मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूँ…!!!

घनानंद कहते हैं ‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत/मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत!’ लगभग यही स्थिति आधुनिक हिंदी कवियों में केदारनाथ सिंह की रही। उनकी कविताओं में कभी यह नहीं दिखा कि कवि ने कविता का निर्माण किया है या उसे ठोंक पीटकर बनाया है। उनकी कविता में सच्चे आदमी की आत्मा की सीधी सादी और सोंधी गंध भरी हुई है। जैसे कोई कुम्हार अपनी कुशलता से घड़े को सुघड़ बनाता है, उसी तरह केदारनाथ सिंह की कविताएँ आदमी की आत्मा को उजास से भरती हैं और उसे सुघड़ और मानवीय बनाती हैं। केदारनाथ सिंह की कविताओं पर लिखते हुए ओम निश्चल ने बड़ी अच्छी बात लिखी है ‘वे एक कवि का उच्चादर्श भी सामने रखते हैं। कवि वह जो दीये की लौ की कँपकँपी आत्मा में भर ले, भर ले ताकती हुई आँखों का अथाह सन्नाटा… …वह हमारी आत्मा के सुनसान में दीये सा उजाला भरता प्रतीत होता है। हमारी उँगली पकड़कर हमें रास्ता दिखाता हुआ’।[1]

निश्चय ही एक कवि का यह सबसे बड़ा दायित्व है कि वह पाठक को नया रास्ता दिखाए, जो मनुष्यता की ओर ले जाता हो। एक अनूठी लय और गीतात्मकता के साथ केदारनाथ सिंह की कविताएं हमारी रगों से होते हुए अंत:करण में प्रवाहित होने लगती हैं। उनकी कविता हमसे अपने सुख दुख साझा करती चलती है। हिंदी के सजग लेखक प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने बहुत सुंदर विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ‘केदारनाथ सिंह की कविताएं हमारी अपनी भाषा में हमसे बातें करती चलती हैं। उनका अनुभव संसार गांव से लेकर कस्बाई मानसिकता वाले शहर से होते हुए महानगर तक फैला हुआ है। शहरी परिवेश में रहते हुए भी भावनात्मक रूप से वे गाँव से ही जुड़े रहे।[2]

केदारनाथ सिंह आधुनिक हिंदी कविता के ऐसे कवि हैं जो अपनी कविताओं में आधुनिक भावबोध के साथ प्रकृति, मनुष्य तथा लोक जीवन के बहुआयामी संबंधों को बड़ी सहजता के साथ अंकित करते हैं। केदारनाथ सिंह की कविताओं ने हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं की कविताओं के मुहावरे, भाषा और बिंब विधान आदि को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। केदारनाथ सिंह ने अपनी कविताओं के लिए निरंतर एक नया और सूक्ष्म शिल्प विकसित किया है। यह खासियत उन्हें अन्य समकालीन कवियों से अलग करती है। केदारनाथ सिंह की कविताएँ हमें एक ओर गहरे समकालीन यथार्थ से जोड़ती हैं तो दूसरी तरफ लोक जीवन से हमारी अनिवार्य संगति को भी सघनता के साथ व्यक्त करती हैं।

