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अरे! राम – राम…..
बड़ी दुःखद खबर है। आज भुनसारें साढ़े चार बजे कछियाने के किसान महेंद्र सिंह कुशवाहा नहीं रहे। पूरा बलदेवपुरा गाँव इन्हें ‘महिन्द कक्का’ कहकर पुकारता है। छप्पन साल की उमर में स्वर्ग सिधारे हैं महिन्द कक्का।

गेहुआँ रंग, सुंदर – सुड़ौल बदन, गूदगुदारे चेहरे की छः फुट की कठकाठी पर लम्बा कुर्ता – पजामा, सदरी, सिर पर किसानवाला मुड़ाछा और कुर्ते की ऊपर की जेब में रखी डायरी और खुरसा पेन बहुत जँचता था उन पर। कभी – कभार सदरी के साथ सफेद धोती और कुर्ता भी पहनने थे। काली सदरी बहुत पसन्द थी उन्हें।

महिन्द कक्का के मिलनसार स्वभाव, तेजस्वी मन, विकासकरने वाले नेता और दानी जैसे कामों से कोई भी बिना प्रभावित हुए नहीं रहता था। उनके नेक कामों और पंचायती फैसलों की झाँसी जिले के बड़े – बूढ़े, बहु – बेटियाँ, युवा – युवतियाँ, आदमी – औरतें, पत्रकार, नेता, अधिकारी, वकील, पुलिस सभी तारीफ करते हैं। उनके कामों से हर कोई गाँव, समाज और देश का विकास करने के लिए प्रेरित है।

गड़रियाने का महेश पाल महिन्द कक्का के निधन पर शोक जताने के बाद उनके द्वारा किए गए महान कामों को याद करते हुए अपनी पत्नी रेखा से बतिया रहा है, जो अभी छः महीने पहले ही विवाहित होकर आयी है –

” महिन्द कक्का, अपने बल्देवपुरा गाँव के तीन पंचवर्षी प्रधान रहे। अपने कार्यकाल में गॉंव की हर कच्ची गली को पक्की सड़क में तब्दील किया। खेत के कच्चे सेक्टरों को भी पक्का करवाया। सरकारी पाइपलाइन बिछवाकर पेयजल की समस्या को दूर किया। इससे पहले औरतों और लड़कियों को पीने और खर्च का पानी भरने के लिए डेढ़ – दो किलोमीटर दूर जाना पड़ता था। गाँव में सहकारी समिति और बीज भंडार खुलवाया ताकि किसानों को समय पर खाद और बीज मिल सके। किसानों को खाद और बीज की कमी के कारण कोई नुकसान न झेलना पड़े। वैसे भी प्रकृति की मार और पूँजीवादी काले कारनामों से बहुत तकलीफ उठाते हैं हमारे किसान। महिन्द कक्का ने गॉंव के हर तरा के मामले पंचायत में निपटाए। किसी भी मामले में किसी को भी थाने और कचहरी तक नहीं जाना पड़ा। वो कहते थे – यदि तुम लोग छोटे – मोटे, घर – परिवार, मुहल्ला – पड़ोस के आपसी झगड़ों को लेकर पुलिस के चक्कर में पड़ोगे तो रपोट लिखाबे में ही पाँच – दस बोरा पिसी बिक जाएगी, बिना रिश्वत के रपोट लिखती कहाँ है आजकल। पुलिस की हालात तो कुत्तों से भी बुरी है, कुत्ता तो बफादारी करता है लेकिन पुलिस नहीं। कोर्ट – कचहरी जाते – जाते साले गुजर जायेंगी, चप्पलें घिस जाएगीं, बकील की फीस भरने में। महिन्द कक्का शिक्षा के महत्त्व को भी खूब समझते थे और सारे गॉंववालों को समझाते भी थे। उन्होंने खुद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी०ए० की डिग्री ली थी। वे अपने जमाने के बरूआसागर इलाके के सबसे ज्यादा पढ़े – लिखे और अनुभवी इंसान थे। वे शिक्षा को हर व्यक्ति के जीवन में तरक्की लाने और समाज में बदलाव लाने, गाँव, समाज और देश की तररकी के लिए इकलौता शक्तिशाली हथियार मानते थे, इसलिए उन्होंने गाँव के गरीबों, किसानों, मजदूरों के लड़के – लड़कियों को गॉंव में ही अच्छी शिक्षा मिले, इसके लिए गाँववालों को साथ लेकर जिलाधीश से लेकर राज्य सरकार तक बदलाओकारी पहल की और गाँव में सरकारी इंटर कॉलेज के लिए राज्य सरकार से बजट की मंजूरी कराई। सिद्ध बब्बा की पहाड़ी के नीचे खाली पड़ी ग्रामसभा की चार एकड़ जमीन पर इंटर कॉलेज बनना तय हुआ था। हम गाँववालों की माँग पर इंटर कॉलेज का नाम ‘गाँवसेवी महेन्द्र सिंह कुशवाहा किसान इंटर कॉलेज, बलदेवपुरा, झाँसी, बुंदेलखंड’ रखा गया। पिछली साल से इस इंटर कॉलेज में कक्षा नौ से लेकर बारहवीं तक कला, विज्ञान, वाणिज्य और कृषि संकाय में पढ़ाई शुरू हो गई थी। अब बारहवीं तक लड़का – लड़की गाँव में पढ़ाई कर रहे हैं और अपने परिवार के साथ अपना भविष्य संवार रहे हैं। इंटर कॉलेज बनने से सबसे ज्यादा फायदा लड़कियों को हुआ है क्योंकि गाँव से दूर पढ़ने उनकी मम्मी – पापा बड़ी मुश्किल में भेजते थे। अब हर माता – पिता अपनी बेटियों की पढ़ाई को लेकर सजग हुए हैं और बेटी को हर हाल में पढ़ाना चाह रहे हैं। वे अपनी बेटी से घर का कोई भी काम चूल्हा – चौका बगैरह और हार – खेत का काम कराने के बजाए पढ़ाई में मगन रखते हैं। उन्होंने बेटियों को पन्द्रह – बीस हजार का स्मार्टफोन भी दिला दिया है ताकि बेटी ऑनलाइन भी पढ़ाई कर सके और दुनिया में प्रचलित शिक्षा – व्यवस्था से कदम से कदम मिलाकर चल सके और जज, कलेक्टर, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रोफेसर बनकर गाँव और समाज का मान बढ़ा सके।”

