“सिर्फ इंसान ही गलत नहीं होते, वक्त भी गलत हो सकता है।”
29 अप्रैल, 2020 का दिन भारतीय कला जगत को एक ऐसा ज़ख्म देकर गया जिसकी भरपाई करना मुश्किल हैं। जिस बॉलीवुड में बिना किसी पहचान एवं पहुंच के अपने को स्थापित करना बेहद कठिन होता है वहां वे अपने सहज एवं दमदार अभिनय के बल पर
एक चमकते सितारे के रूप में सामने आए। उनके असामयिक निधन से हर कोई दुखी है। महानायक अमिताभ
बच्चन ‘इरफान की मृत्यु को फिल्म जगत के लिए किसी आपदा की भांति मानते है। वैसे तो इस दुनिया में
मृत्यु ही अटल सत्य हैं। जो आया है उसे जाना ही होगा। संत कबीरदास का दोहा हैं –
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
जीवन के इस सफर में ईश्वर बहुत कम लोगों को ऐसा नसीब देते हैं जो अपने कार्यों से एक लंबी एवं यादगार
रेखा खींच जाते है। फिल्म जगत में बहुत कम समय में ही अपने अभिनय की छाप छोड़ने वाले इरफान खान
ऐसे ही हस्ताक्षर है। इरफान का अर्थ होता हैं ज्ञान, सीखना; इरफान ने अपने कृतित्व से इसे सिद्ध किया है।
07 जनवरी, 1967 को राजस्थान के छोटे से शहर टोंक में पैदा हुए इरफान अली खान बचपन से ही थोड़े
अनोखे स्वभाव के थे। शुद्ध शाकाहारी इरफान खान के लिए उनके पिता कहते थे ‘पठान के घर ब्राह्मण पैदा
हो गया है।‘
इरफान ने अपनी मेहनत के बल पर फिल्म उद्योग में खान तिकड़ी से अलग लाइन खींची, एक साधारण
फिल्म भी उनके अभिनय की वजह से असाधारण बन जाती थीं। कभी जुरासिक पार्क-1 देखने निकले जिस
इरफान के पास जेब में सिर्फ 2 रूपए थे; तब किसने सोचा था यही कभी स्टीवन स्पीलबर्ग के साथ काम
करेगा। इरफान ने विश्व सिनेमा को भी अपनी अभिनय से प्रभावित किया। दर्शक उनके नाम से टिकटें खरीदते
थे।
हाल के दशकों में ऐसा बहुत कम अभिनेताओं के साथ हुआ है जब एक ऑफबीट सिनेमा का अभिनेता इतनी
बुलंदियों को छुआ हो। जैसा कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्वीट में कहा ‘फिल्म अभिनेता इरफान खान
का निधन थियेटर एवं फिल्म जगत दोनों की क्षति है।‘ मीरा नायर की फिल्म सलाम बॉम्बे से अपने फिल्मी
सफर की शुरूआत करने वाले इरफान खान को अपने जीवंत अभिनय के लिए सदैव याद किया जाएगा। वे
अपने किरदार को परदे पर जीते थे। भला कौन भूलेगा ‘पान सिंह तोमर’ का उनका किरदार या ‘हिंदी
मीडियम’ में उनके अभिनय को। एक साधारण फिल्म को अपने अभिनय से जीवंत करने वाले इरफान दर्शकों
के दिलों में सदैव जिंदा रहेंगे।
नेशनल फिल्म स्कूल के छात्र इरफान ने प्रारम्भ में रंगमंच की दुनिया में हाथ आजमाया; बाद में सफलता
मिलने पर दूरदर्शन धारावाहिकों में भी अभिनय की अलग छाप छोड़ी। ‘भारत एक खोज’, ‘चंद्रकांता’, ‘चाणक्य’
जैसे धारावाहिकों में काम करने के बाद मुंबई फिल्म उद्योग की ओर उन्होंने रूख किया। प्रारंभ में इरफान
खान को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें सफलता का पहला स्वाद वर्ष 2003 में तिग्मांशु
