मूक दौर में नृत्य

हिन्दुस्तानी सिनेमा में नृत्य का समावेश कैसे हुआ और किस प्रकार किन पड़ावों से गुज़रते हुए उसने अपना सफ़र तय किया आदि की विस्तार से चर्चा करने से पूर्व यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भारत में सिनेमा का आगमन किसी गंभीर उद्देश्य के तहत नहीं महज़ खेल-तमाशे जैसे मनोरंजन के एक नए और मशीनों साधन के रूप में हुआ था। हिंदी सिनेमा की बात करे तो हम देखते है कि हिंदी सिनेमा का एक गौरवपूर्ण इतिहास है जो कि सौ साल का है। अपने सौ साल के इतिहास में हिंदी सिनेमा का नृत्य भी बदला है। जैसा कि हम सब जानते है कि भारत में पहली फिल्म दादा साहब ‘फालके’ ने ‘राजा हरिश्चंद्’ 1913 में बनायीं थी जो कि मूक थी अर्थात उसमें आवाज़ नहीं थी तथा सवाक अर्थात बोलती फ़िल्में 1931 में शुरू। राजा हरिश्चन्द्र भी एक प्रयोग के रूप में ही बनायीं गयी थी।

आज सिनेमा या फिल्म के नाम से हमारे मस्तिष्क पर जो भरपूर खाका उभरता है जिसमे कहानी गीत, संगीत, डायलाग, नृत्य आदि के आलावा कई दृश्यों का लम्बा सिलसिला शामिल रहता है ऐसी उन चलचित्रों में कोई बात नहीं होती। उनमे छोटे-छोटे दृश्य मात्र होते थे, वे किसी विषय पर तो क्या हाँ प्रसंगों पर होते थे जैसे नदी स्नान, ताश की बाजी, स्टेशन पर रेलगाड़ी का आना, तैराकी और पार्क की सैर करते लोग आदि। उन्हें लघु दृश्य चित्र कहा जा सकता है। वास्तव में वह छोटे-छोटे विविध आईटम्स थे उनमे से एक आईटम का शीर्षक था – ‘फातिमाः एक भारतीय नृत्य।’ विदेश में बने उस लघु चलचित्र में कौन – सा भारतीय नृत्य सैल्यूलाईड पर उतारा गया था, फातिमा किसी नर्तिकी का नाम था या क्या था, उसे किस निर्माता ने तैयार किया था, इसका कोई विवरण आज तक उपलब्ध नहीं है। विविध दृश्यों को संक्षेप में समेटे उन दृश्यों में रंगमंच के नाच-गानों से सम्बंधित दृश्य भी थे। इसके बाद सन 1906 में मादन ने जो लघु फिल्म पेश की थी वह थी ‘मुजरा नाच’।

1913 में जब ‘राजा हरिश्चंद्र’ फालके द्वारा आई उसमे हमें पुर्णतः नृत्य देखने को भी नहीं मिलता केवल एक आदमी द्वारा बच्चे को पीठ पर बैठा कर उछालना, बच्चे का खेलना-कूदना तथा स्त्रियों का भाव पूर्ण चलना ही नृत्य मात्र प्रतीत होता है। 1913 में दादा साहब फालके की एक और फिल्म आई जिसका नाम था ‘मोहिनी भस्मासुर’ यह भी मूक फिल्म ही थी इसमें मोहिनी व दुर्गा (फ़िल्मी नाम) नामक स्त्रिओं ने काम किया था इसलिय इन्हें हिंदी सिनेमा की पहली महिला कलाकार का दर्जा दिया गया। इस फिल्म में नृत्य भी फिल्माया गया जो कमलाबाई गोखले (मोहिनी) द्वारा किया गया था तथा इस नृत्य के नृत्य-निर्देशक स्वयं फालके जी थे।इस फिल्म में भस्मासुर का वध करते हुए कुछ नृत्य के अंश दिखाई देते है।