इतना सुनकर रेखा बोली –
“भौत महान हते अपने महिन्द कक्का तो। यी जमाने के जोतिबा फुले लगत हमें तो बे….।
बिनके अंतिम संस्कार में हम भी सामिल होकें उनें श्रद्धांजलि देबो चाऊत…।”

महिन्द कक्का के स्वर्ग सिधारने से बलदेवपुरा में गमी के बादल फूट पड़े हैं। कक्का के घर पर आकर हजारों गाँववाले फूट – फूटकर रो रहे हैं। रोते – रोते कुछ औरतें और कुछ आदमी दत्ती बंधने से गस्त खाकर गिर गए। कक्का के जाने से हर कोई दुःखी है। चीख – चीखकर रोने वाले आदमियों – औरतों की ये आवाजें आ रहीं हैं –

“हे भगवान! तुमने इतैक जलदीं काय बुला लओ हमाए कक्का खों। अबे पाँच – दस साले और रैन देऊते हमाए संगे तो हम औरन की जिन्दगी और सुदर जाऊती। हमाए मौड़ी – मौड़न खों भी कक्का बकील, डागटर, कलेक्टर, अफसर बनत देख लेऊते…..।”

महिन्द कक्का के साथी सिद्धेश्वर माते भी फूट – फूटकर रो रहें हैं। उन्हें भी महिन्द कक्का के जाने का उतना ही दुःख है, जितना हर गाँववाले को है लेकिन वे सबखों समझाते हुए कहते हैं –

“होनी को कोई नहीं टाल सकता। परमात्मा भी नहीं। होनी तो होकर रहती है। माँ की कोख से जनम लेकर दुनिया में आना, सुख – दुःख भोगना, जरूरतमंद लोगों की मदद करना, नाम कमाना और फिर मृत्यु होने पर दुनिया से चले जाना, ये सब विधि का विधान है। मृत्यु को कोई नहीं टाल सकता जैसे जन्म को कोई नहीं टालता। एक दिन सबको जाना है भगवान के पास लेकिन सब कोई महिन्द भज्जा जैसे करम करके जाए तो इस धरती लोक से स्वर्ग लोक में उसे सदियों तक याद रखा जाएगा। तुम सब जनें शांति रखो और महिन्द भज्जा की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से विनती करो। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करो….।”

