rahat indauri

दो गज ही सही मेरी मिल्कियत तो है।
ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया।

इंदौर की धरती और अदब आज उदास है, रेख़्ता मायूसी से घिरा हुआ है, हिंदवी अपनी गंगा जमुनी विरासत को सहेजने सहेजते असहज सी हो रही है। कवि सम्मेलन और मुशायरों की शान में जैसे मावस की स्याह गहरी रात आ चुकी है, जबसे सबने सुना की कोरोना ने इंदौर के अज़ीम शायर, चित्रकार और  अदब के खिदमतगार जनाब राहत कुरैशी, यादि कि जाने माने शायर राहत इंदौरी साहब नहीं रहे। राहत तो न हिंदी अदब में है न ही उर्दू अदब में क्योंकि दोनों ने एक कलम का सिपाही को दिया।

राहतुल्ला कुरैशी उर्फ बचपन के कामिल भाई सन पचास के दशक में इस दुनिया में आए, प्रारंभिक शिक्षा के बाद  के वो उर्दू की शिक्षा ग्रहण किए देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक भी रहे, लेकिन उनका मिजाज इस अकादमिक दुनिया में नही जमा, यही वजह रही कि उनके अंदर छिपा कलाकार और कलमकार ने पूरी दुनिया को अपने ख्याल का मुरीद बना दिया।

अपने विशेष अंदाज से दर्शकों और श्रोताओं को अपनी शेरों शायरी तथा गीत ग़ज़लों नज़्मों में वो सम्मोहन ही बस नहीं पैदा किए, बल्कि जम्हूरियत, मुल्क, ग़रीबी, मजहब, भाईचारे, विश्वबंधुत्व की बात भी करके गए। पेशे से प्राध्यापक रहने की वजह से उनकी शायरी का मयार मुशायरों और कवि सम्मेलनों में अलग अंदाज लिए होता था।

उन्होंने अपने हुनर को भारत के विभिन्न प्रदेशों, देश की उर्दू अकादमी और तो और विश्व के हिंदी और उर्दू जानने वाले मुल्कों तक उन्होंने इंदौर मध्यप्रदेश और भारत का नाम रोशन किया। कोरोना काल साहित्य जगत के लिए काल बनकर आया और की कलमकारों को अपने आगोश में ले लिया।

राहत इंदौरी ऐसी शख्सियत रहे जिन्होंने अदब के साथ साथ फिल्म जगत में अपना सिक्का जमाया, उनके अनुभव और अदब की खिदमत का ही परिणाम था कि फिल्म जगत में उनकी भूमिका बतौर गीतकार रही वो कई फिल्मों में गीत लिखे और वो लोगों की जुबानों में सुमार रहे। वो जिन 11 फिल्मों में गीत लिखे उसमें से प्रमुख मुन्ना भाई एमबीबीएस, करीब, खुद्दार, बेगम जान, प्रमुख फिल्में रही। उनके गीत शेरों शायरी, नज़्में, और ग़ज़लें आम दर्शकों की जुबान में रहे, वो आम बोलचाल की भाषा में शायरी करते थे। उनकी भारी बुलंद आवाज़ श्रोताओं के दिलों में राज करती रही। उन्होंने अपनी विरासत अपने दोनों बेटों फैज़ल राहत और सतलज राहत को सौंप कर गए। किसी इंटर व्यू में वो एंकर से यह कहते नजर आए कि यदि मैं शायर ने होता तो चित्रकार होता या फुटबॉल और हाकी का खिलाड़ी होता। इससे यह भी बात साफ हो जाती है कि वो अपने कालेज के समय पर इन दोनों खेलों में माहिर थे।

राहत इंदौरी भी अपनी बेबाकी और इस राजनैतिक वातावरण के बीच की बार कैमरे और मीडिया के सामने आडे हाथों आए,,क्योंकि कहीं न कहीं उनका लहजा राजनैतिक परिदृश्य और परिवेश को पंच नहीं पाया। कभी शायरी का मिज़ाज ज्यादा तल्ख हुआ तो उनकी पंक्तियां पेपर और मीडिया में टीआरपी बढ़ाने का काम कर गईं। पर यह भी सच था कि राहत इंदौरी में इंदौर मध्यप्रदेश की जान बसती थी, उन्होंने कभी भी अपनी सर जमीं को जलील नहीं किया, अदब को शर्मिंदा नहीं किया। व्यक्तिगत रुप को एक किनारे रखें तो राहत इंदौरी मध्य प्रदेश ही नहीं देश के उर्दू अदब की रूह बने रहे मध्य प्रदेश में मंज़र भोपाली, कैफ भोपाली, राहत इंदौरी जैसे शायरों से मुशायरे रोशन होते रहें। आज जब राहत इंदौरी साहब अदब को छोड़कर गए, तब उनके मुद्दों को उछालने की संकीर्णता यदि मीडिया औश्र सोशल मीडिया में चलाया जा रहा है वह अदब की बेइज्जती ही है। एक रचनाकार को रचनाकार ही समझ सकता है। राहत साहब के जाने से रेख़्ता और हिंदवी अदब में खाली जगह है। वो कभी नहीं भर पाएंगी। राहत साहब के कलाम इस फिज़ा में गूंजते रहेंगे और हर मुशायरे में उनकी रिक्तता का एहसास कराते रहेंगे। अंत में उनके कलाम के कुछ मिसरे उनकी खिराजे अकीदत में पेश हैं।

सभी का खुश हैं शामिल यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है।

मैं मर जाऊं तो मेरी एक पहचान लिख देना।
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना।

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