kahni magru ki dadi

मंगरू की दादी आँगन में खाट पर पड़ी रहती है। किसी का हृदय पसीजा तो खाना खाने के वास्ते बुलाते हैं। वरना, दादी खुद खाना खाने के वक्त थाली लेकर चली जाती है। वह भी एक बार सुबह और रात को मिलता है। दादी के चार बेटा और दो बेटी हैं। बेटा-बेटी की शादी करा चुकी हैं। एक दर्जन से अधिक पोता-पोती हैं। पर मंगरू और सोनिया के अलावे दादी की चिंता किसी को नहीं है। मंगरू मँझला बेटा का इकलौता पुत्र है। जो शहर में काम करता है। वह जब भी आता है। दादी के लिए कुछ न कुछ लेकर ही आता है। जब तक घर में रहता है। तब तक दादी को खाना और स्नान करने की चिंता नहीं रहती है। पर मंगरू के जाने के बाद तीन-चार दिनों में स्नान करती। थाली खुद जैसे-तैसे धो लेती।

दादी के पति जीवित थे। तब दोनों अलग खाना बनाकर खाते थे। उनके निधन के बाद भी अलग ही खाना बनाकर खाती थी। राशन और कपड़ा-लता के वास्ते दूसरे किसानों के खेत में मजदूरी करने जाती थी। पर दो वर्ष पूर्व बीमार हुई थी। मरते-मरते बची है। वह भी दादी मजदूरी करके दस-बारह हजार रुपये इकट्ठा की थी। जिस पैसा से इलाज कराया गया था। वरना, मरना निश्चित था। तब से बड़ा बेटा को छोड़कर बाकी तीनों बेटा की ओर दो-दो माह करके खाती है। उसके बाद से महीना-पन्द्रह दिन में बीमार पड़ जाती है। पति का निधन हुआ, पन्द्रह वर्ष गुजर गया। किंतु आज तक दादी को विधवा पेंशन मिला, न वृद्धा पेंशन ही।

जब दादी भूख से तड़पती है। तब ईश्वर को कोसती हुई विनती करती है, ‘‘हे भगवान! मुझे आपके पास बुला लीजिए। मेरे जीवन में और कितना कष्ट लिखा है। हे प्रभु! मैं, आपको हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। मुझे आपकी शरण में ले लीजिए…।’’

कभी-कभी अपने पतिदेव को भी कोसती है, ‘‘आप अकेले मुझे इस नरक में छोड़कर चले गये। मुझे भी अपने साथ ही लेकर क्यों नहीं गये? मैं और जीना नहीं चाहती हूँ। मुझे भी आपके पास बुला लीजिए।’’ बोलती रोने लगती।

दादी की दोनों बेटी अपने काम के सिलसिले पर आती हैं। बड़ी बेटी समोसा और छोटी बेटी जलेबी अपनी माँ के लिए अलग से ला दी हैं। आज पहली बार है, जो दादी के वास्ते दोनों बेटी अलग से खाना लायी हैं। शायद, आज सुबह सूरज पूरब की जगह पश्चिम से उगा होगा। जब दोनों बहन पहुँची। तब आँगन में बैठी दादी पेट को मल रही है। शायद भूख से पेट दर्द दे रहा हो। क्योंकि सुबह भात खायी है। फिर इतना बड़ा दिन। दादी के अलावे घर में और कोई नहीं है। सभी के दरवाजा पर ताला लटका हुआ है। दादी से पूछने पर पता चला। सभी खेत चले गये हैं। दोनों बहन दादी को समोसा और जलेबी थमा कर खेत चली जाती हैं। दादी भूख से तड़प रही है। समोसा और जलेबी के मिलते ही एक माह से भूखा शेर की भाँति खाने लगी। जब घर में मंगरू रहता है। तभी दादी भूखा नहीं रहती है। वरना, प्रतिदिन का यही हाल है।