काशी की बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से राजनीति में एम० ए० करने वाला गाँव का होनहार युवा रमन रायकवार भी फूट – फूटकर रो रहा है और सिद्धेश्वर माते से कह रहा है –

“हओ चाचा। इंसान खों अपने महिन्द कक्का जेसौ होएं चज्जे। जीबन में उन जैसे नेक काम करें चज्जे। कायकि दुनिया में सिरफ इंसान कौ नाओ रै जाऊत। जीबन भर जो जैसे करम करतई, बैसेई फल भुगततई। अगर कौनऊँ बुरे करम करतई, गरीबन, किसानन, मजूरन की दबंगयाई करकें, डरा – धमकाकें जमीनें हडपतई, उनके घरन पे जबरन कब्जा करतई, नाजायज बियाज लेऊत, लोगन की मजबूरी कौ फायदा उठाऊत, बैन – बेटियन खों बुरी नजर सें देखतई, गुंडागिरदी करकें भोले – बाले इंसानन, सीदी – सादी औरतन पे रौब झाड़त। तो बौ भौत बुरई मौत मरत, पुलिस एनकांउटर में मारत उए बिकास दुबे और माफिया बिधायक अतीक ऐमद के बेटे असद की तराँ। माफियन के घर पे बिल्लोजर चलत अब योगी बाबा के राज में….।”

महिन्द कक्का पूरे गाँव के मुखिया थे, सबका दुःख-सुख में ख्याल रखते थे। अब बिना मुखिया के कैसे चलेंगे घर…?

उनकी इकलौती बेटी है मेघना सिंह कुशवाहा यादव, जो झाँसी जिला न्यायालय में बकालत करती है। घरवाले और गॉंववाले प्यार से उसे ‘मेघू दीदी’ कहकर बुलाते हैं। मेघना ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाऊस कॉलेज से बी० ए० ऑनर्स समाजशास्त्र की डिग्री ली है, उसने यूनिवर्सिटी टॉप करके गोल्डमेडल भी जीता था और ‘बदलाओकारी छात्रा पंचायत’ संगठन बनाकर हॉस्टल टाईमिंग, मेस में खाने की क्वालिटी, कॉलेज में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था, हिन्दी में स्टडी मेटैरियल की उपलब्धता जैसे मुद्दों को लेकर छात्रा-अधिकारों की लड़ाई लड़कर दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में सचिव पद पर विजयश्री पाई थी। उसने दिल्ली में इन तीन सालों में स्त्री की आजादी पर रोक लगाने, स्त्री को पुरुषों के अधीन रखने, उन्हें पुरुषों से कम अधिकार देने और कमतर आँकने जैसी मनुवादी नीतियों के खिलाफ आर्ट फैकल्टी के सामने बैठकर महीनों अनशन किया था और स्त्री को पुरुषों के समान हर अधिकार दिलाने के लिए विश्वविद्यालय कैम्पस से लेकर ‘स्त्री समानता अधिकार मार्च’ संसद भवन तक निकाला था, जिसमें हजारों छात्र – छात्राएँ शामिल हुए थे। सरकार को सौंपे गए ‘भारतीय स्त्री – समानता अधिकार घोषणापत्र’ की छः मुख्य मांगें थीं। स्त्रियों के लोकसभा – राज्यसभा, विधानसभा – विधानपरिषद और पंचायतों में पचास फीसदी सीटें आरक्षित हों। स्त्रियों के लिए हर विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु पचास फीसदी सीटें आरक्षित हों। स्त्रियों के लिए प्रशासनिक, न्यायिक, कार्मिक और शिक्षा सेवा समेत हर सेवा में पचास फीसदी सीटें आरक्षित हों। स्त्रियों को मनुस्मृति के अनुसार पुरुषों के समान सोलह संस्कार करने का कानूनी हक मिले। स्त्रियों को पुरुषों के समान हर काम करने और उनके समान वेतन पाने का हक मिले। स्त्रियों को अपनी पसंद के पुरूष से जाति, धर्म से परे जीवनसाथी चुनने का हक मिले।”