वस्‍तुत: किसी रचनाकार को जानने के लिए उसकी रचनाओं में व्‍याप्‍त संवेदना, भावबोध और अनुभव क्षेत्र को समझना जरूरी है। केदारनाथ सिंह की रचनाओं में जो बिंब हैं वे गाँव और लोकचेतना से संपृक्‍त हैं। इन रचनाओं में सहज-समय का जीवंत संघर्ष विद्यमान है। इसीलिए कवि केदारनाथ सिंह के यहाँ लोक चेतना और आधुनिक भावबोध घुल मिल गए हैं। कवि के आठ काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इन संग्रहों की कविताओं में कवि ने एक सार्थक और अधिक सूक्ष्म शिल्प विकसित किया है। उनकी कविताओं में लगातार एक विकास यात्रा को देखा जा सकता है। जिसे कवि के पहले काव्य संग्रह ‘अभी बिलकुल अभी’ (1960) से लेकर ‘सृष्टि पर पहरा’ (2014)  तक संग्रह की कविताओं में देख सकते हैं। बदलते हुए समय में किस प्रकार कवि का भावबोध बदला है देखा जा सकता है। कवि की कविताओं में भाषा के अद्भुत प्रयोगों को देखा जा सकता है। इस अद्भुत भाषा के प्रयोग के कारण ही कवि की कविताओं में सर्वथा नई और अनूठी शैली का उन्मेष हुआ है। कवि की शैली में एक खास तरह की ताज़गी और कलात्मक अभिव्यक्ति का सन्निवेश है। ‘नीला पत्‍थर’ शीर्षक कविता में केदारनाथ सिंह लिखते हैं ‘जाने कहाँ/ कौन पर्वत है/ जिससे रोज लुढ़क कर / मेरे पास चला आया है/ नीला पत्‍थर / जब मैं कभी अकेला /बहुत अकेला होता हूँ’। ‘दुपहरिया’ और ‘पपीहा दिन’ कविताएं प्‍यास, उदासी और अकेलेपन को मूर्तिमान करनेवाली बहुचर्चित कविताएँ हैं। ‘झड़ने लगे नीम के पत्‍ते बढ़ने लगी उदासी मन की/ उड़ने लगी बुझे खेतों में झूर-झूर सरसों की रंगीनी।’ वास्‍तव में यह कवि के मन पर ग्रीष्‍म की दुपहरिया का प्रभाव है। यह एक उत्‍तम कोटि की प्रभावाभिव्‍यंजना है ।

कवि की आरंभिक कविता ‘अनागत’ बहुत चर्चित रही है। इस कविता में अधुनिक भाव-संवेदन को कवि ने बहुत गहराई से व्यक्त किया है। ‘फूल जैसे अँधेरे में दूर से ही चीखता हो/ इस तरह वह दरपनों में कौंध जाता है !/ हाथ उस के/हाथ में आकर बिछल जाते/स्‍पर्श उसका/धमनियों को रौंद जाता है!/पंख/उसकी सुनहरी परछाइयों में खो गए हैं/पाँव/उस के कुहासे में छटपटाते हैं![3] यहाँ  ‘अनागत’ कविता में भविष्य के प्रति जो एक जिज्ञासा और कुतूहल व्याप्त है कि अनागत भविष्य कैसा होगा? इस अनागत का क्या किया जाए? की बेचैनी पूरी कविता में एक रचनात्मक तनाव पैदा करती है। यही रचनात्मक तनाव कविता में अर्थ की सृष्टि भी करता है।

‘फ़र्क नहीं पड़ता’ कविता संवेदनहीन समय की गवाही देती है। यहाँ प्यार और सड़क में कोई भेद नहीं। यहाँ कवि ने हमारी संवेदनाओं के समाप्त होने, क्रूर और निर्मम होते जा रहे समय को उजागर किया है। ‘पर सच तो यह है कि यहाँ/या कहीं भी फ़र्क नहीं पड़ता /तुमने जहाँ लिखा है ‘प्‍यार’ /वहाँ लिख दो ‘सड़क’/फ़र्क नहीं पड़ता /मेरे युग का मुहाविरा है/फ़र्क नहीं पड़ता’[4] । यहाँ आधुनिक समय के गहरे यथार्थ को कवि ने रेखांकित किया है।

लोक जीवन को गहराई से जानने और समझने के लिए कवि की ‘माँझी का पुल’ कविता अत्यंत महत्वपूर्ण है। ‘बंसी मल्‍लाह की आँखें पूछती हैं/ लालमोहर हल चलाता है/और ऐन उसी वक्‍त/  जब उसे खैनी की जरूरत महसूस होती है/  बैलों के सींगों के बीच से दिख जाता है/ माँझी का पुल’[5] ‘माँझी का पुल’ कविता लोक जीवन से जुड़ी हुई कविता है। माँझी का पुल अर्थात लोगों के भीतर का सपना। इस कविता में कवि ने पुल के प्रति लोक की जिज्ञासा को व्यक्त किया है। वहाँ के जनजीवन में किस तरह घुल-मिल गया है माँझी का पुल। यहाँ लोक की सहजता को कवि ने बड़ी संवेदना के साथ अंकित किया है। इस लोक संवेदना के साथ आधुनिक संवेदना को कवि ने बड़ी कुशलता के साथ संयोजित किया है- ‘कितने खच्‍चर/कितनी बैलगाडियाँ/कितनी आँखें/कितने हाथ चुन दिए गए हैं माँझी के पुल में/मेरी बस्‍ती के लोगों के पास/कोई हिसाब नहीं’[6] कवि पूरे जनमानस के सामने, पूरे तंत्र के सामने एक सवाल खड़ा करता है। वास्‍तव में यहाँ कवि की गहन मानवीय चिंता इस रूप में प्रकट हुई है कि कैसे यह पुल साकार हुआ होगा। यहाँ कवि पुल के निर्माण में लगे हुए जीवन-श्रम को पूरी संवेदना के साथ व्‍यक्‍त करता है। और विडंबना यह है कि इतना सब कुछ पुल में लगने के बावजूद बस्ती के लोगों के पास इसका कोई हिसाब नहीं। इस विडंबना को भी कवि सामने लाता है। एक ओर कवि ने पुल में लगे हुए जीवन को कितने खच्चर, कितनी आँखें आदि को दिखाकर मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने की कोशिश की है। दूसरी ओर इसका कोई हिसाब नहीं कह कर बताना चाहते हैं कि यह सब कुछ बेहिसाब और असंख्य है इसकी गणना करना कठिन है।

