आज का दौर कुछ अलग तरह का है।
न इसमें रिश्ते और न अपनापन बचा है।
चारो तरफ शोर सरावा और दिखावा है।
होड़ लगी है सबमें हम सबसे श्रेष्ठ है।।
मैं अपने में पूर्ण नहीं हूँ ये मुझे पता है।
होड़ाहोड़ी में पढ़कर गलत कर जाता हूँ।
फिर दुख बहुत होता है पर क्या करें।
कलयुग में सबकी अपनी चिंताएं है।।
बैठ शांत भाव से जब सोचा करते थे।
तब मन में सदा अच्छे भाव आते थे।
और सभी संगठित होकर साथ रहते थे।
इसलिए समाज का बजूत होता था।
कहने करनी में कितना अंतर आया है।
कहकर मुकर जाए ये पाठ पढ़ा है।
जब भी मौका मिला ऐसे लोगों को।
तो सस्ती लोक प्रियता हासिल की है।
पर कुछ दिनोंमें इनकी लंका जली है।।