क़ानूनी तौर पर झूठ बोलने को विज्ञापन कहते हैं”- एच.जी.वेल्स

फिल्मों के बाद जिसने सपनों और इंसानी रिश्तों, जज़बातों के साथ साथ उसके भावनाओं को सबसे ज्यादा कैश कराने का काम किया है उसमें विज्ञापनों की एक बहुत बड़ी दुनिया है । जो निरंतर सुरसा के मुंह की भांति बढ़ता ही चला जा रहा है । टीवी, एफ़एम, रेडियो, और इंटरनेट के साथ साथ बड़े बड़े दुकानों और मौल के बाहर लगी विज्ञापनों के डिस्काउंट और सेल बोर्ड को देख कर न चाहते हुए भी उसके चक्रव्यूह में आय दिन में आम जन फँसता ही चला जा रहा है । जिस वस्तु की उसे आवश्यकता नहीं है उसे भी वह अनचाहे में खरीद ही लेता है । फ्रेंड्शिप डे, रोज़ डे, किस डे, फादर्र्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे, चिल्ड्रेन्स डे के साथ साथ न जाने आजकल कितने ही डे आ चुके हैं जिनको मनाने का सलीका आजकल स्टैंडर्ड लाइफ और स्टेटस सिंबल की नई परिभाषाओं को जन्म दे रहा है । इन सब के लिए गिफ्ट्स एवं कार्ड्स तो इन्हीं महंगे दुकानों के ब्राण्ड्स के ही होने चाहिए, तभी जाकर इन रिश्तों में प्यार की प्रामाणिकता आएगी जो मानों सम्बन्धों के अपनेपन होने की आईएसआई मार्का लगाती हैं । करवा चौथ और तीज जैसे पर्व त्योहार अब ग्लोबल हो गए हैं । और तो और अब तो ऑनलाइन शॉपिंग की दुनिया ने त्योहारों के साथ 15 अगस्त और 26 जनवरी को अपने व्यापार का सबसे अच्छा दिन बना लिया है । इन दिनों को तो ऐसा लगता है उन्होंने सेल डे घोषित कर रखा है । प्रेमचंद पतंजलि के अनुसार- “विज्ञापन घर में- रेडियो, दूरदर्शन, समाचार-पत्र, पत्रिका के माध्यम से, घर के बाहर- पोस्टर, दीवार पर लिखाई, बस में, रेल में, सड़क पर, बड़े-बड़े आकार के होर्डिंग, खेल के मैदान में, सिनेमा घर में, रेस्तरां में, और जहाँ भी आप जाइए विज्ञापन आपकी नज़रों के सामने हैं । आपके दिलों-दिमाग में हर वक्त छाए रहते हैं ।”1