इसके बाद 1917 में ‘लंका दहन’ फिल्म (दादा साहब द्वारा) आई जिसमे कुछ क्रियात्मक हाव-भाव देखने को मिलते है जिन्हें नृत्य का अंश मान सकते है क्योंकि उस समय नृत्य की कोई खास परिभाषा सामने नहीं आती। किन्तु 1917 में ही फालके जी एक और फिल्म आती है जिसका नाम है ‘सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र’ इसमें एक गिलास धोने वाली लड़की (एना सालुंके) से हरिश्चंद्र की पत्नी तारामती की भूमिका अदा करायी गयी क्योंकि उस समय स्त्रियाँ सिनेमा में काम नहीं करती थी चाहे वे कुलीन घर से हो या मध्यवर्ग से, तवायफों ने भी कैमरे के सामने आने से साफ़ इंकार किया था ऐसे में फालके जी ने एक होटल में गिलास धोने वाली को अपनी फिल्म में लिया। किन्तु इस फिल्म में और भी स्त्री कलाकार है जो अन्य भूमिकाओं में दिखाई देती है तथा इस फिल्म में लगभग 3 अंतरा अर्थात 5 से 6 मिनट का गीत है जिसमे स्त्रिओं द्वारा नृत्य किया गया है वह एक लोक नृत्य है या कह सकते है की यह एक फ़िल्मी लोक नृत्य है।इस फिल्म में लगभग 7 या 8 गीत है जिसमे ‘वाह रे वाह भगवन’ , ‘एक पार धरती है एक पार आसमां’ , दुखद गीत है एक प्रभु भजन है , एक संगीत धुन बजती है जो गीत नहीं है केवल वाद्ययंत्रों द्वारा केवल धुन प्रस्तुत करता है किन्तु उस पर कोई नृत्य नहीं है अन्य गीत तू चंदा में चांदनी’ गीत में भी नृत्य नहीं केवल भाव है, एक राज उत्सव का दृश्य है जिसमे खुशियाँ मनाई जा रही है जिसमे सभी लोग नाच-गा रहे है, उसमे हमें काफी अंश नृत्य का देखने को मिलते है इसे शुद्ध लोक नृत्य भी नहीं कह सकते यह फ़िल्मी नृत्य है जो गीत के बोलों के अनुसार लोगों द्वारा हाव – भाव प्रस्तुत किया जा रहा है। इस फिल्म का एक और अन्य गीत है ‘गोरी-गोरी चांदनी हो पूनम की रात रे, मीठी-मीठी होती रहे सजाना से मन की बात रे’ इस गीत में एक मुख्य कलाकार नृत्य कर रही है वही गा रही है तथा साथ में नृत्य भी कर रही है किन्तु इसमें भी केवल गीत के बोलों के अनुसार नृत्य किया जा राह है बोलों के अनुसार ही हाव -भाव का प्रदर्शन किया जा रहा है उनके साथ उनके पीछे अन्य नर्तक कलाकार ही है जो सभी स्त्रियाँ ही है तथा वह साधारण बोलीवुड नृत्य कर रही है। (याद रहे कि यह मूक दौर चल रहा है इसलिय यह गीत केवल गाते हुए दिखाई देते है सुनाई नहीं पड़ते किन्तु यह सारे गीत इस फिल्म के लिय लिखे भी गये और इस फिल्म में गए भी गये।)

सन 1920 में वात्सल्य हरण, राम और माया, मृच्छकटिक, कांजीभाई राठोर, सती पावती, बालिका वधु, महाभारत, कृष्ण-सुदामा, 1921 में भक्त-विदुर (सरकार द्वारा प्रतिबंधित पहली फिल्म), महासती अनसूया, सुरेखा हरण, चंद्राहस, मीरा बाई, मोहिनी, रुक्मणि हरण, शिवरात्रि, विष्णु अवतार आदि,  1922 में अशोका, भक्त शिरोमणि, भीष्म, लैला- मजनू, मलती- माधव, सती तोरल, सुकन्या सावित्री तथा तारा ‘द डांस’ (नर्तकी तारा के जीवन पर आधारित) आदि फिल्म बनी। 1930 में पाताल पदमिनी, खूनी तीर, शेर-ए-अरब आदि फ़िल्में आई। इन सभी मूक फिल्मों में कुछ फिल्मों में नृत्य देखने को मिलता है कुछ में नहीं किन्तु 1918 के बाद की फिल्मों में हम नृत्य की झलक देख सकते है।1913 से लेकर 1930 पूरे मूक सिनेमा के दौर में (लगभग) कुल 996 फ़िल्में बनी।