‘बनारस’ कविता में बनारस एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर के रूप में चित्रित है। यह शहर इहलौकिक और पारलौकिक दोनों स्वरूपों में कविता में विद्यमान है। संपूर्ण शहर अपनी जातीय स्मृति तथा सांस्कृतिक संपदा के साथ मूर्तिमान हो जाता है। ‘इस शहर में बसंत/अचानक आता है/जब आता है तो मैंने देखा है/लहरतारा या मड़वाडीह की तरफ से/उठता है धूल का एक बवंडर/और इस महान पुराने शहर की जीभ/ किरकिराने लगती है’।[7] आधुनिक संवेदना से जुड़ी अनेक कविताएँ केदारनाथ सिंह ने लिखी हैं। ‘अकाल में सारस’ में एक तरफ पर्यावरणीय संकट तो है ही दूसरी तरफ गाँव का शहर की ओर पलायन भी है। यहाँ गाँव और शहर में स्पष्ट अंतर कवि ने दिखाया है। ‘न जाने क्‍या था उस निगाह में/दया कि घृणा/पर एकबार जाते-जाते/उन्‍होंने शहर की ओर मुड़कर/देखा ज़रूर’।[8]

केदारनाथ सिंह की लोक या गाँव से जुड़ी हुई आस्‍था और शहरी जीवन के प्रति दृष्टि‍कोण कई बार भाषा के स्‍तर पर देखने को मिल जाता है। वे गाँव और शहर के बीच, भोजपुरी और हिंदी के बीच आज तक दोनों को दोनों में तलाश रहे हैं-‘हिंदी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/घर से निकलता हूँ /तो चला जाता हूँ देश में /देश से छुट्टी मिलती है/तो लौट आता हूँ घर/इस आवाजाही में/कई बार घर में चला आता है देश/देश में कई बार/छूट जाता है घर/मैं दोनों को प्‍यार करता हूँ /और देखिए न मेरी मुश्किल /पिछले साठ बरसों से/ दोनों में दोनों को/ खोज रहा हूँ।’’[9]

‘इस प्रकार केदार की कविता आज की वास्‍तविकता, व्‍यवस्‍था की क्रूरता, समझौता, चुप्‍पी,  मामूली आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष का चित्रण बहुत सांकेतिक  ढंग से करती है। यह जमीन न केवल केदार की पहले की कविताओं से भिन्‍न है बल्कि आज की कविता के मुहावरे से भी है। आज की कविता में जो आक्रोश, विद्रोह और आक्रामकता की मुद्रा है वह केदारनाथ सिंह की कविताओं में नहीं मिलेगी। उन कविताओं में चालू मुहावरों का जो दुहराव है वह भी केदार जी की कविताओं में मिलेगा। उनकी कविताओं में एक गहरा काव्‍यानुशासन और संयत मुद्रा है। मितकथन है, केदार की ताकत गोली-बंदूक की नहीं, शब्‍द की ताकत है।’[10]

