गीत के बोल आज के समय में उन धनकुबेरों पर बिल्कुल सही बैठता है, जो अपनों को आज कौन, क्या, कब लेकर चला जायेगा कह नही सकते। कोई किसी के मन को ले गया तो वहाँ भी राजनीति थी, अब जब लोगों के विश्वास को ले गया तो यहाँ भी राजनीति ही समझ मे आती है। ले जाना तो नही चाहिए परन्तु उन्हें अपनों पर भरोसा ही नही तो यक़ीन किस पर करें। अब सैंया ले गए हमारी उम्मीद, संचित विश्वास जो कभी बुढ़ापे की लाठी था।

हम चुका भी ना पाते, तो हो जाते  बदनाम,
वो लेकर चले जाते है,हम पकड़ नहीं पाते।

कभी  देश के ख़जाने को ले जाते तो उतनी क्षति नहीं हुई, परन्तु आज धन के साथ मन की भी हानि हो रही है। कभी विदेशी यहाँ से लूट कर ले जाते थे जब देश सोने चिड़िया थी। अब यही के लूट रहें है, पूर्वज कहते थे कि अपने ही अपनों को काटते है। आज कहावत चरितार्थ हो रही है। हम विभीषण, जयचंद तथा मीरजाफ़र जैसे लोगों के द्वारा ठगे जाते है।

भारत को जो लूट  जाते, वे अपनी होशियारी से,
ऐसे लोगों को ले आओ, सात समंदर पार से।

अपनी उम्मीद एवं क्षमतानुसार भविष्य के सपनें बुनते हुए पाई-  पाई जोड़कर एकत्र करते हैं उसे कोई न कोई गजनवी लेकर चला ही जाता है। 

बस यही दो मसले, जिंदगी के हल ना हुए,
ना जरूरते पूरी हुई, ना ख़्वाब मुक़म्मल हुए।

हम जितने शिक्षित हो रहे है, उतने ही शातिर भी होते जा रहे है। वह भी जब हमारे साथ कुछ भी नहीं जाना, तब  इतना लोभ एवं धन लिप्सा में डूबते जा रहें है। अब तो मन में भाव भी जगने लगे है, आज सच्चा व ईमानदार वही है जिसे मौका नहीं मिला । पुराने समय में कंस तथा सकुनि ही थे, आज दौर के बहुत से मेहुल मामा भी हैं जो जादूगर से सपने दिखाकर परदेशी हो जाते हैं।  मैं तो कहता हूँ-

बेईमान तो ढूढ़ निकलोगे, यहाँ या उस पार से,
लेकिन कैसे बच पायेंगे, मामाओं के वार से।

वे सपनें जो घर, बच्चों की शादी तथा रोजगार के लिए संचित किये थे, उन के उम्मीदों को तोड़ गए। हम तो कहते है कि हमारा क्या, खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाएंगे।

बन सहारा बेसहारा के लिए,
जो जिये मौज के लिए,
तो क्या जिये जो जी ना सके देश के लिए।

पर उन जनों का क्या, जो सपनें देखते हुए अपनी उम्र गुजार देते हैं। हम तो बातों के कीड़े है जब भी मचलते है, खुरदरे काग़ज पर बिखरते सपने बुनते है।

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