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जन्म मरण का अब,
समीकरण बदल गया।

इंसान इंसान से दूर,
अब होता जा रहा है।
जीने की राह देखकर,
मरने की बात करने लगे।
फर्ज इंसानियत का भूलकर,
समिति अपनो तक हो गए।।

न दुआ काम आ रही है,
न प्रार्थनाएं रंग ला रही है।

पाप भरी पड़ रहे है,
पुण्यों के अनुपात में।
इसलिए सारी व्यवस्थाएं,
कर्ताधर्ता ही मिटा रहे है।
और फिर भी अपने आपको,
खुद ही मसीहा कह रहे है।।

सारी हेकड़ी एक ही,
झटके में निकल दी।

आसमान में उड़ने वाले,
अब जमी पर आ गिरे।
जो कल तक बात नही,
पूछते थे अपने से छोटा से।
आज वो ही लोग इन,
अहंकारियों के काम आ गए।।

बड़े तो बड़ो से ही,
भाग रहे है।

अपनी दोस्ती भी बस,
फोनों पर ही निभा रहे है।
सही मयानो में वो,
औपचारिकता निभा रहे है।
पर मध्यमवर्गी लोग आज भी,
अपनों का साथ निभा रहे है।।

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