मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए, इस बात की नई मिसाल है फ़िल्म सुपर 30. IIT जैसे नामी संस्थान में जहां बड़े बड़े कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ने वाले बच्चे बड़ी मुश्किल से दाखिला ले पाते हैं, वहां आनंद कुमार ने नीचले तबके के बच्चों को फ्री में कोचिंग देकर, IIT में दाखिला दिलाकर यह साबित कर दिया कि छोटे कदमों से कैसे लंबी छलांग लगाई जा सकती है। वास्तव में देखा जाय तो यह फ़िल्म आर्टिकल 15 के दूसरे पहलू को दिखलाती है। जहां समाज में शिक्षा के आधार पर भेदभाव हो रहे हैं। कहीं सरकारी vs प्राइवेट, तो कहीं हिंदी vs इंग्लिश की होड़ लगी है। जिससे अमीरी और गरीबी के बीच न पाट सकने वाली खाई बनती जा रही है। समानता का अधिकार जैसे शब्द अपनी चमक खोते जा रहें है। ऐसे समय में फ़िल्म के जरिये इस मुद्दे को बेहद संजीदगी से समझाने का अच्छा प्रयास किया है निर्देशक विकास बहल ने। फ़िल्म क्वीन से सफलता का स्वाद चखने वाले विकास बहल ने इस फ़िल्म में भी लीक से हटकर कुछ नया और अलग करने की बेहतरीन कोशिश की है। इस फ़िल्म को लगभग 6 महीने पहले ही रिलीज होना था, मगर मीटू के केस में नाम आ जाने के कारण ये फ़िल्म अब रिलीज हुई। बायोपिक फिल्मों की श्रृंखला में इसे अगली कड़ी के रूप में देख सकते है। फ़िल्म की कहानी सुपर 30 से भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में नेम फेम पाने वाले आनंद कुमार के जीवन पर आधारित है। आनंद कुमार के रीयल लाइफ को रील लाइफ में रितिक रोशन ने शानदार तरीके से पेश किया है। राजा का बेटा ही राजा, नहीं होगा बल्कि वह होगा जो सही मायनों में उसका हकदार होगा। इसी थीम को लेकर ये फ़िल्म चलती है और अपने मुकाम तक सफलतापूर्वक पहुंचती भी है। फ़िल्म में सायकिल की चैन के उतरने व चढ़ाने का प्रतीकात्मक अर्थ दिखलाया गया है। जिसे जीवन मे उतार चढ़ाव से लिया जा सकता है। फ़िल्म मुख्य रूप से दो भागों में है। पहले हाफ में आनंद कुमार के कॉलेज लाइफ की कहानी है तो दूसरे हाफ में आनंद कुमार को आनंद कुमार बनाने की कहानी है। घर की आर्थिक स्थिति सही न होने के कारण आनंद कुमार प्रतिभाशाली होते हुए भी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला हेतु अपना नाम आने पर वहां एडमिशन नहीं ले पाते हैं। अपने पिता के असामयिक मौत के कारण घर चलाने के लिए वो अपने मां और भाई के साथ पापड़ बेचने का काम शुरू कर देते हैं। यहीं पर बिहार के शिक्षा मंत्री या यूं कहिए कि शिक्षा माफिया द्वारा फैलाये गये कोचिंग के कारोबार में आनंद कुमार को पढ़ाने का ऑफर मिलता है। जिसके जरिये वो IIT कोचिंग की दुनिया में अपना नाम कमाने में सफल होते हैं और एक ब्रांड बन जाते हैं। सबकुछ अब ठीक चल रहा होता है मगर तभी कोचिंग में जब गरीब बच्चों का दाखिला पैसे के अभाव में वहां नहीं हो पाता तो उन स्थितियों से आनंद कुमार का दिल और मन दोनों अचानक से बदल जाता है। बोले तो हृदय परिवर्तन हो जाता है। का बूझे, कुछ बूझे की नाही। दिल बिहारी स्पीकिंग भाषा, जाने नाही दूसरा। भाषा में ठेठ बिहारीपन है। जिसमें रितिक ने अपना बेस्ट दिया है। महाभारत में जिस गुरु द्रोणाचार्य को आज भी एकलव्य के लिए गलत ठहराया जाता है, उसकी धारणा को तोड़ते हुए अर्जुन की जगह आनंद कुमार ने यहां एकलव्य का साथ दिया है। और वो इन गरीब बच्चों को फ्री में ही पढ़ाने के लिए वहां नौकरी छोड़, खुद का कोचिंग शुरू कर देते हैं। यही फ़िल्म का अतिनाटकीय मोड़ है। रियल लाइफ में आनंद कुमार बहुत पहले से ही खुद की कोचिंग में बच्चों को पढ़ा रहे होते हैं। गरीब बच्चों को तो वे काफी बाद में पढ़ाना शुरू किये। जबकि फ़िल्म में सीधा गरीब बच्चों को ही पढ़ाता दिखाया गया है। यहीं से रीयल लाइफ कम और रील लाइफ की फ़िल्म में अधिकता होती गई है। आनंद कुमार बिना शेविंग के ही हर वक्त क्यों रहते हैं ? मैथ्स का टीचर