बोलती फिल्मो का दौर

सन 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ आई जिसके निर्देशक थे अर्देशिर ईरानी यह फिल्म 14 मार्च 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा हाल में प्रदर्शित हुई इस फिल्म में 12 गाने थे। सन 1932 में फिल्म आई ‘अयोध्या के राजा’ (प्रभात फिल्म) इसमें दुर्गा खोटे तथा विनायक ने भूमिका अदा की थी इसमें एक दृश्य है जब इंद्र दरबार सजता है उस दृश्य में नृत्य है किन्तु कोई शास्त्रीय नृत्य नहीं है किन्तु शास्त्रीय नृत्य की भांति वेश भूषा पहन रखी है। इस वर्ष आई एक और फिल्म ‘मायामृछिंद’ में नृत्य का एक और स्वरूप देखने को मिलता है इस फिल्म में एक वसंतोत्सव दिखाया है जिसमे सभी लोग डांडिया खेल रहे है जो की गुजरात के लोक नृत्य का प्रतीक है। सन 1936 में अभिनेता अशोक कुमार व देविका रानी की फिल्म आती है ‘अछूत कन्या’ जिसमे नृत्य का एक नया रूप देखने को मिलता है  इसमें एक गीत है – ‘चूड़ी में लाया अनमोल रे’ इस फिल्म में यह नृत्य एक मंच पर किया जा रहा है जैसा की लोग नौटंकी में देखते है।

1937, 1938 तथा 1939 में कई फ़िल्में आई जिनमें देवकी बोस की ‘विद्यापति’ (1937), नितिन बोस की ‘प्रेसिडेंट’ (1937), वी. शांताराम की ‘दुनिया न माने’ (1937), प्रमथेश चंद बरुआ की ‘मुक्ति’ (1937), महबूब स्टूडियो की ‘जागीरदार’ (1937), सोहराब मोदी की ‘जेलर’ (1938), देबकी बोस की ‘सपेरा’ (1939), सोहराब मोदी की ‘पुकार’ (1939), वी. शांताराम की ‘आदमी’ (1939), महबूब खान स्टूडियो की ‘एक ही रास्ता’ और कई अन्य  फ़िल्में आई हांलाकि नृत्य तो कुछ-कुछ सभी में दिखाई पड़ता है लेकिन कुछ ही फिल्मो के गाने चर्चित रहे जिनमे ‘प्रेसिडेंट’ का ‘एक बंगला बने न्यारा’ , ‘विद्यापति’ का ‘मोरे अंगना आये’ , ‘स्ट्रीट सिंग्सर’ का ‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाये’ , ‘कंगन’ का ‘मैं तो आरती उतारूँ’ , ‘पुकार’ का ‘ज़िन्दगी का साज़ भी क्या साज़ है’

सन 1940 से लेकर 1946 तक के इस वर्ष काल में भी बहुत फ़िल्में  आई जैसे कि ‘नरसी भगत’(विजय भट्ट), ‘पागल’(ए.आर.कारदार), ‘पूजा’(ए.आर.कारदार), ‘संत ज्ञानेश्वर’(दामलेफत्तेलाल), ‘खजांची’(मोती गिडवानी), ‘लगन’(नितिन बोस), ‘पडोसी’(वि.शांताराम), ‘सिकंदर’(सोहराब मोदी), ‘स्वामी’(ए.आर.कारदार), ‘भरत मिलाप’(विजय भट्ट), ‘खानदान’(शौकत हुसैन रिज़वी), ‘कुंवारा बाप’(किशोर साहू), ‘मीनाक्षी’(मधु बोस), ‘दस बजे’(राजा नेने), ‘रोटी’(महबूब खान), ‘किस्मत’(ज्ञान मुखर्जी), ‘महात्मा विदुर’(टी.आर.अल्टेकर) , ‘नजमा’(महबूब खान), ‘पृथ्वी वल्लभ’(सोहराब मोदी), ‘राम राज्य’(विजय भट्ट), और अन्य फिल्म जैसे ‘रतन’ , ‘हमराही’ , ज्वार भाटा’ , ‘शहीद’ , ‘मेरी बहन’ , ‘हुमायूँ’ , ‘तदबीर’ , ‘मीरा’ , जीनत’ , ‘गुलाब लोचन’ जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्में आई