एक दौर था जब विज्ञापनों का प्रयोग प्रायः सामाजिक हित, मान मर्यादाओं को ध्यान में रखकर किया जाता था । किन्तु बाजारीकरण के इस अंधी दौड़ में इन सारी बातों को ताक पर रखते हुए अब विज्ञापनों का मुख्य उद्देश्य केवल पैसा कमाना ही होता जा रहा है । भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण के इस युग में जहां हर तरफ विभिन्न कंपनियों में गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है, उसमें विज्ञापन एक ऐसा हथियार बनकर सामने आया है जिसकी जितनी धार होगी वह उतना ही अपना असर दिखलाएगा । इसी रेस में आगे निकलने की होड़ में अश्लीलता परोसने में लगे हुए है । विज्ञापन आज के समय में कमाई का बहुत बड़ा अड्डा भी बन चुका है । मिनटों मिनटों में आने वाले एड सेकेंडों के करोड़ो रुपए लेते है । सारा खेल अब टीआरपी का हो चला है । पहले इतना सब कुछ नहीं था, पहले के विज्ञापनों जहां ध्यान आकर्षित करते थे, हमें सूचित करते थे, वहीं आज के अधिकांश विज्ञापन ध्यान भटकाने का ही कार्य मुख्य रूप से कर रहे हैं । जींस, टीशर्ट, रेज़र, ब्लेड, अंडरवीयर, साबुन, शैंपू, परफ्यूम, आदि किसी भी वस्तु का एड हो, सबमें जो चीज कौमन नज़र आती है वह है स्त्री । विज्ञापनों कि दुनिया में जिस तरह से स्त्री के देह का प्रयोग हो रहा है उससे विज्ञापन कर्ता जरूर अपने मुनाफे को देखकर कहते होंगे कि ‘तू चीज बड़ी है मस्त मस्त’ । अनावश्यक रूप से स्त्रियों के अंग प्रदर्शन, कामुकता पूर्ण व्यवहार और सेक्सुआलिटी को बढ़ावा देकर अपने उत्पादों को प्रचारित-प्रसारित करना विज्ञापनों का पसंदीदा जरिया बनता जा रहा है । आज के दौर में विज्ञापन उस मेनका की तरह उन सभी कलाओं में निपुण है जो किसी अमीर घराने की फेमिली ही नहीं बल्कि सीधे-साधे मीडिल क्लास फेमिली की अर्थव्यसथा को भंग करने में माहिर है । इस संदर्भ में मधु अग्रवाल का कहना है – “विज्ञापन ने समाज को भौतिकवाद की ओर अग्रसर किया है । भौतिकवाद आर्थिक विकास की देन है । और इससे पूर्ण रूप से बचा नहीं जा सकता, इसके दो परिणाम होते हैं-   अच्छा व बुरा । अच्छा यह परिणाम है की गति बढ़ती है, नई-नई वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन होता है । विज्ञापन द्वारा इसकी जानकारी प्रदान की जाती है तथा इससे जीवन स्तर बढ़ता है । इसका बुरा परिणाम यह होता है कि अधिकतर विज्ञापनों से आकर्षित होकर, लोग अधिक से अधिक वस्तुओं और सेवाओं को क्रय करना चाहते हैं । इतनी क्रय शक्ति न होने के कारण मन अशांत रहता है । तथा यही प्रयास रहता है कि किसी भी तरह यह सब मिल सके । विज्ञापन द्वारा अनुचित सूचनाएँ भी दी जाती हैं तथा गलत व हानिकारक वस्तुओं व सेवाओं के प्रति भी लोगों को आकर्षित किया जाता है, अश्लील एवं विदेशी संस्कृति से प्रभावित विज्ञापनों से अपने देश की संस्कृति की धारा भी प्रभावित होती है ।”2

            हमारे देश व समाज की पारंपरिक वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, व नैतिक मूल्य आदि सब भीष्म पितामह के जैसे बाणों की शैया पर मरणासन्न होते जा रहे है । जिस प्रकार से युधिष्ठिर के मुख से ‘अस्वस्थामा मारा गया’ जैसे वक्तव्य पूरे महाभारत पर असर डाल सकता है, ठीक उसी प्रकार से बड़े बड़े स्टार्स, खिलाड़ियों, व अभिनेताओं आदि के द्वारा किए जा रहे आधे सच के विज्ञापनों का आम जनता पर कितना असर पड़ रहा है, इसे हम भली भांति देख रहे हैं । बर्गर, पिज्जा, मैगी और नूडल्स आदि विज्ञापनों के जरिये मॉडर्न और स्टेटस सिंबल का आईकन बनाया जा रहा है । लिट्टी, बाटी, चोखा आधी तो जैसे पुराने समय की बात हो गई है । अब गावों में भी महानगरीय फैशन और जीवनशैली कि चाहत बढ़ने लगी है तो भला मध्य वर्ग इससे अछूता कैसे रह सकता है । सन 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद का सबसे उल्लेखनीय पहलू है उपभोक्तावाद । पिछले लगभग दो दशकों में उत्पादों का उपभोग जरूरत से निर्देशित न होकर जीवन शैली का अंग बन गया है । गीताश्री और रमेश चाहत निर्मल जी के चाहत का समंदर, आलेख में हमें ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है । जिसमें उन्होंने लिखा है कि “अब उपभोक्तावाद धनाढय वर्ग का शक्ल नहीं रहा है । इसने मध्य और निम्न वर्ग को भी शिकंजे में ले लिया है ।अहमदाबाद का विरल पटेल रिलायंस टेली कम्युनिकेशन में काम करता है । अच्छा वेतन पता है । उसने और उसकी पत्नी अदिति ने नवरतर में नौ दिन तक गरबा खेलने के लिए नौ अलग अलग ड्रेस बनवाई । खर्च हुए डेढ़ लाख रूपए जो उसके चार साल के नौकरी कि बचत थी । लेकिन वह हंसकर कहता है, “गरबा में ही तो सबकी दिखा सकते हैं, कि हम अच्छा खाते कमाते हैं । इस बार सबकी नज़रें हम पर ही हैं । लगातार तीन दिन तक बेस्ट कास्ट्यूम का पुरस्कार लेकर हमें जो खुशी हुई, वह चार साल कि बचत को खर्च करने कि कीमत वसूल कर देता है ।”3

