डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को मनाना हम सबके लिए गर्व की बात है। किंतु अब वर्तमान परिस्थितियों मे शिक्षक के हाल को देखते हुए लगता है कि कहां शिक्षक और कहां राधाकृष्णन जी। दोनो एक दूसरे के पसंघे हो गये है। राधाकृष्णन के सिद्धांतों के अनुरूप विश्व भी एक विद्यालय है।शिक्षक को पाठ्यक्रम के अतिरिक्त बच्चे को आत्मनिर्भर बनाने की कला सिखाना चाहिए। परन्तु पढे लिखे गुलाम की तरह शिक्षक जीवन यापन कर रहा है और बाजार मे अपने को स्थिर बनाए रखने मे जग्दोजहद कर रहा है उस बीच वो सम्मानित कब होता है। सितंबरी शिक्षक सम्मान का बाकी अपमान का शिक्षक बना रहता है। फिर किस बात का शिक्षक दिवस। विद्यालयों मे शिक्षक एक कर्मचारी ही है हुजूर।वह सबकी सुनता है सबकी सुनकर हां मे हां मिलाने की कोशिश करता है। क्योंकि वो जानता है कि अगर कुछ भी इधर उधर हुआ तो विद्यालय प्रबंधन कारण बताव नोटिस देकर उसे बाहर का रास्ता दिखा देगा।समय के साथ शिक्षा का रूप, स्वरूप, प्रारूप बदला है। स्वाभाविक तौर पर जब शिक्षा का रूप बदला तो शिक्षक का रूप भी बदला है। डा राधाकृष्णन के जन्मदिन को मनाने के पीछे शिक्षको के जिस उत्थान, उन्नयन और उपमान की कल्पना की गई थी उसके रूप को बदलाव की हवा लग चुकी है। अब तो गुरूता लिए हुए गुरूओं और वर्तमान शिक्षकों के बीच जमीन आसमान का अंतर हो गया है। पहले की शिक्षा मे शिक्षक केंद्र मे था तो उसका सम्मान था।वह विषय के अतिरिक्त छात्र के जीवन में उपस्थित होकर जीवन मूल्यों का अध्यापन करता था। बच्चे कक्षाओं के बाद भी गुरुओं को याद करते थे।

      आज के समय मे करके सीखने और बालकेंद्रित शिक्षा का जमाना है। बच्चा केंद्र की धुरी मे है। तीन भुजा मे शिक्षक शिक्षा और स्कूल है। डा राधाकृषणन ने जिस समाजोपयोगी संस्थिन के रूप मे स्कूल को अपने सिद्धांतों मे स्थापित किया था वह तो पूरी तरह से शिक्षा उद्योगों मे बदल चुके हैं। जहां शिक्षक सेल्समैन, मार्केटिंग का कामगार और कारीगर के रूप मे है। बच्चा एक उत्पाद, पालिसी या बांड है। शिक्षकों को अधिक नंबर लाने वाले प्रोडक्ट के निर्माणकर्ता के रूप मे प्रशिक्षित किया जाता है। थोक का थोक इन प्रशिक्षणशालाओं मे गैर गुजरे युवाओं को बाई चांस मे मिले इस अवसर को पैसे और सोहरत मे बदलना सिखाया जाता है। बाई च्वाइस आजकल कम ही शिक्षक मिलते है। आज तो शिक्षक जैसे लोग पांच सौ से कम वेतन मे भी काम करने के लिए तैयार हैं। यह भी शिक्षा जगत का दुर्भाग्य भी है। सारे अनर्गल काम करने के लिए शासन को शिक्षक ही खाली मिलता है। कभी कभी मन मे सवाल उठता है कि शिक्षक दिवस किन शिक्षकों के उत्थान के लिए है।स्कूल के शिक्षक, ट्यूशन के शिक्षक, कोचिंग के शिक्षक, सरकारी शिक्षक, या प्राइवेट सककूल के शिक्षक, मेहनती लगनशील और पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा के शिक्षक या फिर  अच्छी पहचान और पहुंच रखने वाले बच्चों को अधिक नंबद दिलाने का लालच देने वाले व्यवसायी शिक्षक, और सोंचे तो एक दिन के लिए स्कूल मे जाकर शिक्षकों मे अपना रूतबा दिखाने वाले सरकारी अधिकारी रूपी शिक्षक के लिए।

