जिस प्रकार बिहारी ने अपने एक मात्र रचना ‘बिहारी सतसई’ से हिंदी साहित्य में जो मुकाम हासिल किया है, ठीक वैसे ही “मेरे पास माँ है” इस कालजयी संवाद के साथ हिंदी सिनेमा में शशि कपूर ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है. जिसके लिए वे आज भी जाने जाते हैं. 18 मार्च 1938 को कपूर खानदान में जन्म लेने वाले ये तीसरे व सबसे छोटे लड़के थे. इनका असली नाम बलवीर राज कपूर था. अपने पिता पृथ्वी राज कपूर के थिएटर ग्रुप से जुड़े होने के कारण इन पर भी दोनों भाईयों की तरह इसका काफी प्रभाव पड़ा. 1944 में शशि ने अपना करियर पिताजी के पृथ्वी थिएटर के नाटक शकुंतला से ही आरम्भ किया था। फिर आगे चलकर अपने भाइयों राज कपूर और शम्मी कपूर से काफी अलग हँसते मुस्कुराते चेहरे और अपने अनोखे आवभाव के साथ हिंदी सिनेमा में अपने आप को एक रोमांटिक हीरो के तौर पर स्थापित किया. 1948 में राजकपूर की फिल्म ‘आग’ से हिंदी सिनेमा में बाल कलाकार के रूप में अपने करियर की शुरुआत करने वाले शशि कपूर को आखिरी बार 70 mm की स्क्रीन पर 1998 में इंग्लिश फिल्म ‘जिन्ना’ में देखा गया था. उनके इसी 50 साल के नायाब उपलब्धियों को देखते हुए हिंदी सिनेमा के सर्वोच्च पुरस्कार “दादा साहेब फाल्के पुरस्कार, 2014 से उन्हें नवाज़ा गया है. कपूर खानदान को मिलने वाला यह तीसरा पुरस्कार है. इससे पहले शशि कपूर के पिता पृथ्वी राज कपूर को और उनके बड़े भाई राजकपूर को यह पुरस्कार मिल चुका है.

शशि कपूर ने हीरो के तौर पर अपनी पहली फिल्म 1961 में साम्प्रदायिक दंगों पर बनी फिल्म धर्मपुत्र से की, जो की प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार ‘आचार्य चतुर सेन शास्त्री’ के उपन्यास धर्मपुत्र पर आधारित थी. इस फिल्म ने अपने विशेष संवादों से उस समय वाहवाही लुटने में काफी सफलता हासिल की थी. उसका एक अंश- “क्या हिन्दू तुम इसलिए हो की हिन्दू घराने में पैदा हुए हो. क्या तुम मुसलमान इसलिए हो कि तुम्हारे बाप का नाम फतेह चन्द न होकर, फतेह मुहम्मद है. क्या धर्म अंदर से पैदा नहीं होता, बाहर से आता है…” रोमांटिक हीरो के रूप में शशि कपूर को जिस फिल्म से प्रसिद्धी मिली वो फिल्म थी “जब जब फूल खिले” जो 1965 में आई थी. यह उस समय की सबसे सफल फिल्मों में से एक थी. “राजा हिन्दुस्तानी” इसी फिल्म की सुपरहिट रीमेक थी. ‘परदेशियों से न अंखिया मिलाना’ से लेकर ‘परदेशी परदेशी जाना नहीं’ तक के ये गीत आज भी प्यार में जहां बिछड़े आशिकों के सिस्कारियों की पहचान हैं. तो  वहीँ ‘कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ’, ‘वादा करो नहीं छोड़ोगी तुम मेरा साथ’, ‘ओ मेरी शर्मीली’ और ‘ले जायेंगे ले जायेंगे दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ जैसे कई गीत जवां दिलों की धडकनों को बख़ूबी बयां भी करती है. नंदा, राखी, जीनत अमान, शर्मीला टैगोर और नीतू सिंह जैसी अभिनेत्रियों के साथ दर्शकों ने इनकी जोड़ी को खूब सराहा. इसके बाद शशि कपूर ने फिर कभी पीछे मुडकर नही देखा और सफलता के शिखर पर उतरोत्तर चढ़ते चले गये. 