            सुंदर और आकर्षक बनने की चाहत ने सौंदर्य प्रसाधन समग्रियों के विज्ञापनों में तो जैसे बाढ़ सी ला दी है । महिलाओं की उम्र 30 की हो या 40 की, वह बस 16 साल की बने रहना चाहती है । वह राजेश खन्ना की उस बात को मानने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हैं जिसमें वे कहते हैं कि ‘गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर गोरा रंग तो दो दिन में झड़ जाएगा’ बल्कि उन्हें झूठा साबित करने के लिए वह किसी भी कीमत पर हर वह चीज खरीदने को तैयार हैं जो उन्हें विज्ञापनों से लगता है कि वह उत्पाद उन्हें चिर-यौवना बने रहने में उनका साथ पूरा साथ दे सकता है । इस संदर्भ में प्रभा खेतान जी का कहना है, “विज्ञापन स्त्रियों के सामने दुबलेपन के साथ चिरयौवन को भी प्रमोट कर रहा है । सौंदर्य कि पहली शर्त है- यौवन को बनाए रखना । युवतीनुमा वृद्धा के लिए जरूरी है कि वह वृद्धावस्था को पलट दे, क्योंकि डाव पार स्त्री का समूचा अस्तित्व लगा है । देह के प्रति बढ़ती हुई असुरक्षा स्त्री को मजबूर करती है कि वह रात-दिन डायटिंग, सौंदर्य-प्रसाधन और नए कपड़ो कि चिंता से ग्रस्त रहे । सामाजिक शोधकर्ताओं के अनुसार स्त्री देह कि यह चिरयौवना, तन्वी छवि को महत्त्व देने का नतीजा है कि अधिकतर लड़कियां और स्त्रियाँ अवसाद, आत्मछवि का नुकसान और अस्वस्थ होकर भोजन कि आदतों से जकड़ जाती हैं ।”4  लाख कोई कहता रहे कि ‘ना कजरे की धार, ना मोतियों की हार, ना कोई किया शृंगार, फिर भी कितनी सुंदर हो’ लेकिन आज के उपभोक्तावादी संस्कृति और विज्ञापनों से घिरी युवतियाँ व महिलाएं एक भी बात सुनने को तैयार नहीं हैं । वहीं विज्ञापनों का ही कमाल है की अब सुंदर और आकर्षक बनने की चाहत को केवल महिलाओं में ही नहीं बल्कि पुरुषों में भी ला दिया है । तभी तो बाज़ार में अब मर्दों वाली क्रीम का विज्ञापन भी बड़े ज़ोरों शोरों से दिखाया जा रहा है । अपने उत्पादों की बिक्री के विज्ञापन हेतु वस्तु निर्माता कोई भी मौका छोडना नहीं चाहते । फेयर एंड लवली की तरह फेयर एंड हैंडसम क्रीम आना इस बात को प्रमाणित कर रहा है ।

            वहीं अब विज्ञापनों के केंद्र में महिलाओं के साथ साथ बच्चे भी आ गए हैं । बच्चों और किशोर युवक युवतियों के दिलों-दिमाग पर इन विज्ञापनों के जादू का असर किस कदर सर चढ़ कर बोल रहा है उसे हम देख सकते हैं । कभी कभी बच्चे विज्ञापन से इतने अधिक प्रभावित हो जाते हैं कि उसे लेने की जिद कर बैठते हैं, जिसे उनके माता-पिता को कभी कभी उनके इच्छाओं को पूरा करना आर्थिक अभाव के कारण संभव नहीं हो पाता । इससे बच्चों में अपने माता-पिता के प्रति हीन भावना आ जाती है तो वहीं माता-पिता को भी मानसिक स्तर पर अपनी आर्थिक असंपन्नता के कारण ग्लानि का आभास होता है । ‘डर के आगे जीत है’ माउंटेन ड्व्यू और ‘आज कुछ तूफानी करते हैं’ थम्स अप जैसे कोल्ड ड्रिंक के एड को देखकर युवा स्टंटबाज़ियाँ करने लगता है, जिसमें प्रायः वह अपने जान-माल की नुकसान भी कर लेता है । विज्ञापनों का ही प्रभाव है की अब युवा “खाओ, पीयो और मौज करो” की संस्कृति को अपनाकर अत्यधिक माडर्न बनने की रेस में अपने आप को अव्वल लाने के लिए हर तरीके को आजमाने की कोशिश में लगा हुआ है । वहीं इच्छाएँ पूरी न होने पर निराशा और कुंठा का शिकार भी होता है । तभी तो सन 1800 ई. में विलियम कोबैट नामक एक समाज सुधारक ने विज्ञापन को ‘झूठ, कूड़े, और अश्लीलता का मसाला’ कहा था ।   

