moon night

चाह नहीं, गुरु द्रोण सा बनकर,
खातिर अर्जुन, एकलव्य मिटाऊँ।
इतनी सी बस, चाह जरूर कि,
बन चाणक्य, कई चन्द्र खिलाऊँ।।

चाह नहीं, वो देवों की सी,
सुबह शाम पूजा जाऊँ।
इतनी सी बस, चाह जरूर कि,
मानव का मैं, सम्मान पाऊँ।।

चाह नहीं कि, ध्रुव, प्रह्लाद सा,
बनूँ भक्त भगवान रिझाऊँ।
इतनी सी बस, चाह जरूर कि,
सृष्टा का मैं, कृतज्ञ बन जऊँ।।

चाह नहीं कि, देशभक्ति का,
मैं भी कोई इतिहास रचाऊँ ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि,
भारत माँ का मैं, लाल कहाऊं ।।

चाह नहीं , शक्तिपुंज सा बनकर ,
सर्वशक्तिमान, मैं ही बन जाऊं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि,
निर्बल तो मैं न, कभी कहलाऊँ ।।

श्रेष्ठ बनु इस जग में सबसे ,
चाहत कैसे रख सकता हूँ ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
स्वलक्ष्य सभी को पाऊँ मैं ।।

चाह नहीं , वटवृक्ष सा बनके ,
छत्र-छाया सब पर फैलाऊं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
तृण बन,
सीता स्वाभिमान बचाऊँ ।।

चाह नहीं , पिता दशरथ बनकर,
पुत्र वियोग में, प्राण गवाऊं।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
बबूल नहीं ,कुछ आम लगाऊं ।।

चाह नहीं , इतनी सारी कि
‘रमा’ मेरी दीवानी बने ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
‘लक्ष्मी’ को मैं शीश नवाऊँ।।

चाह नहीं , सम्मान पन्नो के,
बोझ तले मैं दब जाऊं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि,
शब्द-स्वरों से,सुर-साज सजाऊँ ।।

चाह नहीं , कि दान-धर्म से ,
बन सर्वदाता, मैं नाम कमाऊं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि,
जरूरत मन्दो के काम मैं आऊँ ।।

चाह नहीं , वृहद बनूं सागर सा ,
विस्तार पे अपने ही इतराऊँ ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
जल बन सबकी प्यास बुझाऊं।।

चाह नहीं , इतनी मेरी कि,
बनूं सूरज ,नभ जगमगाऊँ ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि,
‘ दीप ‘ सा घर में तम को मिटाऊँ।।

चाह नहीं , अधिकार होड़ में,
हो विजित ,अधिकारी बनूँ मैं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
सेवाधर्म तो, सभी निभाऊं मैं ।।

चाह नहीं ,गाँधी ,हरीश सी ,
सत्य-उज्ज्वल मशाल जलाऊं ।
इतनी सी बस, चाह जरूर कि,
सत्य-शिव,और सुंदर बनाऊं ।।

चाह नहीं , आदर्श राम सा ,
बन सपूत मैं नाम कमाऊं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
जग में कभी न कपूत कहाऊं ।।

चाह नहीँ , इतनी भारी कि ,
भाग्य मेरा ‘दिनकर’ सा चमके।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
नसीब मेरा जुगनू बन दमके ।।

चाह नहीं , अमृत पीकर के ,
अमर पद को प्राप्त करूँ मैं ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
इंसांधर्म पालन करते मरूँ मैं ।।

चाह नहीं , स्वर्ग मिले मुझे भी ,
जीवन अंत होने के बाद ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि,
मानुष जन्म पुनः पाऊँ मैं ।।

चाह नहीं इतनी , मेरा भी ,
कलम-इतिहास में नाम बने ।
इतनी सी बस,चाह जरूर कि ,
‘अजस्र ‘ जीवन कलम चलाऊं मैं ।।

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