वास्‍तव में कवि केदारनाथ सिंह कविता में उथल-पुथल, हलचल या हंगामा नहीं खड़ा करते; बल्कि कविता की भीतरी शक्ति को पहचानते हुए वे सिर्फ आग की ओर इशारा करते हैं : ‘आप विश्‍वास करें / मैं कविता नहीं कर रहा/ सिर्फ आगकी ओर इशारा कर रहा हूँ।’ उक्त सभी कविताओं के विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं के विषय वैविध्यपूर्ण हैं। उनमें समर्थ और अर्थगर्भी भाषा-प्रयोग की अपूर्व क्षमता है। इस भाषाई निर्मिति और सृजनकौशल के कारण ही कवि केदारनाथ सिंह हिंदी के एक महत्वपूर्ण बड़े कवि हैं। इनकी कविताओं का भाषा-संसार अत्यंत व्यापक है। कवि की कविताओं में आधुनिक और लोक संवेदना का अनूठा संगम है। केदारनाथ सिंह अपनी पीढ़ी के अत्‍यंत समर्थ कवि इसलिए भी हैं क्‍योंकि उनमें एक कवि की संवेदनशीलता के साथ-साथ एक कलाकार का संतुलित काव्‍यानुशासन भी मौजूद है। चीज़ें चाहे जितनी बड़ी या छोटी हों उनके निरीक्षण का जितना सटीक और बारीक कौशल कवि में हैं वह अन्‍यत्र दुर्लभ है।

आधुनिक हिंदी कवियों में लगभग सभी ने प्रेम कविताएँ लिखी हैं, किंतु केदारनाथ सिंह की तरह प्रेम के बारीक और मुलायम स्पर्श को शायद ही किसी ने अनुभव किया हो। ‘किसी को प्यार करना/ तो चाहे चले जाना सात समंदर पार/ पर भूलना मत/ कि तुम्हारी देह ने एक देह का/ नमक खाया है’!  इतनी ऐंद्रिकता, कोमलता और करुणा के साथ प्रेम और समूची मानवता के पक्ष में खड़ा होना कोई कवि केदारनाथ सिंह से सीख सकता है। निश्चय ही इस सदी की प्रेम के पक्ष में विश्वास जगाती शायद ये अंतिम पंक्तियाँ होंगी।

वस्तुतः कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं को समझने और उन कविताओं के सृजनशक्ति के प्रति न्याय करने के अनेक आयाम हो सकते हैं। उनकी भाषा में लोक और आधुनिक यथार्थ के गहन बिंब देखे जा सकते हैं। कवि केदारनाथ सिंह व्‍यक्तिगत स्‍तर पर सहज, सरल तथा ग्रामीण संस्‍कारों के मनुष्‍य हैं। वहीं दूसरी ओर ज्ञान एवं संवेदना के स्‍तर पर नितांत आधुनिक भी। कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं में लोकजीवन से जुड़ी हुई चिंताओं के साथ ही आधुनिकता के गहन यथार्थ की अनुभूति भी गहराई से व्‍यक्‍त है। आशा, आकांक्षा, प्‍यास, अतृप्ति, बेचैनी, अकेलेपन की उदासी इस कवि में कहीं बहुत गहरे रची-बसी हुई है। कवि द्वारा अंकित आकुल गति चित्र उसकी भीतरी प्‍यास और बेचैनी को अभिव्यक्त करते हैं। वे एक नए और मानवीय संसार की कल्पना करते हैं, और शायद इसीलिए अपनी कविता द्वारा हमसे प्रश्न करते हैं:

‘मैं अपना नन्हा गुलाब

कहाँ रोप दूँ!

मुट्ठी  में प्रश्‍न लिए

दौड़ रहा हूँ वन-वन

पर्वत-पर्वत

लाचार’।

[1] ओम निश्चल, हिंदी मेरा देश है भोजपुरी मेरा घर, नया ज्ञानोदय (अप्रैल, 2018), पृ. 15

[2] प्रो. शर्मा आनंद वर्धन, बनारस को जिया था केदारनाथ सिंह ने (स्मृति लेख), अमर उजाला, 23 मार्च, 2018.

[3] अज्ञेय, तीसरा सप्तक, पृ. 128

[4] सिंह केदारनाथ, ज़मीन पक रही है, पृ. 47

[5] सिंह केदारनाथ, ज़मीन पक रही है, पृ. 94

[6] सिंह केदारनाथ, ज़मीन पक रही है, पृ. 95

[7] सिंह केदारनाथ, यहाँ से देखो, पृ. 76

[8] सिंह केदारनाथ, अकाल में सारस, पृ. 23

[9]  सिंह केदारनाथ, सृष्टि पर पहरा, पृ. 94

[10]  कवि केदारनाथ सिंह, विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी, पृ. 100

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