            जहां तक बात अच्छे विज्ञापनों की है जो देश व समाज के हित में है, वहाँ तक तो बात ठीक है । किन्तु हर सिक्के के दो पहलू होते है । जब यह बात इनके खुद के हित में ही अधिक हो तो वहाँ पर हमें जरूर सोचने की आवश्यकता है की हमने अपना आइडियल किसे बना रखा है ? अभी हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने तंबाकू और पान मसाला के विज्ञापन के लिए अभिनेता शाहरुख, अजय देवगन, मनोज वाजपेयी आदि को लीगल नोटिस भेजा है । महाराष्ट्र में गुटखा प्रतिबंधित है लेकिन फिर भी ये सभी कलाकार इसका विज्ञापन कर रहे हैं । रजनीगंधा नामक पान मसाले का विज्ञापन आता है कि- जिसके मुंह में रजनीगंधा उसके कदमों मे पूरी दुनिया । ये भ्रामक नहीं तो और क्या है ? इसी तरह से मिलते जुलते शराब के कंपनियों का विज्ञापन कर बड़े बड़े स्टार समाज को किस ओर ले जाना चाहते हैं समझ नहीं आता ? परफ्यूम और गर्भ निरोधक कंपनियों के निर्माताओं ने तो अश्लीलता कि सारी हद ही पार कर रखी है । जिसकी राह पार अब दूसरे सभी वस्तुओं के निर्माता भी निकल पड़े हैं । अमूमन अब हर वस्तु के निर्माताओं के विज्ञापन की पहली पसंद बिकनी में अर्धनग्न बालाओं की कामुकता के साथ वस्तुओं का व्यापार करना बनता जा रहा है । विज्ञापन का पूरा कारोबार ‘जो दिखता है वही बिकता है’ की तर्ज पर चल रहा है । बल्कि इससे दो कदम आगे ये कहें की विज्ञापन की मानसिकता अब ‘जो जितना दिखलाता है वो उतना बिकवाता है’ हो गई है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।  विज्ञापनों में नैतिकता शब्द तो मानों घास चरने चली गई है । इसी कारण से ही उत्तेजक दृश्‍यों के कारण कुछ विज्ञापनों को प्रतिबंधित करना पड़ा जिनमें मुख्य रूप से हैं-

  1.    ‘द वाइल्डस्टोन डियोडरेन्ट’ को भारत में इसलिए प्रतिबंधित किया गया क्योंकि इसमें साफ तौर पर एक महिला को ‘वाइल्ड स्टोन’ उपयोगकर्ता के लिए अपने कपड़ों को उतारते दिखाया गया । इस विज्ञापन में दुर्गा पूजा को दर्शाया गया है। एक पुरूष वाइल्ड स्टोन डियोंडरेंट लगाकर कमरे से निकलता है। जिसमें एक महिला टकराती है। इसके बाद दोनों को सहवास करते दिखाया गया है ।

  •   “अमूल माचो” के विज्ञापन में एक नयी दुल्हन को सेक्स का एक्सप्रेशन बनाते दिखाया गया । इसके लिए इसे सूचना प्रसारण प्रसारण मंत्रालय से इस विज्ञापन को बंद करने का नोटिस भेजा गया । 
  • कुछ इसी तरह के विज्ञापन के कारण ही  ‘लक्स कोज़ी’ और    ‘वीआईपी फ्रेंची एंड अंडरवीयर’ के विज्ञापन को प्रतिबंधित किया गया । 

इसी तरह से कुछ वस्तुएं पूरी दुनिया में बैन है किंतु  इसे हमारे देश में धड़ल्ले से बेचा जा रहा है । जिसमें  RedBull – एनर्जी ड्रिंक, कुछ दवाएं, विक्स वेपोरब और जेली कैंडी आदि शामिल हैं । sirfkhabar.com पर दिनांक 30.10.2015 को छपे खबर के मुताबिक-

  1. RedBull – एनर्जी ड्रिंक-         

सबसे विवादास्पद रसायन टॉरिन है, जिसके कारण अनेक देशों ने रेडबुल को पूरी तरह बैन किया हुआ है, लेकिन भारत में यह न सिर्फ खुलेआम बिकता है, विज्ञापन भी देता है ।

क्यों है प्रतिबंधित ?

