swatantrata

स्वतंत्रता इस संसार में सबको प्रिय है। हर जीव इसी आस और यतन में रहता है कि वह स्वतंत्र रहे। अधिकतर यह देखा जाता है कि स्वतंत्रता की चाह जब अधिक हो जाती है तो वह उसके ऊपर हावी हो जाती है। वह इस कदर हावी हो जाता है कि स्वतंत्रता से स्वछंदता तक की यात्रा कब शुरू हो जाती है पता ही नहीं चलता। आज की पीढ़ी अक्सर यह देखा जाता है कि स्वतंत्रता की जगह स्वछंदता को ही वह स्वतंत्रता समझने लगी है। किन्तु उन्हें नहीं पता स्वछंदता जीवन को रसहीन बना देती है। स्वतंत्रता में एक मर्यादा होती है किन्तु स्वछंदता कभी सारे मर्यादाओं का उलंघन कर जाती है । जीवन में जो आनंद स्वतंत्रता में है वह स्वछंदता में कहाँ। किन्तु आज हम स्वछंदता के आग्रही होते जा रहे हैं।

आज की पीढ़ी न जाने क्यों स्वतंत्रता से गुरेज कर रही है। कारण शायद संस्कारहीनता हो सकता है। आज हम आधुनिकता के नाम पर कुछ संविधान के धाराओं को रटकर ज्ञानी भी तो हो गए हैं। अधिकार और कर्तव्य के मध्य नैतिक अंतर को हम मिटा चुके हैं। बहुत सी परिस्थितयों ने आज हमें ऐसा बनाया है कि हम स्वछंदता को स्वतंत्रता समझने लगे है। कारण जो भी हो किन्तु यह अंतर जीवन की दिशा और दशा दोनों को बहुत गहराई तक प्रभावित करता है।

संस्कार बिना व्यक्तित्व और संस्कार बिना स्वतंत्रता ही हमें स्वछंदता की ओर ले जाता है। दरअसल यह आधुनिकता की दौड़ से सीखा गया अल्प ज्ञान है जो हमें अत्यंत निरंकुश बना दे रहा है। अंकुश जीवन और मन दोनों के लिए आवश्यक है। बिना अंकुश के हम बेलगाम हो जाते हैं। यही निरंकुशता जीवन को असंतुलित कर देता है।

इन सबके मूल में संस्कारहीन बना देना है। अगर हम बात आधुनिकता की और पाश्चात्य संस्कृति की करेंगे, वैसा संस्कार देंगे तो उसे भारतीयता, भारतीय संस्कृति अर्थात स्वतंत्रता नहीं रास आएगा। स्वतंत्रता भारतीय है। भारतीय संस्कृति में इसमें नैतिकता, ईमानदारी, संस्कार, मर्यादा, बंधन, अनुशासन जैसे मूल्य समाहित होते हैं। जबकि स्वछंदता में कोई नैतिकता, ईमानदारी, संस्कार, मर्यादा, बंधन, अनुशासन जैसे मूल्य नहीं होते। यह बंधनों से मुक्ति का ही आग्रही है। बंधन रास नहीं आता इसे। स्वछंदता बस केवल और केवल उन्मुक्तता और बिना किसी बंधन के जीने का नाम है। जब हम इस स्तर पर पहुंच जाते, रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं तबसे ही हमारा जीवन धीरे धीरे नीरस होने लगता है। अर्थात भौतिकता के अतिक्रमण से ही उपजा भौतिकता के प्रति उब ही उसे जीवन के उस स्थिति का बोध कराने लगता है जिसमें रस नहीं होता।

कुल मिलाकर कहने का आशय इतना ही है कि स्वछंदता इस संस्कृति और मूल्यों के लिए उपयुक्त नहीं। भारतीय परिवार और समाज एक आदर्श, नैतिकता और संस्कारों के लबादे से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि न इसकी अनुमति हमारा धर्म देता न दर्शन। हम स्वतंत्रता की पैरवी कर सकते हैं दबे ज़बान लेकिन स्वछंदता की नहीं।
इसके पीछे कुछ कारण हमारे संकुचन संस्कारों का भी है। बच्चों को हम शुरू से ही आधुनिक संस्कार देते हैं। अभिवादन की जगह पर गुड मॉर्निंग और गुड नाईट का संस्कार हम गर्व से देते हैं। हम खुद भारतीयता और उसके परम्परा व संस्कार से परहेज़ होता है। भारतीयता हमें स्वतंत्रता का अर्थ बताती है जबकि पाश्चात्य संस्कृति और संस्कार हमें स्वछंदता को ही समझ सकने की समझ विकसित होने देती है ।

सुनो,
अगर तुम्हारी सांस घुटती है
इस स्वतंत्रता से…
अगर तुम चाहते हो
बिना किसी बंधन के जीना,
तुम्हें नहीं समझ
स्वतंत्रता और स्वछंदता की,
तुम्हें नहीं रास आता अपना संस्कार
आदि हो चुके हो पाश्चात्य संस्कृति के,
मन तुम्हारा विद्रोह करना चाहता है
अपने संस्कारों से,
तो तुम जीवन को रसहीन करना चाहते हो
क्योंकि अगर जीवन में बंधन नहीं होगा,
तो तुम बेलगाम हो जाओगे
जब बेलगाम होगा जीवन तो दुर्घटनाएं जीवन को
नष्ट कर देंगी, इसलिए…
जीवन में स्वतंत्रता और स्वछंदता का अर्थ समझ कर ही,
जीवन में जीने का आनंद है।

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *