kaha gaya

वो मोरों का नर्तन कहाँ गया !
फूलों का उपवन कहाँ गया !
अरे कहाँ गए सब मेरे अपने ,
हम सबका आँगन कहाँ गया !
सबका ही सुख है अपना सुख,
वो जीवन का दर्शन कहाँ गया !
रिश्तों में खटास सी दिखती है,
वो निर्मल अपनापन कहाँ गया !
हर नारी में दिखती थी इक देवी,
वो मानव का चिंतन कहाँ गया !
गरिमा होती थी रिश्ते नातों की ,
वो आदर का अंकन कहाँ गया !
भोलापन कहाँ गया बचपन का ,
वो सत्पथ का चलन कहाँ गया !
कहने को समग्र विकास हो रहा,
पर विकसित तन मन कहाँ गया !
क्यों कर लूट रहे मोटे छोटों को,
वो नैसर्गिक प्रतिबंधन कहाँ गया !
सब तो पालक है ईर्ष्या के “मिश्र”
वो खुशियों का गुलशन कहाँ गया !

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