रेडबुल में पाया जाने वाला टॉरिन खतरनाक रसायन माना जाता है। एक बॉडी बिल्डर ने एक दिन में 14 ग्राम टॉरिन ले लिया था, जिसके कारण उसका दिमाग डैमेज हो गया था। इसी तरह एक अन्य केस में चार दिन तक एनर्जी ड्रिंक पीने वाले एक युवक को इतना साइड इफेक्ट हुआ कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इसे बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों के लिए पूरी तरह असुरक्षित माना जाता है । इन सब कारणों को देखते हुए रेडबुल को रूस, फ्रांस सहित कई देशों ने पूरी तरह बैन कर रखा है ।

  • ये दवाएं हैं या जहर ?                    

भारत में दवाओं के नाम पर अनेक ऐसे साल्ट बेचे जाते हैं जो दुनियाभर में प्रतिबंधित हैं। नावलजीन (Novalgin), डी कोल्ड (D-Cold), विक्स एक्शन-500 (Vicks Action-500), बिना किसी सलाह के भारत के लोग जिसे दर्द निवारक के तौर पर खाते हैं वह निमेस्लाइड (Nimesulid), डायरिया के उपचार के लिए उपयोग में आने वाली तीन दवाएं – एंट्रोक्यूइनल, फ्यूरोक्सॉन और लोमोफेन (Enteroquinal, Furoxone and Lomofen),काफी लोकप्रिय पेनमिकलर निमुलिड और एनालजीन (Nimulid, Analgin), एसीडिटी में उपयोग होने वाली सीजा (Ciza) कब्ज के उपचार के लिए ली जाने वाली सिस्प्राइड (Syspride) आदि को दुनियाभर में प्रतिबंधित किया हुआ है, लेकिन भारत में धड़ल्ले से बेची जा रही हैं। इन सबमें ऐसे खतरनाक कैमिकल होते हैं जो आपकी एक बीमारी भले ठीक कर दें, लेकिन शरीर पर इनके साइड इफेक्ट इतने हैं कि पता चलने पर कोई भूलकर भी ये दवाएं न खाए ।

क्यों हैं प्रतिबंधित

इनमें से कुछ दवाएं सीधे लीवर, हार्ट और ब्रेन को भारी नुकसान पहुंचाने वाली हैं तो कुछ में ऐसे तत्व पाए जाते हैं कि आदमी को उनकी लत लग सकती है। निमुस्लाइड पर तो हाल ही में भारत में भी सवाल उठे थे और कम से कम बच्चों के लिए इसे पूरी तरह प्रतिबंधित करने की मांग उठी थी। इनके साइड इफैक्ट देखते हुए ही इनको अनेक देशों में पूरी तरह बैन किया हुआ है ।

  • आप भी विक्स लगाते हैं ?                        

विक्स वेपोरब – विज्ञापन के अनुसार सर्दी से तुरंत छुटकारा पाने का उपाय। भारत में मध्यम वर्ग का तो शायद ही कोई घर हो, जिसमें विक्स वेपोरब न मिलता हो। सर्दी की शुरुआत हुई नहीं कि इसकी बिक्री में भारी बढ़ोतरी हो जाती है । लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि विक्स वेपोरब को यूरोप और उत्तरी अमेरिका के कई देशों में पूरी तरह बैन किया हुआ है। दरअसल, यूरोप में विक्स वेपोरब को लेकर कई तरह के शोध हुए हैं। उनमें यह निष्कर्ष निकला कि विक्स वेपोरब में पाए जाने वाले कुछ कैमिकल सांस के साथ शरीर के अंदर जाकर भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसी कारण इसे वहां प्रतिबंधित कर दिया गया है।

  • जैली  मोटापा बढ़ाती है ?                      

