कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं है, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती हैं तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक झलका (छाला) बनकर फूटती हैं। और इस छलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूँ। इसलिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता…

साभार : सरोकारनामा

कथा लखनऊ

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