book need kuy raat bhar nahi aati

उपन्यास का शीर्षक नींद क्यों रात भर नही आती, ग़ालिब की रचना “कोई उम्मीद बर नही आती, कोई सूरत नज़र नही आती, मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नही आती” से उद्धृत है।

‌यह उपन्यास इंसान की ऐसी मानसिक अवस्था के बारे में लिखा गया है जिसमे उसे रात भर नींद नही आती है। दैनिक चर्या में बदलाव भी इसकी एक बड़ी वजह है। आज की इस आपाधापी से भरी दुनिया में कई ऐसे कारण मिल जाते है जिनसे इंसान की नींद गायब हो जाती है। और कई ऐसी परेशानियां होती है जिनसे नींद के साथ साथ भूख एवं प्यास भी गायब हो जाती है।

इन्ही सब उहापोह की स्थितियों को स्पष्ट करता यह उपन्यास है। उपन्यास वास्तविक सामाजिक जीवन के तारतम्य को उल्लेखित करता है। यह उपन्यास इसलिए भी ख़ास है क्योंकि इसमें आधुनिक जीवन में मनुष्य की मनोदशा को बड़ी ही बारीकी से सन्दर्भित किया गया है। कला पक्ष की बात की जाय तो श्री सूर्यनाथ सिंह जी आधुनिक युग के श्रेष्ठ रचनाकार है उनका लेखन सरल एवं सहज है। उन्होंने हिंदी के अधिक क्लिष्ट शब्दो से परहेज करते हुए सामान्य भाषा में अपनी कहानियो को पिरोया है।

उनकी रचना को सामान्य पाठक अपने स्वविवेक से पढ़ कर आसानी से समझ सकता है। उसके लिए यदि कोई साहित्यकार यह कहे की उपन्यास के उचित मानकों पर यह खरी नही उतरती , या यह विशुद्ध उपन्यास नही कहा जा सकता तो इसपर भी कोई आपत्ति नही है। परन्तु अपने विचारों एवं अनुभवों को किस तरह व्यक्त किया जाता है यह आसानी से समझ आता है, इसके लिए लेखक बधाई के पात्र है।

जीवन के आयामो को सारगर्भित रूप से पिरोया गया है वह वाकई अद्भुत है। उपन्यास पढ़ते समय पाठक कई बार यह महसूस करता है कि अधिकांश घटनाओ का वह स्वयं साक्षी रहा है या रह चुका होगा। उसे सारे किरदार आसपास के लोगो में ही मिल जाते है। कहानी का अंत नही है किताब खत्म होने के बाद अपना प्रभाव छोड़ जाती है एवं पाठक लंबे समय तक पुस्तक से जुड़ा रहता है। यह किसी भी लेखक के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है एवं इस उपन्यास में यह बात अक्षरसः सत्य प्रतीत होती है।

दरअसल किसी इंसान की कहानी जैसी दिखती है अंदर से भी वो वैसी हो यह आवश्यक नही है मान्धाता बाबू के विषय में यह समझने को मिल जाता है, की वे एक सम्पन्न गृहस्थ व्यक्तित्व है जिन्होंने रेलवे की नौकरी की है जो दिन में शयन करते है एवं रात्रि में नौकरी बजाते है । बाहरी तरफ से इंसान जितना सम्पन्न और सम्भ्रान्त होने का दिखावा करता है अंदर से वह उतना ही अधिक ध्वस्त होता है। हमे उपन्यास में कई मर्तबा कई ऐसे किरदार जैसे कुंदन मिस्त्री, बालेश्वर प्रसाद, रामाधार इत्यादि लोग मिल जाते है जिन्हें पढ़ कर लगता है कि यह हमारे ही आस पास के वे लोग है जिनसे जीवन का ताना बाना जुड़ा हुआ है।

लेखक ने यह संयोजन काफी सुंदर ढंग से किया है उसके लिए वे बधाई के पात्र है। उपन्यास पढ़ते वक्त यह विचारो की श्रृंखला को आप ही जोड़ती है एवं अनेक मनोवैज्ञानिक तथ्यों को स्पष्ट करती है। कुंदन मिस्त्री की चतुर्थ कहानी को सुनकर मान्धाता बाबू को नींद अवश्य आती है जिसके साथ उपन्यास समाप्त भी होता है परन्तु पाठक अपने जेहन में कई सारे सवालों एवं उनके जवाबो को खोजने की प्रक्रिया में जुट जाता है। इस अप्रतिम रचना के लिए श्री सूर्यनाथ सिंह जी बधाई के पात्र है। उम्मीद है वे जल्द ही अपनी किसी अन्य रचना के साथ पुनः पाठको को भावविभोर करेंगे।

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