शशि कपूर ने हीरो के तौर पर अपनी पहली फिल्म 1961 में साम्प्रदायिक दंगों पर बनी फिल्म धर्मपुत्र से की, जो की प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार ‘आचार्य चतुर सेन शास्त्री’ के उपन्यास धर्मपुत्र पर आधारित थी. इस फिल्म ने अपने विशेष संवादों से उस समय वाहवाही लुटने में काफी सफलता हासिल की थी. उसका एक अंश- “क्या हिन्दू तुम इसलिए हो की हिन्दू घराने में पैदा हुए हो. क्या तुम मुसलमान इसलिए हो कि तुम्हारे बाप का नाम फतेह चन्द न होकर, फतेह मुहम्मद है. क्या धर्म अंदर से पैदा नहीं होता, बाहर से आता है…” रोमांटिक हीरो के रूप में शशि कपूर को जिस फिल्म से प्रसिद्धी मिली वो फिल्म थी “जब जब फूल खिले” जो 1965 में आई थी. यह उस समय की सबसे सफल फिल्मों में से एक थी. “राजा हिन्दुस्तानी” इसी फिल्म की सुपरहिट रीमेक थी. ‘परदेशियों से न अंखिया मिलाना’ से लेकर ‘परदेशी परदेशी जाना नहीं’ तक के ये गीत आज भी प्यार में जहां बिछड़े आशिकों के सिस्कारियों की पहचान हैं. तो  वहीँ ‘कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ’, ‘वादा करो नहीं छोड़ोगी तुम मेरा साथ’, ‘ओ मेरी शर्मीली’ और ‘ले जायेंगे ले जायेंगे दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ जैसे कई गीत जवां दिलों की धडकनों को बख़ूबी बयां भी करती है. नंदा, राखी, जीनत अमान, शर्मीला टैगोर और नीतू सिंह जैसी अभिनेत्रियों के साथ दर्शकों ने इनकी जोड़ी को खूब सराहा. इसके बाद शशि कपूर ने फिर कभी पीछे मुडकर नही देखा और सफलता के शिखर पर उतरोत्तर चढ़ते चले गये. 

वक्त, ‘आ गले लग जा’, ‘सुहाना सफर’, ‘पाप और पुण्य’, ‘आमने सामने’, ‘स्वाति’, ‘अभिनेत्री’, ‘बिरादरी’, ‘चोर मचाए शोर’, ‘दीवार’, ‘दो और दो पांच’, ‘एक श्रीमान एक श्रीमती’, ‘फकीरा’, ‘जानवर और इंसान’, ‘जुनून’, ‘कभी-कभी’, ‘काला पत्थर’, ‘कलयुग’, ‘क्रांति’, ‘नमक हलाल’, ‘न्यू देहली टाइम्स’, ‘प्रेम पत्र’, ‘प्यार का मौसम’, ‘प्यार किये जा’, रोटी कपड़ा और मकान, सत्यम शिवम सुन्दरम, शान, शर्मीली, सुहाग, सिलसिला, त्रिशूल, उत्सव, विजेता आदि इनकी सफल फ़िल्में थी. शशि कपूर अपने जमाने के सबसे ज्यादा फीस लेने वाले एक्टर्स में से एक थे. वहीँ थिएटर से भी इनका गहरा लगाव था. इसी कारण वे भारत और पूर्वी एशिया की यात्रा पर आई ब्रिटिश नाटक मंडली शेक्सपियराना से 1957 में हीं जुड़ गये थे. यहीं पर इनकी मुलाकात मंडली के संचालक की पुत्री जेनिफर कैंडल से हुई, जिस पर वे इतने फ़िदा हो गये की उससे शादी भी कर ली । किसी विदेशी महिला से शादी करने वाले शशि कपूर अपने खानदान के पहले ऐसे लड़के थे जिन्होंने इतना बड़ा कदम उठाया था. 