सरकार ने इन सारी माँगों को लेकर आयोग का गठन करके जल्द से जल्द कानून बनाने का मेघना सिंह कुशवाहा और उनके साथियों को आश्वासन दिया। देश – विदेश में मेघना के नेतृत्त्व की सराहना की गई। प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपनी ‘मन की बात’ में मेघना का जिक्र करते हुए कहा –

“बुंदेलखंड के किसान की बेटी, नारी शक्ति की प्रतिमूर्ति मेघना सिंह कुशवाहा, आज की सावित्रीबाई फुले है। सावित्रीबाई फुले ने उन्नीसवीं सदीं के पाँचवे दशक में बेटियों के लिए देश की पहली कन्या पाठशाला खोलकर स्त्री-शिक्षा का यज्ञ शुरू किया था। जिसमें हम सब आज भी अपनी आहुतियाँ देकर देश की समृद्धि के लिए काम कर रहे हैं। सावित्रीबाई फुले से पहले स्त्रियों को शिक्षा देना वर्जित था। शिक्षा की देवी सावित्रीबाई फुले और किसान समाजसुधारक महात्मा जोतिबा फुले के द्वारा हिन्दू धर्म सुधार के लिए किए गए परिवर्तनकारी कार्यों से आज हम, आप और सारी दुनिया प्रेरणा ले रही है। हम सब मिलकर देश की आधी आबादी, नारी शक्ति के हित में कानून बनाकर इक्कीसवीं सदी का नया भारत – सशक्त भारत बना रहे हैं।”

बी०ए० की डिग्री पूरी करके मेघना अपनी जनमभूमि बुंदेलखंड वापिस लौट आई और झाँसी में रहकर बुंदेलखंड कॉलेज से कानून की पढ़ाई करने लगी। एल० एल० बी० की पहली साल से ही मेघना का सहपाठी अमर सिंह यादव के साथ प्रेम – प्रसंग चला। अमर सिंह तेंदौल के सरकारी ठेकेदार का इकलौता बेटा है। दो साल बाद दोनों ने विवाह रचाने का फैसला किया।
दोनों ने तय किया कि शादी के बाद हम दोनों अपने नाम के साथ एक – दूसरे का जाति नाम लगाएंगे जैसा – विवाहित ब्राह्मण महिलाएँ लगातीं है लेकिन विवाहित पुरुष नहीं लगाते हैं।
तुमने देखा भी तो है सोशल मीडिया, फेसबुक और अखबारों में… सीमा दुबे त्रिपाठी, पूजा चतुर्वेदी मिश्रा…। पिछली साल ही, वो अपने बरूआसागर के दोस्त अखंड नायक की बहिन इंजीनियर पल्लवी नायक का विवाह स्वदेश तिवारी से हुआ था। तो अब अखंड की बहिन विवाह के बाद अपना नाम इंजी० पल्लवी नायक तिवारी लिखती है और उनका पति विवाह के बाद सिर्फ अपना नाम स्वदेश तिवारी, गवर्नमेंट कॉन्ट्रेक्टर लिखता है। हम दोनों का बुंदेलखंड में ऐसा पहला विवाहित जोड़ा होगा किसानों – पिछड़ों में, जिसमें पति – पत्नी अपने नाम के साथ एक-दूसरे का जाति नाम भी लगाते हैं।
विवाह के बाद हम कहलाएंगे – एडवोकेट अमर सिंह यादव कुशवाहा और तुम कहलाओगी – एडवोकेट मेघना सिंह कुशवाहा यादव।

दोनों ने अपने – अपने घर पर विवाह के संबंध में मम्मी – पापा से बात की। दोनों के घर वाले मान गए क्योंकि दोनों के घर वाले इक्कीसवीं सदी की दुनिया के साथ चलना चाहते हैं। बरूआसागर के नगर भवन से नौ फरवरी को मेघना और अमर की शादी होने तय हुई। विवाह के पहले सगाई, गोद भराई, पकक्यात जैसी रस्में पूरी होने के बाद बड़ी धूमधाम से नौ फरवरी सन दो हजार बीस को शादी सम्पन्न हुई। बलदेवपुरा, तेंदोल और बरूआसागर नगर में लगे होर्डिंगों और निमंत्रण पत्रों में लिखा था –