      आज सरकार मजदूर से लेकर हर प्रोफेसन वाले से बहुत डरती है. थोडा से हडताल हुई नहीं की लगता है कि कहीं सरकार की राज्य व्यवस्था का बंटाधार कहीं ना हो जाए और तुरंत माँगे मान ली जाती है. परन्तु शिक्षक साल भर मे ५० बार यदि हडताल करें और यह भी छोडिये यदि आमरण अनसन करे तो भी सरकार के कानों में जूँ तक नहीं रेंगती है. जैसे उसे शिक्षकों की कोई चिंता ही नहीं है. और किस बात की चिंता की जाये कौन सा आर्थिक नुकसान होना है उसका. चाहे ४ दिन करें या ४० दिन.. यही सब हाल है जनाब.ऐसा लगता है कि दिहाडी करने वाले शिक्षा के मजदूरों का दिवस है. जिसकी आय एक पखाना उठाने के मजदूर से भी कम है. और उसके चिल्लाने में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है. यह भी सच है कि यदि प्रतिक्रिया की भी तो सिर्फ आस्वासन और झूठे वायदे है.

अफसोस तो तब होता है जब वो सब आफीसर ,नेता, जो शिक्षक दिवस के दिन शिक्षकों की तारीफ में पुल बाँधने से नहीं थकते है वो सब अगले दिन २४ घंटे के पूर्व ही इस प्रभाव से निकल कर शिक्षकों को समाज में मुर्गा बनाने की आदत से बाज नहीं आते है.शिक्षक दिवस में शिक्षक की स्थिति ठीक उसी तरह है जिसमें महापुरुषों का वह पत्थर का बुत है जिसे साल भर धूल बीट सम्मान करते है और एक दिन उसे धोया पोंछा जाता है माला पहनाया जाता है उसके बारेमें कसीदे पढे जाते है. और अगले दिन से फिर वही सार भर किस्सा चलता रहता है.

      आज के समय पर शिक्षक निहत्था है। उसकी स्थिति कुछ इस तरह है – पीछे बंधे हैं हाथ और शर्त है सफर किससे कहूं कि पांव के कांटे निकाल दो। शिक्षक पाठ्यक्रम के बाहर नहीं जा सकता, शिक्षक बच्चे को डांट नहीं सकता अनुशासन तो बहुत दूर की बात है, शिक्षक बच्चे को कक्षा मे खड़ा नहीं कर सकता, प्राचार्य की अवहेलना नहीं कर सकता, नवोन्वेषी रास्ता अपना नहीं सकता, विषय पर अपना अनुभव नहीं बता सकता, अपने मापदंडों के अनुरुप मूल्यांकन नहीं कर सकता,  वह तो एक खांचे मे सेट किया हुआ मानव रोबोट सा बन कर रह गया है। तब भी यह मूर्ख समाज उसे भविष्य का निर्माता कहता है। वह धरासायी हो चुके पाठ्यक्रम को बैलगाडी मे जुते हीए बैल की तरह ढो रहा है साहब। बडे अधिकारियो और शासन के ब्यूरोक्रेट्सस तय कर रहे हैं साहब कि शिक्षक क्या कब कैसे पढाएगा। और तो और इस व्यवसाय मे शिक्षक हमेशा थैंकलेस रहा है भले ही वह कितना गहरा थिंक टैंक रहा हो। वर्तमान और भविष्य मे शिक्षक एक टूल बनकर यह जाएगा। वो औजार जिसका कोई पूरक नही बना शिक्षा जगत में। बाकी राष्ट्रनिर्माण, भविष्य उत्थान करने वाला पुरोधा जैसी उपाधियां सिर्फ अतीत के पन्नों मे लिखी सूक्तियां बनकर रह गया है। शिक्षक का वेतन सेवा शुल्क अन्यकामगार से बहुत कम है।उसके लिए मथोचित सुविधाएं नहीं है। सरकार शिक्षकों को श्रमिक तो मानती है किंतु श्रमिक के रूप मे सुविधाएं देने के लिए हाथ खडा कर लेती है। यह दोगला चरित्र ही शिक्षकों के समाजिक और राष्ट्रीय सम्मान के  पतन का कारण है। जब तक यह सौतेला रवैया , संविदा और ठेकेदारी का रवैया, श्रय साध्य मानकर भी स्वीकार न करने का रवैया, शिक्षक को एक बुद्धिजीवी गुलाम मानने का रवैया, नहीं बदला जाएगा । जब तक शिक्षक को सामाजिक सुदृढता, आर्थिक आत्मनिर्भरता , मौलिक अधिकार नहीं मिलेगा तो चाहे जितने शिक्षक दिवस के पर्वों मे शिक्षके के जीते जागते पुतले बिठा लिए जाए वो सिर्फ कठपुतली के नाच की तरह मनोरंजन का साधन ही बने रहेंगें।

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