राहगीर हूं,
चला जा रहा हूं।
अकेला नहीं,
है, यह एहसास दूर गहरे कहीं।

पर भीड़ का हिस्सा बन,
खो जाऊं।
ये उनको,ईमान को,
इससे इंकार भी है।

बेसबब आवारा बन फिरता नहीं,
जो गुज़रता हूं,
उन गलियों से,
तस्वीर, गहरे उतर जाती हैं,
इल्म औ तसव्वुर में वहीं।

चला था, गुमनाम राहों पर,
मामूली सा था, उनकी निगाहों में।
पर उनके अंदाज़-ए-गुफ्तगू ने,
दिल पर दस्तक दी।
इस नाचीज़ को भी,
ख़ाक से आसमां बना डाला।

जो, अकेले गुफ्तगू करना सीख गये,
परछाई के साथ जीना सीख गए।

अब तो यूं है कि,
महफ़िल में तन्हा तो नहीं,
पर, सामने होने पर भी,
पहचानना भूल गए।।

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