“कुशवाहा यादव किसान परिवार आपका हार्दिक स्वागत करता है। मेघना सिंह कुशवाहा परिणय अमर सिंह यादव। टीका-परिक्रमा एवं स्वरूचिभोज – नौ फरवरी सन दो हजार बीस, स्थान – नगर भवन, बरूआसागर, जिला झाँसी, बुंदेलखंड…..।”

अभी फिलहाल मेघना एल० एल० बी० करने के बाद एल०एल०एम० कर रही है और साथ ही झाँसी जिला न्यायालय में बकालत भी कर रही है। उसने बुंदेलखंड में फिर से छात्रसंघ चुनाव की बहाली को लेकर ‘बदलाओकारी बुंदेलखंड छात्रसंघ संघर्ष पंचायत’ संगठन बनाया है और बुंदेलखंड कॉलेज और बुंदेलखंड विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर हाईकोर्ट तक सभी छात्र संगठनों को साथ लेकर आवाज बुलंद कर रही है, लेकिन हाइकोर्ट बुंदेलखंड में छात्रसंघ चुनावों पर लगी रोक को नहीं हटाने को तैयार नहीं है। कोर्ट का साफ कहना है -” यदि राज्य सरकार या केंद्र सरकार हमसे अपील करे और शांतिपूर्ण चुनाव कराने की जिम्मेदारी ले तो हम रोक हटा देंगे।”

हाईकोर्ट के इतना कहने पर सारे छात्रनेताओं ने एकजुट उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को बुंदेलखंड में छात्रसंघ की बहाली के लिए पत्र लिखे, लखनऊ में पिछले चार महिने से धरना दे रहे हैं लेकिन सरकार चुनाव बहाली को लेकर तैयार नहीं हुई। सरकार का कहना है –
“छात्रसंघ चुनावों में आए दिन हिंसा के सैकड़ों मामले सामने आते थे। छात्रनेताओं की निर्मम हत्या की घटनाएं घटती थीं, इसलिए चुनावों पर रोक लगाई। यदि आप में से कोई या विश्वविद्यालय प्रशासन जिम्मेदारी ले कि हिंसा और हत्या की घटनाएं नहीं होंगीं, शांतिपूर्ण माहौल में चुनाव सम्पन्न कराए जाएँगे तो हम तत्काल प्रभाव से छात्रसंघ की बहाली कर देंगे।”

कोर्ट कह रहा, सरकार अपील करे और जिम्मेदारी ले और सरकार कह रही, छात्रनेता और विश्वविद्यालय जिम्मेदारी ले कि चुनावों में हिंसा और हत्या की घटनाएँ नहीं होंगीं। जब सरकार ही जिम्मेदार नहीं ले रही है तो जिम्मेदारी लेगा ही कौन…? सरकार खुद नहीं चाह रही है कि छात्रसंघ चुनाव हों, बुंदेलखंड की शिक्षा – व्यवस्था में सुधार आए और निक्कमे प्रोफेसरों आचार – विचारों में बदलाओ आए और विश्वविद्यालय में हो रहे घोटाले सामने आएँ। छात्रनेता विश्वविद्यालय के घोटाले सामने लाते हैं, निक्कमे प्रोफेसरों को लाइन पर लाते हैं और छात्र – छात्राओं को अपने हक के लिए लड़ना सिखाते हैं और सक्रिय नागरिक बनने के लिए समाज को जागरूक करते हैं।

मेघना अभी लखनऊ में ही थी धरने में साथी छात्रनेताओं के साथ। पाँच बजे महिन्द भज्जा के निधन की खबर देने के लिए सिद्धेश्वर माते ने फोन किया –

“रोते हुए…. हैलो, मेघू बिटिया। अबे हाल घरै आ जाओ। तुमाए बाबूजी नहीं रहे….।”

बाबूजी के निधन की दुःखद खबर सुनकर मेघू फूट – फूटकर रोने लगी और साथी सोमेश पाल से बोली –

