जंतुओं से इतना डर
नहीं होता इस दुनिया में
जितना उन मनुष्यों से और
अपनों से होता है,
जो पीछे से, चुपके से
मीठी – मीठी बातों से,
चोट दिल को आसानी से देते हैं,
कठिन है अपनों से लड़ना
दिमाग का खेल रचना
मुश्किल है उनको पहचानना
जो प्रेम का दिखावटी करते हैं
बड़ी चालाकी से अपने संग के
खुसर-पुसर करते हैं अगल-बगल में
बातों को छिपाते रहते हैं,
जो बातों को बनाना जानते हैं वे
अधिकार लेते हैं दूसरों पर
जो अपना रंग बदलना जानते हैं वे
दूसरों पर रंग आसानी से डालते हैं
जाति, धर्म, वर्ण, वर्ग, प्रांत, भाषा
जैसा रंग चाहें वैसा रंग
जरूरत पड़ने पर दिखाते रहते हैं
अमित इच्छाएँ, अतृप्त वासनाएँ
भटकाती हैं मनुष्य को सरलता से,
सुख भोग की चिंता में अपने भाव
संकुचित हो जाती हैं, सुध नहीं होती
बंद होती है अपनी अंतरंग की यात्रा
बदल जाती हैं मनुष्य की चेष्टाएँ
यह मन की एक अवस्था है
जिस विचार को वह पकड़ता है
उसी को सच मानकर चलता है
मानता या सुनता नहीं दूसरे के विचार
तैयार होते हैं नुकसान पहुँचाने का
परिवर्तन को वह स्वीकार करता ही नहीं
जिसे परंपरागत मान्यताएँ सिरमौर होती हैं।