prakriti

द्वितीय रूप तो अति कोमल, मधुर, स्वभाव है !!
राम, कृष्ण, गौतम, तुलसी हो,
हो कबीर की नाना चौकी !
नारी ने वो पाठ – पढ़ाया,
जिसे आज तक किसी ने न भुला पाया !!
ऐसी बेटी को प्रणाम है,
धन्य – धन्य हे बेटी तू महान है !!
शिव – शक्ति की लड़ाई में,
शिव हारे है शक्ति सत्वमसि बन विजेता कहलाई है !!
आदियोगी, विश्वधरा के अर्धनारीश्वर उपमा सुशोभित,
कर्मकांडी, वेदपाठी, ज्योतिष हों ! भावना हो या आराधना,
कमी नहीं होती है कभी भी साधना !!
दया, क्षमा हो या कृपणता,
बात वही है श्रधा, इड़ा या ज्ञान – विज्ञान की !!
औरत वह नहीं जो झुक जाए,
हार मान, यूँ थक जाए !!
मर – मर कर,
मरे मारे और विध्वंश कराए !!
विद्या – अविद्या परालोक में,
तोड़ती है जड़ता !!
जड़ता परिवर्तित होती है,
सुप्त चेतना में !
ज्यों प्रकृति के जागते ऊषाकाल में,
गौरैया गाती मंगल गीत परभाती !!
धन – धान्य, मान – सम्मान, यश – गौरव की,
लक्ष्मी जब बरसाती है, अपनी कृपा !!
फ़िर अपना धर्म निभा,
अन्य को भी न्याय का पाठ पढ़ाने !!
उल्लू की कर सवारी उड़ जाती है,
घर, दर – बदल किसी और के !!
दिन, रात, चौबीस घंटे,
मध्याह्न हो या शाम – परभाती !!
जनमानस के समूह में मंदिर – घर में,
हो सांध्य – बेला में कोई आरती !!
जगती – जागती है,
निशा की निंदियारी में !!
जाग – जाग कर संपूर्ण धरा को,
नवजागरण का पाठ पढ़ाती !!
शांत – चित्त बनी रहे आत्मा,
बेचैन हो मन की बेचैनी ने,
खो न दिया रात को !!
कैसे प्रज्ज्वलित हो सकती है, विद्या की क्रांति ?
न्यून से न्यूनतम,
शून्य से अधिकतम !!
सुखी, शांति, समधर्म – भाव कांति,
भूत, भविष्य है जरुरत वर्तमान की !!
ऊषा काल की बेला में ही,
ज्योति किरण बन विश्व खिलाती !!
निंदिया में जब चैन खो दिया,
फ़िर सपन का कोई स्थान नहीं !
शुभ प्रभात की बेला में स्वप्न – जागरण,
कर देती है आह्वान !
करो पूरा, साथ तुम्हारे है जग सारा !!
गीता, पूजा, श्रद्धा, शांति हो,
या हो वन्दना, रंजना या अन्नपूर्णा !!
अमूल्य निधि है ब्रह्मांड की,
सत्य ही प्रेरणा है, इस संसार की !!
प्रेम, स्नेह, सद्भाव और कामना,
जग को मानवता का पाठ पढ़ाये !!
जीवन के अविराम – संघर्ष में,
जब होता है मन एकाकी !
तब विजया, दंभ औ हुंकार कर,
रणचंडी मां काली की बन !
विजय दिलाती है शूरवीरों को,
लहू – लहू को पुकारता !
भारत का गौरव यश गाता !!
कहाँ थकी है, कहाँ रुकी है ?
कहाँ सोई है, कहाँ रोई है ?
भारत की जननी,
मातु – पिता, पुत्र और पुत्री !
सूत – श्याम औ श्यामा मन की !!
मान भारती को कोटिशः प्रणाम है,
जिसने ऐसे लाल जने हैं !
लालिमा बन संपूर्ण विश्व को,
विश्व – बंधुत्व का पाठ पढ़ाते !
संवेदनाओं के सूनेपन से,
अपनेपन के राग – द्वेष में !!
प्रेम – सौहार्द्य की ऐसी छाया कर,
नारी कभी माँ, बेटी, बहन रूप में !
सखा, सहेली किसी पहेली की तरह,
नायिकाओं की असंख्य कीर्ति – रश्मियाँ बनकर !!
भारत की उज्ज्वला का नारा बुलंद कर,
अखिल विश्व को आदर्श भूमि का पाठ पढ़ाता !!
ऐसी भू – भूमि, धरा, नभ, आकाश,
नमी, वायु, चराचर जगत को,
इस अकिंचन का पद्मशः प्रणाम है !!
जब कोई तुमको ललकारे बुढा कहकर,
रे मन समझना,
तुझमें उसने,
अपने को देखा – आँका है, छाया रूप में !
खींची है वह रेखा,
जिसमें इक दिन उसका प्रवेश्य है !!
जननी, सुत, सुता का एक धर्म है,
जब कभी नराधम करे, अपमान !!
क्षमा प्रदान है, यही बहुमुखी विकास,
नारी का अंतर्मन है !!
बाह्यरूप प्रकृति का कठोर रूप है,
किंतु,

या कोई भी ज्ञानी – विज्ञानी,
हर समस्या का समाधान !
स्वयं प्रकृति ने कर दिया निदान !!
हे, प्रकृति ! तू धन्य – धन्य है,
दे हमको यह वरदान !
जब – जब आये समस्या या,
चुनौतियां किसी तरह की,
तू इतना संबल, साहस, शक्ति,
ऊर्जा का करना संचार !
भारत ही भारतवर्ष का जय-जय कार रहे !!

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