” अरे! सोमेश हमें अभी हाल अपनी स्कार्पियो से घर छोड़ने चलो। हमारे बाबूजी नहीं रहे अब…
सिद्धेश्वर चाचा ने फोन करके बताया हमें अभी… इतना सुनकर सोमेश की आँखों में भी आँसू आ जाते हैं और वो भी फूट – फूटकर रोने लगता है। दीपक रजक रूमाल से दोंनो के आँसू पौंछ देता है और सोमेश का पानी से मुँह धुलाकर उसे फौरन मेघू को लेकर घर भेज देता है।

ग्यारह बजे मेघू घर पहुँच जाती है और आते ही बाबूजी से लिपटकर फूट – फूट रोने लगती है –

” बाबूजी! हमें छोड़के काय चले गए इतैक जलदीं। अब हमाओ हौसला को बढ़ाए। मम्मी और गॉंओंबारन कौ खयाल को रक्खे…।”

दोपहर साढ़े बारह बजे तक सब रिश्तदार और मौजे भर के सोलह गॉंवों के पंच, साथी, मित्र बगैरा भी इकट्ठे हो जाते है…।

महिन्द कक्का का अंतिम संस्कार करने का समय शाम पाँच बजे रखा गया। उनका अंतिम संस्कार बड़े हारे खेत पर होना है। जहाँ उनकी समाधि भी बनाई जानी है। अब सवाल ये है कि उनका अंतिम संस्कार करेगा कौन…? जैसे ही पता चला कि अंतिम संस्कार उनकी बेटी करेगी तो गॉंववाले मनुवादी ब्राह्मणों ने पड़ोस के सोलह गाँवों के और ब्राह्मण बुला लिए। मौजे भर के सोलह गांवों के पंच तो पहले से ही उपस्थित थे वहाँ क्योंकि आज उन सब पंचों के मुखिया का अंतिम संस्कार होना था…..।

सारे ब्राह्मण इस बात को लेकर अड़े हुए थे कि अंतिम संस्कार विधान और रिवाज के अनुसार उनके भतीजे कमलेश और विमलेश में से कोई भी कर दे लेकिन लड़की मेघना न कर सकेगी। मेघना ने सिद्धेश्वर चाचा और बाबूजी के सारे पंच साथियों से साफ बोल दिया है –

” चाहे कुछ भी हो, बाबूजी का अंतिम संस्कार हम ही करेंगे और हमारे साथ मम्मी समेत गाँव और रिश्तेदारी की सारी औरतें, लड़कियाँ भी शवयात्रा में साथ जायेंगीं। अब रिवाज बदलेगा। स्त्रियों को सोलह संस्कार करने का हक मिलकर रहेगा। इस गाँव, समाज से मनुवादी ब्राह्मणों की जंजीरे टूटकर रहेंगीं। अब बदलाओकारी – फुलेवादी समाज बनकर रहेगा। दुनिया में किसानवाद आकर रहेगा। बाबूजी के अंतिम संस्कार के साथ ही आज हम उन सभी रीति – रिवाजों, परंपराओं, कुप्रथाओं का अंतिम संस्कार कर देंगे, जो स्त्रियों को पुरुषों के समान काम करने से रोकती हैं। स्त्रियों की आजादी पर रोक लगातीं हैं। उन्हें घर की चारदीवारी में कैद रखती हैं। जब देश का संविधान और सरकार स्त्रियों को पुरुषों की बराबरी के सारे अधिकार दे रही है तो हमें रोकने वाले ये मनुवादी ब्राह्मण होते कौन हैं…? ये क्या हमारे मालिक हैं ? क्या ये समाज के ठेकेदार हैं ? क्या हम इनके गुलाम हैं ? जो इनके हिसाब से चलें…। ये भी सनातनी हिन्दू हैं और हम भी सनातनी हिन्दू हैं। तो फिर इनके कामों और हमारे कामों में इतना अंतर क्यों ? समाज पर इनकी बातों के प्रभाव और हमारी बातों के प्रभाव में अंतर क्यों ? इन्होंने मनुस्मृति, हिन्दू धर्मशास्त्र पढ़े हैं इसलिए ये विद्वान पंडित कहलाते हैं तो हमने भी बकालत में हिन्दू विधि के साथ संविधान जैसे कानून पढ़े हैं इसलिए हम भी विद्वान अधिवक्ता कहलाते हैं। हमारा कानून कहता है – समाज की जरूरत के हिसाब से घिसे – पिटे पुराने विधि – विधानों, रीति – रिवाजों, परम्पराओं में सुधार करके बदलाओ कर लेना चाहिए। सती प्रथा पर रोक, विधवा पुनर्विवाह की शुरूआत हिन्दू धर्म सुधार थे तो अब हम हिन्दू धर्म में एक और ये सुधार क्यों नहीं कर लेते कि बेटियाँ, स्त्रियाँ भी अपने माता – पिता का अंतिम संस्कार कर सकेंगीं।
जैसा यज्ञ में स्त्री – पुरूष, पति – पत्नी मिलकर आहुति देते हैं तो माँ या बाप के निधन पर बेटा और बेटी मिलकर उनका अंतिम संस्कार क्यों नहीं कर सकते, उनको मुखाग्नि क्यों नहीं दे सकते। यदि बेटा नहीं है तो सिर्फ बेटी को ही अंतिम संस्कार करने का रिवाज क्यों न बने ?
बाबूजी के साथी पंचों आप सब का क्या विचार है मेरे धर्म सुधार के सुझावों पर ?

