मेरी प्रिय अमृता आप जहाँ कहीं भी हैं , ये आपके लिये …
वो जो ऐश ट्रे में
बुझी हुई सिगरेट के साथ
रह गयी थी ललछौंह सी नन्ही सी चिंगारी
रंग -बिरंगे रंगों से रंगी कूँची में ,
छूटगया था जो धोने के बाद थोड़ा सा रंग
वो जो चूल्हे को लीपने के बाद भी ,
कोने के छेद में बची रह गयी थी ,
बीती रात की जली अँगीठी की राख
पत्तों पर सूखी हुई ओसकण की ,
थोडी सी नमी
पतझड़़ खत्म होने की आख़िरी निशानी
आँखों से ओझल होते स्टेशन पर ,
धुँधला जाती किसी प्रिय चेहरे की आख़िरी झलक
मंदिर के शंखनाद की आख़िरी ध्वनि
नमाज़ के दौरान झुके सिर की आख़िरी दुआ …
अमृता…ओ मेरी अमृता
जब भी मिलेंगे …वहीं मिलेंगे
मिलकर साँस लेगें …
वहीं…वहीं…संग…संग…साथ …साथ…