‘महुआ’ शब्द में ही मिठास है।इस विषय पर सोचने और लिखने से आँखों में खुदबखुद चमक आ जाती है।यह शब्द हमारे इतिहास,संस्कृति और हमारी परंपराओं से जुड़ा हुआ है।वैदिक काल से लेकर अभी तक महुआ के फूल,फल और पेड़ की लोकप्रियता की गूंज चारों तरफ सुनाई पड़ती है।’महुआ’ जिसे संस्कृत ग्रन्थों में महाद्रुम, मधुष्ठील, मधुपुष्प, मध्वग, तीक्ष्णसार आदि नाम दिया गया है।
प्राचीन किवदंतियों के अनुसार इसकी उत्पत्ति का संबंध देवासुर युद्ध से जोड़ा गया है।जिसके अनुसार समुद्रमंथन के उपरांत इस बहुमूल्य वृक्ष संसार में आया।जिसे कल्पवृक्ष के नाम से भी जाना जाता है।इसके फल और फूल ही नहीं बल्कि तना, छाल, जड़, बीज, तेल, अर्क, पत्ते आदि सभी हमारे लिए उपयोगी है।इस वृक्ष की लकड़ी अत्यंत मजबूत एवं चिरस्थाई होती है. अधिक समय तक टिकाऊ होने के कारण महुआ वृक्ष की लकड़ियों का इमारती लकड़ी के रूप में प्रयोग किया जाता है जो सर्वसुलभ और सस्ती इमारती लकड़ियों में एक है।
वनवासी संस्कृति में महुआ का पेड़ बहुपयोगी है।इसके दातुन से दाँत में विकार नहीं होता है और वह मजबूत और चमकदार बनता है।विवाह के मांगलिक उत्सव में मड़वा गाड़ने के लिए इसकी लकड़ी का परंपरागत महत्व है।इनके फूलों को सीधे भी खा सकते हैं।इसके फल को ‘डोरी’ कहा जाता है।जिससे बहुमूल्य तेल बनायी जाती है। साबुन और दवाई बनाने के लिए इस पेड़ की छाल,अर्क और बीज का प्रयोग किया जाता है।इसके फूल से विभिन्न प्रकार की ग्रामीण मिठाई भी बनायी जाती है।जिसमें लड्डू,पुआ,रोटी,हलवा जैसी लंबी श्रृंखला है।
ग्रामीण जन और वनवासियों के लिए यह वृक्ष वरदान से कम नहीं है।अप्रैल के महीने में यह वृक्ष दिल खोलकर अपने फूलों से अपनी छाँह में टपकाता रहता है।इसके फूल को सुखाकर लंबे समय तक संग्रहित किया जा सकता है।बाजार में यह ऊँचे मूल्य पर बिकता है।उसमें जड़ी-बूटी के समन्वय से देशी शराब बनायी जाती है।आदिवासी अंचल मे जिसकी बहुत मांग रहती है।’हर्बल मदिरा’ के नाम से यह उच्च और धनाढ्य वर्ग के लोगों में भी यह बहुत लोकप्रिय है।
महुआ की उपयोगिता,सौंदर्य और उसकी लोकप्रियता के पश्चात यह पता चलता है कि हिन्दीभाषी समाज और साहित्य में ‘महुआ’ को जो प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए।उम्मीद के अनुसार वह नहीं मिल पायी है।हमारे साहित्य में अधिकांश साहित्यिक विधाओं में यह सिर्फ नायिकाओं का लोकप्रिय नाम रहा है।’महुआ’ हो या ‘महुआ घटवारिन’ हिन्दी साहित्य की विभिन्न लोकप्रिय कथा साहित्य में यह नाम हमें गुदगुदाता रहा है।किंतु लोकसाहित्य ( लोकगीत,लोकनृत्य और लोकनाट्य आदि मे) इस नाम की प्रतिष्ठा शुरु से बरकरार है।
उत्तर भारत के विभिन्न अंचलों म़े महुआ पर विभिन्न लोकगीत प्रचलित हैं।चाहे मिथिला हो या भोजपुरी अंचल,बघेली हो या बुंदेली…सभी जगह में इसको केन्द्र में रखकर ढ़ेर सारे गीत रचे गए हैं।छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासी अंचल जिसमें झारखंड और छत्तीसगढ़ के विभिन्न हिस्से सम्मिलित है,वहाँ तो इस पर अनगिनत लोकगीत उपलब्ध हैं।
महुआ झरे,महुआ टपके,महुआ बिनने,कोचाई गइले आदि पर अनेक लोकप्रिय लोकगीत प्रचलित हैं।जैसे – “अमुआ मंजरी गेल महुआ मजरल गे सजनी, परि गेल चन्नन के ढार…(मैथिली)”, “महुआ झरे रे,महुआ झरे….(छत्तीसगढ़ी)”,मोर महुआ ला बिने जोड़ीदार…(छोटा नागपुरी)'”अमवा महुअवा के झूमे डरिया,तनी ताका न बलमुआ हमार ओरिया ..(भोजपुरी)”, “महुआ बिनन हम न जाइब ए रामा,देवर के संग में….”,”महुआ चुवेला रसदरवा ए बालम……(मगही)” जैसे प्रचलित लोकगीतों को सुनकर हम उस प्राकृतिक परिवेश में खो जाते हैं।जहाँ हम जैसे बहुत सारे लोगों को महुए पेड़ के नीचे महुआ बिनने की अपनी बहुमूल्य स्मृति जुड़ी हुयी है।
स्थानीयता के संदर्भ में देखें तो महुआ एक लोकप्रिय नाम है।इस नाम का एक विधानसभा क्षेत्र भी है।झारखंड में ‘महुआडांड’ एक जाना पहचाना कस्बा है।प्रत्येक आदिवासी अंचल में आपको ‘महुआ पारा ‘और ‘महुआबारी’ नाम की जगह दिखलाई पड़ती है।नायिकाओं के नाम में भी ‘महुआ’ एक लोकप्रिय नाम है।रेणु जी के कथा साहित्य की नायिका ‘महुआ घटवारिन’ को कौन भूल सकता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि महुआ का वृक्ष,फूल और फल हमारी आदिम संस्कृति की पहचान रही है।हमारे दैनिक जीवन में इसका विशेष महत्व है।पौष्टिकता से भरपूर यह हमारे स्वादिष्ट व्यंजनों की शान रही है।हमारी कला,संस्कृति ही नहीं बल्कि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी इसकी बहुमूल्य उपयोगिता है।