मेघना बिटिया! हम सब पंच लोग आपकी हर बात से पूरी तरह सहमत हैं। आज से बेटियों को भी अपने माँ – बाप का अंतिम संस्कार करने का हक है, ये फैसला हम सोलह गांवों के पंच लोग आज की पंचायत में सुनाते है। आज तुम अपने बाबूजी का अंतिम संस्कार करके इस रिवाज की शुरूआत करो कि हमारे यहाँ बेटियाँ भी अन्तिम संस्कार करती हैं….।

पंच साथियों! एक और बात… ये वही गौरीदास दुबे पंडित जी हैं न, जिनका पिछले महीने अपने भतीजे के साथ जजमानों के बंटवारे को लेकर घमासान हुआ था। भतीजे सुखदीन शास्त्री, उसके बाप और भाई ने मिलकर इनके सिर पर जूते ही जूते मारे थे और इनके बेटे को भी जूते – चप्पलों से पीट – पीटकर अधमरा कर दिया था। मुहल्ला वाले इस तमाशे को बड़े गौर से देख रहे थे। बीचबचाव करने आई इन पंडित जी की पत्नी की साड़ी खींचकर उस ढोर भतीजे ने तमाशबीन मुहल्ले वालों के बीच फेंक दी थी। पता उस दिन, माँ समान काकी द्रौपती का चीरहरण रोकने कौन आया था…? हमारा भाई समर सिंह, सिद्धेश्वर चाचा का बेटा ही आया था। सब भूल गए ये पतनशील पंडित…। देखो, आज ये उसी भतीजे को साथ लेकर हमें अपने पिता का अंतिम संस्कार करने से रोकने पर तुले हैं। ये बड़े आए हमें रिवाज सिखाने वाले। खुद का घर तो संभाल नहीं पा रहे और समाज की ठेकेदारी करने चले आए।

सुना है, इनका ढोर भतीजा मथुरा – वृन्दावन से
भागवत सीखकर आया है, बड़ा कथावाचक बनना चाह रहा है। घंटा! कथावाचक बनेगा ये…चूले में जाए यी की सुनाई कथा, लुअर लग जाए यीमें। अपने ताऊ और ताऊ के बेटे को जूता – चप्पलों से पीटने के बाद ये भतीजा और उसका बाप बाबूजी समेत सारे पंचों को पीठ-पीछे गरिया रहे थे, बुरा – भरा बोल रहे थे। उस दिन इन पंडित जी गौरीदास दुबे ने जब पंचायत जोरी तो ये सुखदीन शास्त्री पंचों से अकड़कर बात कर रहा था और ये दोनों बाप – बेटा पंचों से कह रहे थे –

” ये हम भाईयों का घरेलू विवाद है। आप लोग क्या करने आए यहाँ ? हम आपकी कोई बात नहीं मानेंगे। ताऊ ने जिंदगी भर गाँव की जजमानी करी। अब हम पूरी जजमानी करेंगे, आज से सारे जजमान हमारे। पंचों ने जजमानों को बिरोबर – बिरोबर बांटा तो प्रत्येक के हिस्से में आठ – आठ सौ जजमान आए थे। गौरीदास और सुखदीन को आधे – आधे जजमानों के यहाँ जजमानी करने का फैसला सुनाया था, लेकिन सुखदीन और उसके बाप ने पंचों का फैसला मानने से इंकार कर दिया था और दोनों पंचायत से उठकर घर में घुस गए थे…।”

