संघर्ष
दहशत से भरी दुनियाँ
अजनबी से लोग,
बिन पहचाने से रास्ते
रसूखदारों की अपनी ही बातें नवाबी
कारण कार्य बिना नाम पहचान नहीं
व्यस्तता का एक राग अलाप
न जाने इंसान गढ़ा था खुदा ने
बन गए यहां सभी बस
चंद गवाहों के से बुत
सबके ग़म हैं
आँखें बड़ी काली सी नम हैं
आवाज़ों में दम है
अपना ग़म ज़रा कुछ कम है
रिश्ता रिश्ते सगे संबंधी
बातें बड़ी हैं
जन्म एकाकी
संघर्षों के पथ अनुगामी
इतनी चुप्पी मौन संवाद
बातें बचपन नव जीवन की
अनुभवों की अपनी थाती
खट्टी मीठी यादें कभी
कभी कोई झंझावतें
कहानी सुनने को तरसती
अनुभवों से निखरने की हठ थी
अंतर्मन
गुरुर में है सारा ज़हां
कोई रंग ए नूर
कोई महल औ ख़्वाब
कोई जहां के मालिक सा खुमार में है
कोई अमर है इस गुनाह में भी है
कोई तख़्त औ ताज के नशे में चूर
कोई मुट्ठी भर दाने को मजूरी में मस्त
न जाने क्या क्या है घमंड
मंदिर के बाहर भीतर सुकून नहीं
मस्ज़िद में अल्लाह का खौफ़ नहीं
गुरुद्वारे में गुरु की सोहबत नहीं
मिशनरियों में अब सेवा भाव भी नहीं
कुछ भी नहीं
सन्नाटा सा भीतर औ बाहर
जगह – जगह पसरा सा जंगल
इमान और एहसान सब बातें पुरानी सी हैं
न पहले ज़िंदगी सतरंगी थी
न कल सतरंगी सी होंगी
बातें वहीं दिखावे वाली
केसरिया जितना त्याग बताए
लुटे उतनी ही मन हर्षाये
सफेदी का बाना
मध्य लहराए
पर कोई न सीधे सीधे अपनाए
शांति इतनी भी सुहाती किसे
मौत हो सामने तो
ज़िंदगी इठलाती नहीं
हरियाली खिल कर प्रकृति लहलहाती भी हो गर
सुकून कहां
बचपन के संगी साथी,
वो मस्ती वो हंसी ठिठोली
वो खेल खेल में सब भूल मस्ती में चूर
आपस में पीठ पे हौले से धम्म लगाना
या धीरे से पैर अड़ा कर गिरने पर हंसते हुए फ़िर सहारा बन जाना
छोटी छोटी चीजों पर
घण्टों हंसना बतकहिया की आदत
हर त्यौहार हर उत्सव में अलग सी धूम
धीरे धीरे अनुभव की थाती
नित नूतन विस्तार को पाती
श्मशान औ घाटों की सच्चाई
मुर्दों औ ज़िंदा होने की सच्चाई
नदी, हवा, अग्नि, मिट्टी, पंचभूतों से निर्मिति सबकी
जिससे बनते बुनते
अंत उसी में एक एक कर होते
आमद किसके कितनी झोली में है
गिन कर देखा जब किसी ने
आँखें गहरी औ मौन चुप्पी थी
गहरे कोने अंतर्मन में
बनारस की होली
कुछ भी नहीं बदला
न लोग, न लोगों का जुनून
सबकी मस्ती,
अज़ीब सी है हस्ती
कोई डर नहीं
बेफिक्रे से हैं
जीवन जगत की
जय पराजय के बीच
अपनी ही सी जगह बनाते
हंसते ठठाका ज़ोर से लगाते
अपनी ही धुन में मगन
कहीं गुलाल, कहीं भंग औ
बच्चों के कहीं पटाख़े
बारी बारी से सबके अपने शौक़
रंग निराले उड़नखटोले संग
सुर सरगम की अपनी ही धुन
धुन की धूनी रमाकर
संगी साथी बीच बजाता कोई बांसुरी
कभी कभी काशी की ठाठ
गलियों की गाली संग संगत बैठकी
ठंडई, नाना विध पकवान
आपस का मेल मिलाप औ सद्व्यवहार
झाड़ झंखाड़ उपले का बेड़ा
उठती लपटें अग्नि का घेरा
मांगे सब सब सबकी अपनी भी ख़ैर
लाल ग़ुलाबी हरे पीले नीले काले बैजनी सफ़ेद
रंगरेज ने रंग दिया अभूत
ना चिंता भविष्य वर्तमान की
न सताए कोई भी भूत
बाबा की नगरी
ठाठ वैरागी
अक्खड़ता निडरता विस्मृत करती
नाना विध रूप अनेक
कहीं खबरों में शोक संदेश
कहीं लगा है रोक टोक
कोई फ़र्क पड़ता नहीं
नगर विशेष को कौन पछाड़े
खौफ़
ज़िंदगी में कदम दर कदम
इम्तिहान कई हैं
प्रश्नों की बौछार भी
हर बार नई हैं
देने की न भी हो आरज़ू
तब भी खाली पर्चा भी दे आओ
ऐसे कई सवाल हल देखे हैं
कमबख्त क़िस्मत भी
अज़ीब है
बिन पड़ाव से गुज़रे
थमती भी नहीं ज़िंदगी
रुकना गंवारा भी नहीं
ज़मीर को मंजूर
हासिल क्या ये गणित अभी बाक़ी है
क़िस्मत की निगेबानी है
अंत न बन जाये
यूं ही, ये अब
खौफ़ की निशानी है