रात को मंगरू की माँ मछली भात बनायी। दादी को भी मछली भात खाने को दिया जाता है। दादी अपनी कोठरी में बैठकर खुशी-खुशी खायी। उनकी दोनों बेटी पहले ही खाना खाकर कूलर की हवा में सो रही हैं। माँ खाना खायी या नहीं ये भी जानने की कोशिश नहीं की। दादी पंखा के बिना कोठरी में छटपट-छटपट करती है। कभी आँगन में निकलकर बैठती। मच्छर काटने पर अंदर चली जाती। खाट में लेटकर साड़ी की आँचल को हिलाती। इसी तरह आधी रात गुजर गयी। दो बजे के आस-पास पहले उल्टी हुआ। फिर दो-तीन मिनट के बाद दस्त होने लगा। सभी को नाम पुकार-पुकार कर बारी-बारी से बुलाती रही। लेकिन कोई बाहर नहीं निकला।

बहरहाल दादी उल्टी और दस्त खाट में करने लगी। सुबह कोठरी से बदबू आने लगी। दोनों बेटी अपनी माँ से मिले बिना ही चली जाती हैं। तभी मंगरू की माँ दादी को कोसती हुई कहती है, ‘‘कल दो-चार समोसा और जलेबी क्या ला दी? शाम को पड़ोसियों के सामने बेटियों का गुणगान गाने लगी थी। आज दोनों बेटी साफ-सुथरा करके नहीं गयी। आज तो मैं भी साफ करने वाली नहीं हूँ।’’

मंगरू की माँ की बात सुनकर सोनिया की माँ घर से निकलकर कहती है, ‘‘ये बुढ़िया महीना में पन्द्रह दिन बीमार ही रहती है। कौन साफ-सुथरा करते रहेगा। आज तो मैं भी करने वाली नहीं हूँ। आज से कब का मर गयी होती। लेकिन आपका लाडला मंगरू ही आकर दवा-दारू करके मरने नहीं दिया है। इस बार कोई उसे फोन नहीं करेगा।’’

‘‘पहले तुम्हारी लाडली सोनिया को संभालो। वरना, मंगरू को फोन करके सब कुछ बता देगी।’’ इस परिवार में मंगरू के अलावे दादी की चिंता किसी को है तो वह सोनिया है। जो बारह बरस की है।

‘‘मैं सुबह ही सोनिया को उनके पापा के साथ खेत भेज दी हूँ। आज मैं भी देखती हूँ, कैसे? मंगरू को फोन करती है। यदि बुढ़िया के पास जायेगी तो मार कर भरता बना दूँगी।’’ छोटी काकी

आँगन में झाड़ू कर रही, मंगरू की सँझली काकी बोलती है, ‘‘बुढ़िया के ये दोनों लाडला-लाडली ने ही आज तक मरने नहीं दिया है।’’
‘‘ये बुढ़िया भी अमर बूटी पीकर आयी है। दो-तीन बार बिना दवा-दारू के भी स्वस्थ हो चुकी है। तुम भूल गयी। एक बार मुँह के अंदर पानी भी नहीं उतर रहा था। सात दिन के बाद धीरे-धीरे भात खाने लगी।’’ मंगरू की माँ

‘‘आप ठीक बोल रही हो दीदी। गाँव में जवान-जवान आदमी मर रहा है। लेकिन ये बुढ़िया का मरण नहीं होता है।’’ सँझली काकी
‘‘पिछले बार जब बीमार हुई थी। तब मैं खाना में नमक-मिर्च ज्यादा डाल कर देती थी। पर बुढ़िया आराम से खा लेती थी।’’ छोटी काकी

‘‘बुढ़िया अभी सात-आठ रोटी खा लेती है। इसे कौन अच्छी रोटी बनाकर खिलाने सकेगी। मैं तो जली हुई या बासी रोटी ही देती हूँ।’’ मंगरू की माँ

‘‘आप ठीक बोल रही हो दीदी। बुढ़िया भात भी एक थाली खाती है। जब भी सुबह का खाना शाम को बच जाता है। तब उस भात को मैं अगले दिन सुबह खाने देती हूँ। गर्मी के दिनों में भात से उबकाई आती है। फिर भी बुढ़िया भात में नमक डालकर, मिर्च भरता के साथ आराम से खा लेती है।’’ सँझली काकी