आज मैं सोलह गॉंवों के पंचों के मुखिया किसान महेंद्र सिंह कुशवाहा की बेटी, बदलाओकारी – फुलेवादी, वकील मेघना सिंह कुशवाहा यादव सारे पंचों के सामने ये फैसला सुनाती हूँ -” आज से किसान, पिछड़े वर्ग के लोग इन ब्राह्मण जाति वाले पंडितों से कोई धार्मिक कार्य, अनुष्ठान, संस्कार नहीं कराएँगे। जब ये जाति से ब्राह्मण होते हुए हम कुशवाहा – किसानों जैसी खेती करते हैं और पंडिताई का काम अपना विशेषाधिकार समझते हुए करते हैं। हम कुशवाहा – किसानों का इनके मुनवादी कर्म – विधान के अनुसार खेती करना विशेषाधिकार है तो हम इन जैसा पंडिताई का काम क्यों नहीं कर सकते ? हम किसान भी हिन्दू हैं, हमें भी अपने धर्मग्रंथ पढ़ने का उतना ही अधिकार है, जितना इन ब्राह्मणों को। अब से हम किसानों के बेटा – बेटियाँ भी दतिया, वमनुआं, मथुरा, काशी में संस्कृत महाविद्यालय में रहकर आचार्य और शास्त्री की पढ़ाई करके पंडिताई सीखेंगे और इन ब्राह्मणों जैसा पंडिताई का काम करेंगे। ये ब्राह्मण या तो खेती छोड़ें या फिर हमें भी पंडिताई करने दें… दोनों में से एक चुनना है इन ब्राह्मणों को। अब से यदि ब्राह्मण भी खेती करेंगें तो हम किसान भी पंडिताई करेंगे…हमें कोई नहीं रोक सकता, अब समाज में बदलाओ आकर रहेगा…..।”

मेघना का बदलाओकारी फैसला सुनकर, सिद्धेश्वर माते बोले –

“ठीक है मेघू दीदी। तुम हर बात बिल्कुल सही कह रही हो। जैसा तुम चाहती हो, अब से ठीक वैसा ही होगा। चार बजे गए हैं और पाँच बजे महिन्द भज्जा का अंतिम संस्कार होना है। आओ अब, बाबूजी का अंतिम संस्कार करने चलते हैं…”

वहाँ उपस्थित सभी के द्वारा महिन्द कक्का को फूल – माला चढ़ाकर श्रद्धाजंलि अर्पित की गई और फिर साढ़े चार बजे महिन्द कक्का की शवयात्रा घर से निकली। आगे मेघना और कमलेश और पीछे विमलेश और समर सिंह बाबूजी की अर्थी को कंधा दे रहे हैं। शवयात्रा में हजारों आदमी – औरतों, लड़के – लड़कियाँ, पंच, नेता, वकील, पत्रकार, अफसर सभी” राम – राम सत्य है….. सत्य बोलो मुक्ति है…..” बोलते हुए चल रहे हैं और मेघना के मामा रमन सिंह रास्ते में मखाने, फूल और पैसे फेंकते चल रहे हैं…..।

ठीक पाँच बजे शवयात्रा बड़े हारे पहुँच गई।
नदी किनारे खेत के कोने पर तपना लगाने की तैयारी सिद्धेश्वर माते ने कर ली थी। सवा पाँच बजे बाबूजी के शव को मुखाग्नि देकर बेटी मेघना ने उनका अंतिम संस्कार किया। तपना में सभी ने तुलसी की लड़की चढ़ाकर महिन्द कक्का को अंतिम प्रमाण किया।

अगली रोज, झाँसी से छपने वाले अखबार ‘बुंदेलखंड तकता’ ने पहले पेज पर खबर छापी –
” किसान की बेटी ने पिता के अंतिम संस्कार के साथ किया मनुवादी स्त्रीविरोधी परम्पराओं और रीति – रिवाजों का अंतिम संस्कार…।”

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