गली-गली में घूमते…
शराफ़त का मुखौटा लगाए
कभी सहायक बनकर
कभी खास बनकर।
उठाते मजबूरी का फायदा
नौकरी, धन और प्रेम का
झांसा देकर।
नजरों में
कच्चा खा जाने की प्यास
मन में हवस का अरमान लिए
करते हैं रतिभरा आह्वान।
चेहरे पर कटीली मुस्कान
नहीं देखते
उम्र और बंधन।
हमेशा घात लगाए रहते हैं
लकड़बग्घे की तरह
शुरू कर देते हैं
जिंदे को खाना
मौका तक नहीं देते
संभलने का।
सुनसान गली में
नुक्कड़ों पर
सुबह, दोपहर और शाम
नजरें ताकती
अपना शिकार।
तुझे नहीं बहना है
भावनाओं में
अंबर के लालच में
कुंदन रजत की चमक में
आत्मघाती अंधे प्रेम-विश्वास में।
बनाए रखना है
आत्मविश्वास और
पिछवाड़े पर मारकर ठोकर
जमाने को
सिद्ध करना है कि
तुम अब अबला नहीं हो।