- कोई औरत जब
किसी मर्द को
सौंपती है अपना शरीर,
वो सिर्फ शरीर नहीं होता,
वो उसकी वासना भी नहीं होती,
वो प्रकृति की आदिम भूख नहीं होती
वो औरत बाजारु हो जरुरी भी नहीं
औरत तलाशती है संरक्षण,
वो चाहती है जन्मों का गठबंधन
वो तलाशती है अपनी आत्मा के
लिये
एक ठौर…
वो
तलाशती है किताबों में पढी
प्रेम
कहानियों की सच्चाई
वो
समझती है इस आखिरी
हथियार से जीत लेगी उसे…
औरत सदियों से इसी तरह से
छलती आ रही है खुद को…
पता नहीं कब तक के लिये….
- आत्मा में धँसी
व्यथा की फाँस,
कलम
की नुकीली नोक से,
खुरच
-खुरच के निकालती हूँ,
कागज़
लहूलुहान हो जाता है,
वो
मुस्कुराती है,
अपने मासूम चेहरे से,
अहसास करवट बदल
देखते हैं थकी निगाहों से,
“कविता” के जन्म की
प्रसव वेदना सही है उन्होंने…