमने ढो‌ए,
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा!
उर में एसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सो‌ए!
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूरकठिन को कोस चुके,
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे! ऐसी भी घड़ियाँ आ‌ऐंगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जा‌एँगी,
जब निज प्रियतम का शव रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रविशशिपोषित यह पृथिवी कितने दिन खैर मना‌एगी!
जब इस लंबेचौड़े जग का अस्तित्व न रहने पा‌एगा,
तब तेरा मेरा नन्हासा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आ‌एगा, कोयल न कुहुक फिर पा‌एगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगा‌एगी,
अगणित मृदुनव पल्लव के स्वर ‘भरभर’ न सुने जा‌एँगे,
अलि‌अवली कलिदल पर गुंजन करने के हेतु न आ‌एगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिय हो जा‌एगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’, सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायकनायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा!
मुँह खोल खड़े रह जा‌एँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण!
संगीत सजीव हु‌आ जिनमें, जब मौन वही हो जा‌एँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का, जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा देखो माली, सुकुमार लता‌ओं के गहने,
दो दिन में खींची जा‌एगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पा‌एगा कितने दिन रहने!
जब मूर्तिमती सत्ता‌ओं की शोभाशुषमा लुट जा‌एगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा को‌ई हम सब को खींच बुलाता है!
मैं आज चला तुम आ‌ओगी, कल, परसों, सब संगीसाथी,
दुनिया रोतीधोती रहती, जिसको जाना है, जाता है।
मेरा तो होता मन डगडग मग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा, मँझधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा। (हरिवंश राय बच्चन)

(5)

रात भर सांसों में कुछ महका बहुत
याद आया फूल सा चेहरा बहुत
क्या सदा थी वो कि ये दिल मुज़्तरिब
जानिबे-दर  बारहा लपका बहुत
वो मिला ऐसे कि सांसें बढ़ गईं
और दिल भी ज़ोर से धड़का बहुत
उसने जो मुझको दिया पहले-पहल
क़ीमती था प्यार का तोहफ़ा बहुत
मयकदे से इक तेरे जाने से ही
साक़िया लगते हैं सब तन्हा बहुत
मुझमें जाने ऐसी क्या है बात कि
याद करती है मुझे दुनिया बहुत
आ भी जाओ अब ‘जेहद’ तुम सामने
छुप-छुपा के हो गया पर्दा बहुत !! (जावेद जेहद)

(6)

झूठ नहीं है प्रियवर मेरा प्रणय निवेदन
यह है दिल के अंदर बैठी मीठी धड़कन।
सच मानो तो जग का सुन्दर गीत यही है
मत मानो तो इससे बदतर रीत नहीं है।
सच्चा प्रेम अधर से मुखरित कब होता है
वह तो मौन मरुस्थल में जल का सोता है।
प्रेम सुधा से अमृत वर्षण कब मिलता है
नश्वरता में ही प्रेमी को पथ मिलता है।
मन के कोमल उद्गारों के रस का मधुमय सेवन
केवल यह कहलाता सच्चा प्रेम निवेदन।

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3 thoughts on “लेख : बसंत पंचमी और वैलेंटाइन डे”

  1. बहुत ही सहज सरल और सारगर्भित आलेख और काव्यात्मकता से लबरेज़।बधाई हो

  2. अति उत्तम और प्रशंसनीय

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