‘‘आज सब जल्दी खेत चलो। बुढ़िया को खाना-पानी कोई नहीं देगा। मैं देखती हूँ। बुढ़िया कैसे नहीं मरती है?’’ छोटी काकी
‘‘तुम्हीं लोग तो बुढ़िया को जिंदा रखा है। वरना, कब का मर गयी होती। मेरी सलाह मानो तो खाना में जहर मिला कर दे दो। वरना, जब तक जीवित रहेगी। बदबू से जीना हराम कर देगी।’’ कुंजा की माँ कहती है। जो मंगरू की बड़ी माँ है।

दादी का बड़ा बेटा विवाह करके एक साल के अंदर लड़-झगड़ कर अलग हो गया था। फिर जमीन और घर पर मनमानी कब्जा करने लगा था। दादी मनमाना करने से माना कर रही थी। तभी वह क्रोधित होकर दादी पर टांगी से वार कर दिया था। जब टांगी को वार करने के वास्ते ऊपर उठाया था। तब दादी की कोठरी के छप्पर में टकराकर गर्दन की जगह पीठ पर लगा था। दादी के पीठ पर चार टांका हुआ था। इसका बेटा कुंजा भी बाप से कम नहीं निकला। बारह दिन पहले दादी कुआँ से स्नान करके आ रही थी। अचानक आँगन में गिर गयी थी। फिर उठकर कोठरी तक जाने में असमर्थ हो गयी। कोठरी से बीस-तीस कदम दूर पर पड़ी थी। कुंजा आँगन में बैठा मोबाइल में गेम खेलता देख रहा था। वैशाख का महीना था। सूरज सिर पर था। दादी पसीना से लथपथ हो चुकी थी। कुंजा को अपनी कोठरी तक पकड़कर पहुँचा देने के वास्ते बार-बार पुकार रही थी। कुंजा क्रोधित होकर उठा और दादी को घसीटता हुआ कोठरी के अंदर घुसा दिया। दादी के शरीर से यहाँ-वहाँ खून रिस रहा था। कुहनी और पीठ का घाव, अब तक ठीक नहीं हुआ है।

बड़ा बेटा-पतोहू और पोता तो दादी को जीवित रहते ही मरा हुआ मान चुका है। किंतु आज तीनों बेटा-पतोहू भी खाना खाकर खेत चले जाते हैं। पर किसी ने ये नहीं कहा, तुमको क्या हो रहा है? पतोहू तो परायी होती हैं। लेकिन खून के रिश्तों ने भी नहीं पूछा। दोपहर के बाद बदबू असहनीय होने लगी। छोटा काका का कमरा दादी की कोठरी से सटा हुआ है। छोटी काकी को बदबू से उबकाई आने लगी। वह सौ गालियाँ देती है। फिर मुँह में कपड़ा बांध ली। और खाट में अंतिम सांस गिन रही दादी के शरीर पर आठ-दस बाल्टी पानी डाल देती है। दादी गीला कपड़ा की वजह से थरथर काँपने लगी। पर किसी ने कपड़ा बदल दिया, न दवा-दारू की व्यवस्था ही किया। रात के आठ बजे के आस-पास जब बदबू से सोना कठिन होने लगा। तब कुंजा बोरिंग को स्टार्ट करके पाइप से दादी के शरीर पर दस मिनट तक पानी डालता रहा।

मंगरू को रात के करीब दस बजे, सभी के सो जाने बाद दादी की लाडली सोनिया चुपके से पापा के मोबाइल से मैसेज की, ‘‘भैया दादी की तबीयत बहुत खराब है। तुम सुबह घर आ जाओ। मुझे दिन भर मोबाइल छूने नहीं दिया है। और दादी के पास भी जाने से रोक रखा है। दादी सुबह से कुछ नहीं खायी है।’’

मंगरू शहर से भोर की पहली गाड़ी पकड़कर सुबह आठ बजे घर पहुँच जाता है। दादी की कोठरी से बदबू आ रही है। जब पास गया तो देखा, दादी का शरीर काठ हो चुका है। मक्खी भन्न-भन्न कर रही हैं। मंगरू रोने लगा। तब धीरे-धीरे सब पास आकर रोने का अभिनय करने लगते हैं।

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