जैली की बनी कैंडी भला किसे पसंद नहीं होती ? लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि जैली पर किए गए शोध में ऐसे तत्व पाए गए हैं जो मोटापे को बढ़ावा देते हैं। इसी कारण यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों के साथ–साथ अमेरिका में भी न सिर्फ जैली की कैंडी बनाना और बेचना प्रतिबंधित है, बल्कि इनको इम्पोर्ट करना भी पूरी तरह गैरकानूनी है। इसके पीछे दो कारण हैं। पहला कारण तो मोटापे को बढ़ावा देने वाले तत्वों का जैली कैंडी में होना है और दूसरा कारण है कि जैसी गले में फंसकर बच्चे का गला रोक सकती है। यदि अकेला बच्चा इसे खा रहा हो तो इसका खतरा और बढ़ जाता है। आमतौर पर यह खतरा पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए माना जाता है। लेकिन भारत में मानो ऐसी बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता ।

                        इनके अलावा भी ऐसी बहुत सी वस्तुएं हैं जिनका प्रयोग समाज के लिए घातक हैं किंतु उनका विज्ञापन निरंतर बुलेट ट्रेन की रफ्तार की तरह बढ़ता ही चला जा रहा है । भारत एक बहुत बड़ा बाज़ार है यह पूरा विश्व बड़े अच्छे जानता है । इसी बात को भुनाने के चक्कर में वह अच्छी से अच्छी वस्तुओं के साथ-साथ घटिए और बिन मांगे वस्तुओं के भी व्यापार और उसके विज्ञापन में लगा हुआ है । जो हमारे देश के स्त्री-पुरुष, बच्चों व किशोर युवक युवतियों को शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर बीमार बनाने का काम कर रही हैं । खासतौर पर ईलेक्ट्रानिक माध्यमों पर दिखलाये जाने वाले ललचाऊ और भङकाऊ विज्ञापनों ने तो जीवन जीने की शैली ही बदल दी है ।आधुनिक विज्ञापनों के जरिये मिली सीख ने समाज को भौतिकतावाद की ओर धकेला है । इन्हीं बातों को “मैकचेस्ने लिखते हैं – भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में जो विज्ञापनदाता है, वह श्रोताओं और दर्शकों को एक उपभोक्ता की तरह इस्तेमाल करता है, एक नागरिक की तरह नहीं और उसका सारा ध्यान उच्च आय वर्ग के उपभोक्ताओं को आकर्षित करने में लगा रहता है । इसमें विज्ञापनदाताओं की प्रवृत्ति यह है कि जनकल्याण, जनसेवा मूल्य समर्थित कार्यक्रमों पर इनका ज़ोर नहीं के बराबर होता है । वे कार्यक्रम को बाज़ार के दृष्टिकोण से देखते हैं । वे इस तरह के कार्यक्रमों और विज्ञापनों को प्राथमिकता देते हैं, जिसमें सेक्स और हिंसा कि भरमार होती है या इससे जुड़े हुए तर्क होते हैं जो दर्शको को आसानी से आकर्षित कर लेते हैं ।”5

            इसके लिए ‘एडवरटाइजिंग स्टैंडडर्स काउंसिल ऑफ इंडिया’ को चाहिए कि वह विज्ञापनदाताओं के लिए बनाई गई आचार संहिता के सही रूप से पालन होने की निगरानी भली भांति करें और इसके उल्लंघन करने पर उचित कार्यवाई भी करें । साथ ही विज्ञापनकर्ताओं को भी अपने सामाजिक और नैतिक दायित्व को समझना चाहिए जिससे कि उपभोक्ता के हितों की कोई अनदेखी न हो । तभी जाकर हम विज्ञापन के बारे में यह कह सकते हैं कि ‘यही है राइट चॉइस, और इफैक्ट सही कोई साइड इफैक्ट नहीं’ । और फिर ‘ये दिल मांगे मोर’ ।     

संदर्भ सूची-

  1. आधुनिक विज्ञापन- प्रेमचंद पतंजलि, पृ. 12
  2. भारतीय विज्ञापन में नैतिकता- मधु अग्रवाल, पृ. 143
  3. आऊटलुक साप्ताहिक – 16 अक्तूबर 2006, पृ. 38
  4. भूमंडलीय ब्रांड संस्कृति और राष्ट्र – प्रभा खेतान, पृ. 233
  5. विज्ञापन की दुनिया- कुमुद शर्मा, पृ. 39

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