kanaha

ककोड़े दो सौ के पाव हो गए,
नहीं जिनका कोई भाव ।

कान्हा हमरे अब तो जन्म ले,
रख हमसे जरा लगाव ।

‘ अजस्र ‘ आस्था क्योंकर बिकती,
तुच्छ स्वार्थों मोल ।

ईद, दिवाली, क्रिसमस और बैसाखी,
ऐसा कौन सुभाव …??

दो-दो जलवा पुजा लिए,
देखो वो मन कूत।
(मन कूत – कान्हा)

जंत्री, ज्योतिष, असमंजस,
क्या करें अवधूत ।

कान्हा अब तो तू ही बता दे,
मन तेरे क्या आए ..?

चंद्रयान तो पहुंच गया अब,
‘अजस्र -चंद्रमा’ दूत ।

कांधे ऊपर बैठ वो लल्ला,
मंद ही मंद मुस्काय रह्यो है ।

सज-धज अर पालकी में बैठ्यो,
घर- घर के जन को लुभाई रह्यो है ।

‘अजस्र’ लाड़ले की शोभा निराली,
नैन हटाए, हट नहीं रहे अब ।

ढोल-नगाड़े विशाल जनसमुह,
“जयहो नंदलाला की” बुलाय रह्यो है

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