सत्तर के दशक में जब अमिताभ बुलंदियों की सीढियाँ चढ़ रहें थे तब उन्होंने शशि कपूर के साथ ही अपनी हिट जोड़ी बनाई. दोनों ने एक साथ 11 फिल्मों में काम किया जिनमें से 4 फिल्में ‘दीवार’, ‘सुहाग’, ‘त्रिशूल’ और ‘नमक हलाल’, सुपर डुपर हिट थी. उम्र में अमिताभ से बड़े होने के बावजूद अधिकतर फिल्मों में शशि कपूर ने छोटे भाई का रोल जिस संजीदगी से अदा किया वो बेहद काबिले तारीफ है. एक तरफ अमिताभ जहां एंग्री यंग मैन की भूमिका के साथ फिल्मों में अपनी सफलता के झंडे गाड़ रहे थे वहीँ शशि कपूर ने अपने धीरे धीरे संवादों को बोलने की अदायगी और अनोखे अंदाजे बयां से हिंदी सिनेमा में एक नए स्टाईल की शुरुआत की. यही वो बात थी जो सही मायनों में शशि कपूर को शशि कपूर बनाती है साथ ही अन्य बॉलीवुड कलाकारों से इन्हें सबसे अलग करती है. उसूलों और आदर्शों की धरातल पर बनी फिल्म ‘दीवार’ में जब-जब अमिताभ शशि कपूर पर बेहद तल्ख़ तेवरों के साथ संवादों के जरिये रूबरू होते हैं तब-तब शशि कपूर के इसी आवभाव वाले अनोखे स्टाईल से बोले गये संवाद अमिताभ सरीखे कलाकार पर भी भारी पड़ते  दिखाई देते है. जब अमिताभ कहते हैं की “मेरे पास बैंकबैलेंस है, बंगला है, गाड़ी है तुम्हारे पास क्या है ? तब बेहद शांत स्वभाव में ज्यों ही शशि कपूर कहतें है की “मेरे पास माँ है” तो अमिताभ के ये सारे डायलोग बड़े फीके से नज़र आने लगते हैं. इसी फिल्म के एक दृश्य में जब कहते हैं की- “जब तक एक भाई बोल रहा है, तब तक एक भाई सुन रहा है, और जब एक मुजरिम बोलेगा तो एक पुलिस ऑफिसर सुनेगा” तो दर्शकों के बीच वो अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं. वहीँ एक डायलोग में जब वे ये कहते हैं की ‘ज्यादा पैसा आए तो नींद नहीं आती… और नींद आये तो ज्यादा पैसा नहीं आता’ तो जीवन के एक बड़े फ़लसफ़े को बड़ी आसानी से समझा जाते हैं. इसी फिल्म के लिए शशि कपूर को सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला था. केवल तालियों की गडगडाहट ही किसी नायक के अभिनय की सफलता का परिचायक नही होता बल्कि दर्शकों की तल्लीनता भी नायकत्व के दूसरे रूप से हमें अवगत कराती हैं. शशि कपूर अपने इसी अभिनय के लिए हिंदी सिनेमा में में जाने जाते हैं. सत्तर के दशक तक आते आते ये सबसे अधिक व्यस्त कलाकार हो गये थे. आलम तो यहाँ तक आ गया था की वे एक दिन में चार चार फिल्मों सूटिंग में व्यस्त थे और अपने ही बड़े भाई राजकपूर की फिल्म ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ तक के लिए समय नही निकाल पा रहे थे. यह देख राजकपूर ने इनको टैक्सी तक कहा था कि जब बुलाओ तब आ जाती है और मीटर डाउन रहता है ।इस पर मृणाल सेन ने तो यहाँ तक कह दिया था कि- ‘शशि एक फिल्म में तौलिया लपेटकर बाथरूम में प्रवेश करते हैं और दूसरी फिल्म में पेंट के बटन लगाते बाहर निकलते हैं। आखिर यह आर्टिस्ट का कैसा रूप है ?’ इसके बावजूद शशि कपूर थिएटर, कला सिनेमा और अंग्रेजी फिल्मों में एक साथ काम करने वाले अपने समय के एक मात्र अभिनेता रहे. शशि कपूर ने 7 इंग्लिश फिल्में भी की हैं जिनमें से 5 फिल्मों The Householder (1963), Shakespeare-Wallah (1965), Pretty Polly (1967), Siddhartha (1972), Heat and Dust (1983) ने विदेशों में अच्छा बिजनेस किया था. कॉनराड रूक्स की फिल्म “सिद्धार्थ” उनकी काफी विवादास्पद फिल्म रही। जिसमें वे न्यूड सिमी ग्रेवाल के सामने खड़े नजर आए थे । इस तस्वीरों को लेकर खूब बवाल मचा था । उन्होंने थिएटर से भी अपना लगाव हमेशा ही बनाये रखा. अपने पिता की मृत्यु के बाद 1978 में ‘पृथ्वी थिएटर’ नाम से फाउंडेशन की शुरुआत की. जिसे 1984 तक इनकी पत्नी जेनिफर ने संभाला. इसी साल इनकी पत्नी दुनिया से चल बसी, जिसके कारन इनको बहुत गहरा आघात लगा था और काफी दिनों तक ये डिस्टर्ब भी रहे. फिर इन्होने अपने आप को संभाला. कुणाल, करण और संजना कपूर इनके तीन संतान हैं. जिसमे से उनकी पुत्री संजना कपूर इस समय पृथ्वी थिएटर संभाल रहीं हैं. अपने सिनेमा की कमाई का सारा पैसा वे इसी में लगा देते थे. आगे चलकर अभिनय के साथ साथ इन्होनें निर्माता व निर्देशक के तौर पर भी हाथ आज़माने से पीछे नहीं रहें. शेक्सपीयरवाला नाम से होम प्रोडक्शन की शुरुआत की. जिसके बैनर तले जूनून (1978), कलयुग (1980), 36 चौरंगी लेन (1981), विजेता (1982), उत्सव (1984), अजूबा (1991) जैसी यादगार फ़िल्में बनाई. जिसमें उत्सव, मृच्छकटीका पर आधारित फिल्म थी तो जूनून रस्किन बांड की नॉवेल ‘A Flight Of Pigeons’ पर बनी फिल्म थी. यह अपने समय की नेशनल अवार्ड विन्निंग मूवी थी. वहीँ फिल्म ‘न्यू दिल्ली टाइम्स’ के लिए इन्हें बेस्ट एक्टर का नेशनल अवार्ड भी मिला था. आज शशि कपूर हमारे बीच नहीं रहे (04.12.2017) लेकिन हिंदी सिनेमा व थिएटर को साथ साथ लेकर चलने वाले संवाद अदायगी के धनी “शशि कपूर” के इस अतुलनीय योगदान के लिए उनके ही फिल्म सिलसिला के संवाद के माध्यम से यही कहा जा सकता है कि-

“वे गायब होने वालों में से नहीं हैं, जहां जहां से गुजरते है जलवे दिखाते हैं, दोस्त क्या दुश्मन भी उन्हें हमेशा याद रखेंगे.”

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