(१ ) दीपक की तरह खुद जल गये,
धुंआ ही नैनों का श्रृंगार बना।
खुद जल रौशन हमें किया,
बदले में हमसे कुछ भी न लिया !!
दिनांक ज्ञात नहीं कब लिखा था ?
(वर्ष -२००२ )
(२) मिल रहे हैं, वफ़ा-वफ़ा कहके,
जा रहे हैं, जुदा-जुदा कहके,
उनकी ही राह तकते हैं क्यों ?
जा चुके हैं, जो, अलविदा कहके!!
लुट ले गये, जो, चेहरे का नूर ,लबों का तबस्सुम,
बच्चे सी किलकारी, चाल का अल्हड़पन,
ज़ुबां की बेबाकी, बातों की साफगोई,
पूछते हैं, वो, सब खैरियत तो है?
दर्द से है, ज़िन्दगी का वास्ता,
गौर फरमाएं कैसे फलसफा कहके?
बीते पल, यूँ बीते हैं …….
एहसास बन साँसों में जो बसा,
कैसे भूलें रफा –दफा कहके,
जिंदगी भी तो खुली या बंद किताब है!
उम्र के हर पन्ने पर,
यादें …हर्फ बन यूँ छपी हैं …
कैसे बांचें दो शफा कहके !!
दिनांक -१४ सितम्बर २०१९
(३) राह चलते –चलते, मंज़िल बन गयी।
तन्हाई यादों की महफिल बन गयी।
यह गमों की ही सौगात थी, कि,
ज़िंदगी हर पल खुशहाल बन गयी।
जिस उल्फ़त को कभी मुश्किल माना था,
वक्त बदलते ही तिल बन गयी।
निबाहा हर रिश्ते को,
यही आदत मुसीबत बन गयी।
अश्क सी मिट चली थी ज़िंदगी,
कुछ यूँ संवर अब कंदील बन गयी ||
दिनांक ज्ञात नहीं ( वर्ष -२००२ )
( ४ ) सुना था, पढ़ा था, देखा था
हर किसी, हर जुबान, हर जगह,
ज़िंदगी की किताब के हर पन्ने, हर हर्फ पर,
जब ज़िंदगी से शिकायत होने लगे,
हर रिश्ता बदलने लगे,
चेहरे मुंह फेरने लगे,
बातों से मुकरने लगे,
ज़ज्बातों के दरमियाँ जब सवाल उभरने लगे,
सिक्के की खनक जहां,
प्यार की बोली को दबाने लगे,
दुनिया की दुनियादारी से जी घबराने लगे,
इंसानियत से भरोसा उठने लगे,
तब आती है बारी जादूगर की जादूगरी की!
कहता है यह परिंदा कानों में गहरे,
दोस्त घबराना नहीं,
ये दुनियां जीते जी किसी की नहीं होती,
जब तू चला जाएगा,
तब तेरे नाम के कसीदे पढ़े जायेंगे,
तुझे रहने को कब्र/मकबरा/ताजमहल/पहाड़/मिटटी/हवा/पानी/,
ओढ़ने को कफन/वस्त्र/कपड़े/दुशाले/
न जाने कितने चढ़ावे चढ़ जायेंगे,
किन्तु तुम अछूत से भी गये बीते होगे,
इन सबके लिए …
तुम्हें देखना/रखना भी अपशकुन माना जाएगा।
जब तेरे जनाजे की बारी आएगी, तो
कहीं न कहीं से चार काँधें तो संग हो लेंगें,
भले ही पूरी ज़िंदगी किसी को देखने को तरसे हो।
पर, देखो न!
ये क्या हुआ?
अब काँधें भी मयस्सर नहीं जाने वाले को,
इंसानियत खो गयी कहाँ?
कुदरत का ये कैसा करिश्मा है?
जब दिमागदार इंसान से बेहतर कम जहीन
ये परिन्दा समझने लगा…..
खोखली हो गयी हड्डियों की जरूरत,
जिन अपनों के लिए जर्जर ढांचा हो गया तू ?
साथ कोई नहीं अब तेरे अंत समय …..
चल मैंने तुझसे ,न तूने मुझसे ……
कोई वादा किया था कभी!
मैं वो तो नहीं,
ताउम्र जिनकी आस बनी रही तुझे,
मैं वो भी नहीं जो कहता फिरे …..
मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ,
पर तेरी इन हड्डियों का बोझ मैं उठाता हूँ,
तुझे इस दुनिया से दूर,
चल लेके चलूं उस पार गगन के तले,
जहाँ तेरे अरमानों का आशियाना न जले !!
दिनांक -१७ /८/२०१९
(5) हम, तुम जैसे आम नहीं!
ये हैं बहुत ख़ास
…………….?
क्योंकि, ये पोषित, पालित, सींचित, आश्रित ….
“गुलाब” नहीं हैं!
ये हैं ……….
कांटें, झाड़-झंखाड़, घास-पात ……………
या कुकुरमुत्ता ?
या ये हैं ………
हरी घास दूब की
निर्मल, सुंदर, कोमल, मुलायम, स्निग्ध।
ये पीसते हैं,
शोषित होते हैं,
ठगे जाते हैं,
छले जाते हैं,
भूखे रहते हैं,
मजूरी करते हैं,
पर भीख नहीं मांगते हैं …..
ये कायर, कमज़ोर नहीं।
ये संघर्ष करते हैं-
मुस्कुराते हुए, सरल, सहज, जीते हैं।
बिना किसी दिखावे, बनावट के, मुखौटा लगाये,
हां, हां, हां,
लेकिन अपनी शर्तों पर,
बंधनमुक्त, स्वच्छंद, स्वतंत्र,
ये कौन हैं?
ये और कोई नहीं
हम, तुम जैसे आम नहीं,
क्योंकि ये बेचैन तो हैं,
पर मजबूर नहीं।
ये हैं बहुत ख़ास!
ये हैं हमारे ही भाई-बंध,
और कोई नहीं –
अपनी जड़ों से बंधे, मूल
आदिवासी जन!!
दिनांक -३/२/२०१९
बढ़िया उम्दा