कश्मीरी अभिनेत्री ज़ायरा वसीम का मात्र 19 वर्ष की उम्र में हिंदी फिल्मों से संन्यास लेने की घोषणा करना बेहद दुखद है क्योंकि स्पष्ट दिख रहा है कि उसने यह निर्णय कट्टरपंथी मुल्लाओं के दबाव में लिया है। इससे पहले उसके कपड़ों और दंगल फ़िल्म में बाल कटवाने पर भी कश्मीरी कट्टरपंथी उस पर दबाव बनाते रहे थे और उसे माफ़ी मांगने पर विवश करते रहे थे। कल आजतक पर एक चुका हुआ अभिनेता नासिर अब्दुल्ला कह रहा था कि फिल्मों में आने के बाद लड़कियाँ अहंकारी और मानसिक रोगी हो जाती हैं। काश !वह यह बात खुद के लिए और खान त्रयी के लिए भी कहता। क्या इस्लाम में सिर्फ़ महिलाओं के लिए नाच गाने की मनाही है, पुरुषों के लिए नहीं? अगर पुरुषों के लिए भी है तो मुल्लों को मुसलमान अभिनेताओं के खिलाफ भी ऐसा ही फ़तवा जारी करना चाहिए था। सलमान का तौलिया डांस ग़ैर इस्लामिक नहीं लेकिन ज़ायरा का बाल कटवाना ग़ैर इस्लामिक?
हद है पाखण्ड की। इससे भी बढ़कर दुखद यह कि फ़िल्म इंडस्ट्री के रज़ा मुराद जैसे चुके हुए अभिनेता इस फैसले का समर्थन करते दिख रहे हैं। अगर हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री को गौर से देखें तो पाएंगे कि मुसलमानों का फ़िल्म इंडस्ट्री में शुरुआत से अहम योगदान रहा है। प्रारम्भ में मुस्लिम तवायफों और बाद में सम्भ्रांत परिवार के भी मुस्लिमों ने फिल्मों को अपनी महत्त्वपूर्ण देन दी है। नसीम बानो, सुरैया, निम्मी, नरगिस, नूरजहाँ, मधुबाला, शकीला, श्यामा, मीना कुमारी, सायरा बानो, निगार सुल्ताना, वहीदा रहमान, मुमताज़, ज़ीनत अमान, ज़रीना वहाब, शबाना आज़मी,सलमा आगा, मंदाकिनी, ज़ेबा बख़्तियार, नगमा, फरहा, तब्बू, आयशा टाकिया, दिया मिर्ज़ा, कट्रीना कैफ़, ज़रीन खान, हुमा कुरैशी , फ़ातिमा सना शेख़, सोहा अली खान, सारा अली खान, नर्गिस फाख़री जैसी अभिनेत्रियों को हिंदी फिल्मों से हटाकर बॉलीवुड का इतिहास लिखा जा सकता है! उस समय ये कट्टरपंथी कहाँ थे जब हिंदी सिनेमा की शुरुआत से मुस्लिम अभिनेता अभिनेत्री इसे सजा सँवार रहे थे? फिर कट्टरपंथियों ने क्या कभी पाकिस्तानी या अन्य इस्लामी देशों की अभिनेत्रियों के ख़िलाफ़ कभी फ़तवा जारी किया? और यदि ये ज़ायरा का पब्लिसिटी स्टंट है तो इससे घटिया कुछ नहीं हो सकता कि टीआरपी के लिए ईश्वर और धर्म को भी न बख़्शा जाए।