मरहूम शायर नज़ीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित यह नाटक बहुत ही सुंदर एवं सुव्यवस्थित ढंग से लिखा गया है, जिसे लिखा है वरिष्ठ रंगकर्मी एवं कवियित्री बिशना चौहान मैम ने।
एक सफल नाटक वही कहलाता है जिसे इस प्रकार से लिखा जाए जिससे उस नाटक के सारे किरदार एवं उनके संवाद दर्शकों एवं पाठकों को सहजता के साथ समझ आ सकें।
और यह नाटक इन सारे पैमानों पर खरा उतरता है। जिस तरह से बिशना मैम ने नज़ीर अकबराबादी के सम्पूर्ण जीवन को उकेरने का प्रयास किया है वह अद्धभुत है। इस तरह के नाटकों को पढ़कर या देखकर हम उन महान विभूतियों के जीवन परिचय एवं उनके किये गए कार्यो के बारे में जान पाते है जो आज हमारे बीच मौजूद नही हैं।
नज़ीर अकबराबादी का जन्म आगरा में 1740 दिल्ली में हुआ था। उन्हें नज़्म का पिता भी कहा जाता है। उनके विषय में यह कथन मशहूर है कि उन्होंने लगभग दो लाख रचनाएँ लिखी जिनमे अब 6 हजार ही उपलब्ध है। ग़ौरतलब है कि उनमें से 600 गज़लें है जो दुनियाभर में मशहूर हैं, और उनकी सबसे चर्चित व्यंग्य ग़ज़ल “बंजारानामा” है।
ऐसी अज़ीम शख्सियत के जीवन का नाट्य रूपांतरण बेहद ही रोचक है। नाटक में हमे बीच – बीच में नज़ीर साहब की शेरों शायरी भी पढ़ने को मिलती है जो इस नाटक में चार चांद लगा देती है।
जिसमें से –
” सब ठाठ पड़ा रह जावेगा , जब लाद चलेगा बंजारा”
” बाबा नजर आती है रोटियां”
” जब आदमी के हाल पर आती है मुफ़्लिसी”
आदि शामिल है जो पाठकों एवं दर्शकों के अंतर्मन के तारों को छेड़ने का कार्य करते हैं। उन्हें इन पंक्तियों के माध्यम से भावविभोर करते ही हैं, साथ ही साथ नज़ीर साहब के जादुई लेखन से हमारा तार्रुफ़ कराती हैं।
इस नाटक में हमे यह भी पता चलता है कि नज़ीर साहब ने ख्वाहिशे शोहरत या रुपयों की गठरी बाँधने के लिए कभी नही लिखा। उनका फकीराना मिजाज व्यक्तित्व था जो उनसे वो सब लिखवाता गया जो आज के परिवेश में भी आवाम की समस्याओं एवं जरूरतों से सम्बंधित है। उनके लेखन के विषय में जितना लिखा जाए उतना कम होगा। उन्होंने समाज के हर तबके के लिए लिखा, फलों, सब्जियों से लेकर मौसम आदि विषयों में लिखा।
उनकी लेखनी हमे आश्चर्यचकित करने की अपेक्षा, अपनी सरलता से अंतर्मन में लयबद्धित हो जाती हैं,
उनकी नज़्में जिजीविष एवं कौतुकता की सम्यक भाव चेतना से प्रमाणित प्रतीत होती है। और यही सारी खूबियां उनके लेखनी के इक़बाल को बुलन्द करती हुई मन को मोह लेती हैं।
दो किस्साग़ोह की मदद से लेखिका ने नाटक में जिस सहजता के साथ नज़ीर साहब के जीवन से परिचय करवाया है, वह हमें नाटक के मोह पाश में बांध कर रखता है। पाठक इस नाटक को पढ़ते वक़्त कौतूहलता के साथ नज़ीर साहब के जीवन के विषय में जानने हेतु उत्सुक बना रहता है और यह नाटक की सफ़लता को दर्शाता है।
मैं इस नाटक के सफल एवं उत्कृष्ठ लेखन हेतु , आदरणीया बिशना चौहान जी को ढेर सारी बधाई देना चाहूंगा, कि उन्होंने नज़ीर अकबराबादी जैसी रूहानी शख्सियत पर लाज़वाब नाटक लेखन किया है।
एक रंगमंच प्रेमी होने के नाते मैं चाहूंगा कि रंगमंच की संस्थाएं इस नाटक को खेलें क्योंकि इसमें वे सारे आवश्यक नाटकीय घटक मुझे मौजूद दिखे जो किसी अच्छे नाटक में होने चाहिए।
हालाँकि यह नाटक बहुत बड़ा नही है परंतु इसका मंचन शानदार तरीके से यदि होता है तो यह नज़ीर साहब की शान में और रौनक भर देगा।
बिसना मैम ने अपने नाटक के माध्यम से नज़ीर अकबराबादी साहब को सच्ची श्रद्धांजलि पेश की उसके लिए हम सभी उनके आभारी हैं।
अंत में बंजारानामा की कुछ पंक्तियां से अपनी बात को विराम देना चाहूंगा।
“यह धूम-धड़क्का साथ लिए क्यों फिरता है जंगल-जंगल?
इक तिनका साथ न जावेगा, मौकू़फ़ हुआ जब अन्न और ज़ल।
घर बार अटारी, चौपारी, क्या ख़ासा, तनसुख और मलमल।
क्या चिलमन, पर्दे, फ़र्श नये, क्या लाल पलंग और रंग-महल।
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥””
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