लेकिन इस वर्ष कई ऐसी फ़िल्में भी बनी जो नृत्य के संदर्भ में ही प्रस्तुत की गयी थी और उसमे शास्त्रीय नृत्य की झलक देखने को भी मिलती है या कह सकते है की शास्त्रीय नृत्य की कई मुद्राओं का अनुकरण किया गया है जिनमे कुछ प्रमुख है – ‘नर्तकी’(1940), ‘राज नर्तकी’(1941), ‘चित्रलेखा’(1941), ‘चन्द्रलेखा’(1940) , ‘हिम्मत’(1941) , आबरू’(1943) इस सभी फिल्मों को नृत्य प्रधान फिल्मों की संज्ञा भी दी जाती है

भारत में फिल्मों का निर्माण होने के साथ ही उनमे नृत्य का समवेश हो गया था वे चाहे मूक युग की फ़िल्में हों या बोलती फ़िल्में, नृत्य एक आवश्यक तत्व शुरू से ही रहा और उसने इतनी तरक्की की कि आज किसी भी फिल्म की अनिवार्यता बन गया है मूक युग से लेकर बोलती फिल्मों तक यह विधा फली-फूली रही।

स्वतंत्रता से पहले नृत्य निर्देशक नहीं होते थे इसलिए मूक दौर में व सवतंत्रता से पूर्व एक सक्षम नृत्य देखने को नही मिलता  जो फिल्म बना रहा है वाही नृत्य निर्देशक भी बन जाता था या जो काम कर रहा है अभिनेता हो या अभिनेत्री अपने से ही नृत्य निर्देश कर लेती थी। लेकिन आज के कलाकार हर कार्य में कुशल होने पर भी पूर्व कलाकारों की भांति वो सक्षम फ़िल्में नहीं ला पाए जो पहले के कलाकारों ने फिल्म जगत में अपना योगदान दिया और इतने कम साधन होने पर भी हिंदी सिनेमा के इतिहास में अपना नाम तो दर्ज कराया ही साथ ही साथ हिंदी सिनेमा को एक स्वर्णिम युग भी दे गये

सन्दर्भ सूची

  1.  डॉ. पुरु दाधीच, कथक नृत्य शिक्षा (भाग-1), अष्टम सं 2014, बिंदु प्रकाशन,   पृष्ठ-3,4
  2.  पं. तीरथ राम ‘आज़ाद’, कत्थक ज्ञानेश्वरी, प्रथम संस्करण 2008, नटेश्वर कला मंदिर, नई दिल्ली, पृष्ठ-11
  3. विनोद भरद्वाज, समय और सिनेमा; प्रथम संस्करण 1994, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली ।
  4.   रायगढ़ में कथक – कार्तिक राम, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रकाशित सन 1982, मुख्य पृष्ठ   ।
  5.   लक्ष्मीनारायण गर्ग, ‘कथक नृत्य : कथक नृत्य का इतिहास’ नवां संस्करण 2013, संगीत कार्यालय हाथरस, पृष्ठ-36
  6. संगीता गुदेचा, नाट्यदर्शन; प्रथम संस्करण 2012, वाणी प्रकाशन नाती दिल्ली ।
  7. हरीश कुमार, सिनेमा और साहित्य, संजय प्रकाशन दिल्ली, प्रथम सं 1998 ।
  8. साधू करमाकर, कैमरा मेरी तीसरी आँख, राज कमल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम सं 2010, अनुवाद विनोद दास ।
  9. सिनेमा की संवेदना – डॉ. विजय अग्रवाल, पृष्ठ -35 ।
  10.  सिनेमा के सौ बरस – संपादक मृत्युंजय, प्रकाशक – शिल्पायन, 2002, पृष्ठ – 7
  11.   पं. तीरथ राम ‘आज़ाद’, ‘कत्थक प्रवेशिका : कत्थक नृत्य का इतिहास’, चतुर्थ संस्करण 2013, नटेश्वर कला मंदिर, नई दिल्ली, पृष्ठ-7

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