sawan ka geet kajari

कजरी हमें भोजपुरी भाषा परम्परा से विरासत में मिली एक मधुर गीत है। यह गीत विशेष रूप से सावन महीने में गाया जाता है । सावन भी फाल्गुन की तरह उल्लास और उछाह का महीना होता है । जिस प्रकार से फाग या फगुआ या होली गाने की परंपरा फाल्गुन में मिलती है उसी तरह कजरी की सावन में । वर्षा ऋतु चरम पर होती और झूलों पर बैठ कर घर की स्त्रियां यह कजरी गीत गाया करती हैं । सावन की रिमझिम फुहारों में भीग कर झूले पर खुलकर जो कजरी की ललकार से सुनाई देती उससे अगल बगल के गांव भी झूमने लगते थे। भोजपुरी समाज का यह कंठाहार है ।

इन गीतों के विषय भी हमारे समाज और संस्कृति से ही होते हैं । मिर्जापुर, बनारस, जौनपुर, सिवान, छपरा, गया पटना समेत पूर्वांचल का क्षेत्र कजरी का क्षेत्र है । विंध्याचल देवी , बाबा विश्वनाथ , राधा – कृष्ण की कथाएं भी कजरी में गाई जाती हैं । मिर्जापुर तो इसका गढ़ माना जाता है । इसके अलावा यह महीना प्रेमी प्रेमिकाओं और पति पत्नी के लिए भी काफी उल्लास , उछाह और रोमांच का महीना होता है । प्रेम का संयोग और वियोग दोनों पक्ष मुखर रहता है फाल्गुन की तरह । इस महीने में प्रियतम से दूरी स्त्रियों के लिए अभिशाप लगता । नगमती वियोग खंड के वेदना से इस कजरी की नायिका भी गुजरती है । ननद – भौजाईयों के बीच भी खूब हसीं ठिठोली होती है । वर्षा ऋतु किसानों के लिए वरदान है । अगर पत्नी पति से जिद भी कुछ करती है तो पति इसी खेती के सहारे पूरा करने की बात करता है । कजरी में बहुतेरे विषय हमारे परिवेश से उठाए जाते हैं ।

आज अपनी तमाम विशेषताओं के बावजूद भी कजरी अपने स्वरूप को बचाने, अपने पहचान को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है । नई पीढ़ी और आधुनिकता का दबाव इस कजरी पर भारी पड़ता जा रहा है । कजरी हमारी माता, दादी, नानी की परम्परा से नीचे नहीं उतर पा रही है । नई पीढ़ी बिल्कुल इससे अनभिज्ञ है । अपनी भाषा और संगीत की इस मधुरता के स्वाद से अनभिज्ञ । कजरी परम्पराओं में हमें मिलती है । कोई लिखित साक्ष्य या इतिहास व्यवस्थित नहीं बन पाया है। नई पीढ़ी मोबाइल और इंटरनेट के अलावा और कहीं जुड़ना पसंद नहीं करती । यह गीत परम्परा संरक्षण के अभाव में धीरे धीरे समाज से विलुप्त होती जा रही है । इसके पीछे एक कारण संस्कार भी है । यह गांवों में झूलों पर बागों में गाई जाती थी । किन्तु अब गांव ही गांव न रहे तो फिर यह गीत परंपरा कहां ठहर पाएंगे । आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी पीढ़ी को अपने भाषाई संस्कार से परिचित कराएं ।

मिर्जापुर की मशहूर कजरी
हमके सावन में झुलनी गढ़ा द पिया न ||

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