जब महीने में पांचवी बार,
काव्य पाठ की नौबत आयी ,
शीघ्रता में मैने भी वही कविता,
शिर्षक बदल फिर एक बार सुनायी |
तभी, श्रोताओ के बीच से,
एक आवाज जोरदार आयी –
ओये कालिदास के नाती ,
शरम ज़रा भी नहीं आती l
हर बार कई बार बारम्बार ,
मुह उठाये चले आते हैं ,
एक ही कविता वही पुरानी कविता ,
हर बार शिर्षक बदल सुनाते हैं l
मैने कहा – क्यूँ हुजुर, क्या बात
इसमे मेरा क्या कसुर है?
कवि सम्मेलन ही अब इतने होते हैं कि
सृजन के समय कभी सोते हैं,
तो कभी आपके सामने काव्य पढते है,
संबंधी और हमारे घरवाले भी ,
तो इसी बात का रोना रोते हैं
एक ही कविता वही पुरानी कविता ,
हर बार शिर्षक बदल जो सुनते हैं |