होने के बावजूद पापड़ बेचने की नौबत क्यों आई ? अमीर घराने के बच्चों से कौन सी गलती हुई है जो वे उन्हें नहीं पढ़ाते आदि कई सवाल हैं जो मन में खटकते हैं। जिसका सटीक उत्तर देने में फ़िल्म असफल हुई है। शिक्षा माफिया और आनंद कुमार के बीच टकराव, कहानी का क्लाइमेक्स है। लल्लन सिंह द्वारा धमकी दिलवाना, रेप का झूठा आरोप लगवाना, बिजली कटवा देना आदि कई चालें चली जाती हैं। जिससे आनंद की कोचिंग को बंद किया जा सके मगर सबमें वो नाकाम होते हैं। थ्री इडियट्स की तरह ही पढ़ाई को केवल थ्योरी बेस नहीं बल्कि प्रैक्टिकल पर फोकस किया गया है। मैथ्स को जीवन से जोड़कर खेल खेल में बेहद आसान तरीके से समझाया है। जिससे बच्चे गुंडों से लड़ने में ही नहीं बल्कि IIT में दाखिला लेने में भी कामयाब हो जाते हैं। जिससे फ़िल्म का अंत सुखद होता है।वचकाचौंध व ग्लैमर के बिना पहली बार रितिक रोशन ने कोई ऐसी फिल्म की है। जो यकीनन काबिले तारीफ है। ये उनके करियर की बेहतरीन फ़िल्म कही जा सकती है। चक दे इंडिया ने जिस तरह से शाहरुख के लवर बॉय के इमेज को तोड़ा ठीक वैसे ही रितिक रोशन के माचो मैन की इमेज को ये फ़िल्म गलत साबित करती है। पहली बार ही शायद हुआ होगा कि रितिक की फ़िल्म में न कोई स्टेज डांस है न बॉडी का खुला प्रदर्शन। क्षेत्रीय भाषा और बोली के साथ साथ वहां के तौर तरीको पर रितिक ने अच्छी पकड़ बनाई है। जो आनंद कुमार का लुक देने में काफी मददगार साबित हुई है। मृणाल ठाकुर, आनंद की प्रेमिका के रूप में अच्छी लगी हैं। भाई के रोल में नांदिश सिंह व पिता के रोल में वीरेंद्र सक्सेना ने भी अच्छी एक्टिंग की है। लल्लन सिंह की भूमिका में आदित्य श्रीवास्तव भी जमे हैं। अपने हर फिल्म से एक अलग छाप छोड़नेवाले पंकज त्रिपाठी ने शिक्षामंत्री के किरदार को भी बखूबी निभाया है। बिहार में तत्कालीन शिक्षा की क्या स्थिति रही होगी इसे हम इनके अभिनय से देख सकते हैं। जिसमें हास्य तो है ही साथ में शिक्षा व्यवस्था पर करारा व्यंग्य भी है। अन्य कलाकारों में कोचिंग के बच्चों ने अपने-अपने रोल को दर्शाने की पूरी कोशिश की है। आनंद को मैथ से इतना गहरा प्यार होता है कि वो हर चीज को मैथेमेटिकल पॉइंट ऑफ व्यू से देखते हैं। यहां तक कि अपनी प्रेमिका के चेहरे की खूबसूरती को भी वो गणित के एक नये पैमाने पर मापते हैं। तो प्रेमिका भी गणित की भाषा मे ही जवाब देती है कि मारेंगे दस और गिनेंगे एक। जैसे कई डायलॉग्स अपना गहरा असर दर्शकों तक छोड़ जाते हैं। जैसे लाइफ में इतना पीछे धक्का दे दिए हैं, आप हमको की मौत को भी आने में समय लगेगा। प्रीमियम बच्चों को प्रीमियम टीचर और असिस्टेंट बच्चों को असिस्टेंट टीचर ही पढ़ायेगा न। ये 2 रुपये वाला टट्टू कैसे रेस जीतता है। मर तो उसी दिन गये थे जिस दिन गरीब के घर पैदा हुए थे। टीचर से सीईओ नहीं बनाया तुम्हें कोचिंग माफिया बनाया है। बच्चों का खेल नहीं बड़ो का खेल खेलो आदि। गीत-संगीत में भी दिल के मोहल्ले में सब ठीक है, क्वेशचन मार्क, पैसा और बसंती नो डांस सॉन्ग है जो अच्छे बन पड़े हैं। इनमें बसंती नो डांस, इंफ्रट ऑफ दीज डॉग्स सांग, हम होंगे कामयाब की भावना को सभी बच्चों में विकसित करता है। साथ ही हिंदी vs इंग्लिश की चली आ रही पुरानी लड़ाई को नया धार भी देता है। तेरी इंग्लिश मेरी इंग्लिश सबकी इंगलिश हिंदी है, गाकर हिंदी को विजयी बनाया गया है। दिल्ली से लेकर अमेरिका तक पुरस्कारों की एक लंबी कतार आनंद कुमार के लिए लगी है। सही मायनों में उम्मीदों के हौसले की उड़ान को सच कर दिखलाया है आनंद कुमार ने। जिसको रितिक ने पर्दे पर बखूबी जिया है। बेहतरीन कहानी के साथ रितिक की इस मेहनत के लिए मैं इस फ़िल्म को 5 में से 4 स्टार दूंगा। और हां अगर आपका भी कोई ख्वाब है तो अपने लिए ना सही उस ख्वाब के लिए ही सही इस फ़िल्म को देखने जरूर जायें।

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