धूलिया निर्देशित फिल्म ‘हासिल’ से प्राप्त हुई। उन्होंने ‘हासिल’ के नकारात्मक किरदार ‘रणविजय’ को पर्दे पर
भरपूर जिया, जिससे वे विलेन होकर भी कईयों की नजर में हीरो बन गए। इस बेहतरीन अदाकारी के लिए
वर्ष 2004 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ खलनायक का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला।
एक अंतराल के बाद वर्ष 2012 में तिग्मांशु धूलिया के निर्देशन में ही एक बार फिर बॉलीवुड ने उनकी प्रतिभा
को ‘पान सिंह तोमर’ के रूप में। व्यवस्था की कमी से कैसे एक पूर्व भारतीय खिलाड़ी अपने हाथ में कानून
लेने को विवश हो जाता है, इस किरदार को इरफान ने जीवंत कर दिया। उन्हें इस फिल्म हेतु आलोचकों और
दर्शकों, दोनों का ही भरपूर प्यार मिला। साथ ही उन्हें इस भूमिका हेतु सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार
भी प्राप्त हुआ।
इसके बाद इरफान खान फिर कभी रुके नहीं। इरफान ने ‘कारवां’, ‘पीकू’, ‘तलवार’, ‘हिंदी मीडियम’ जैसी
फिल्मों में अपनी अदाकारी की बेमिसाल छाप छोड़ी। अपनी अदाकारी से इरफान किसी भी फिल्म में जान डाल
सकते थे, फिल्म में उनका होना ही उसके स्तरीय होने की गारंटी माना जाने लगा। एक स्टार अभिनेता के रूप
में इरफान ने हीरो के पारंपरिक छवि को तोड़ने की कोशिश की। साथ ही हॉलीवुड फिल्मों यथा, लाइफ ऑफ
पाई, इन्फर्नो, जुरासिक वर्ल्ड आदि में अहम भूमिकाओं के द्वारा भारत को हॉलीवुड में एक अलग पहचान
दिलाई। इरफान खान की अभिनय के प्रति यह समर्पण का ही परिणाम था कि ‘न्यूरोएंडोक्रिन कैंसर’ जैसी
असाध्य बीमारी से जूझने के बावजूद उन्होंने ‘अंग्रेज़ी मीडियम’ न सिर्फ पूरी की, बल्कि अपने किरदार को भी
यादगार बना दिया।
इरफान एक अच्छे अभिनेता के साथ एक अच्छे इंसान भी थे। अपने असरदार अभिनय और धीमे-धीमे बोलने
के अंदाज से सबके दिलों पर अपनी छाप छोड़ने वाले इरफान शायद अपनी मां की मौत का सदमा बर्दाश्त नहीं
कर पाए। उन्हीं का एक संवाद हैं – ‘माँ की गोद में जी भरकर सोना चाहता हूँ।‘ तब किसे पता था इस संवाद
का अर्थ। अपने शानदार अभिनय प्रतिभा से पद्मश्री इरफान ने कई मुकाम हासिल किए। अपने अभिनय के बल
पर बॉलीवुड तथा हॉलीवुड दोनों के आकाश में सितारे बन कर चमके।
‘दुनिया याद करती है उम्र से नहीं, कर्म से’। कोरोना काल में इरफान खान की मृत्यु से ऐसा लगता हैं – जिंदगी
बड़ी है या मौत? बीमारी का पता चलने पर लंदन के अस्पताल से लिखा गया उनका मर्मस्पर्शी पत्र- ‘’कुछ
महीने पहले अचानक मुझे पता चला था कि मैं न्यूरोएंडोक्रिन कैंसर से ग्रस्त हूं। मैंने पहली बार यह शब्द सुना
था। खोजने पर मैंने पाया कि इस शब्द पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं क्योंकि यह एक दुर्लभ शारीरिक
अवस्था का नाम है और इस वजह से इसके उपचार की अनिश्चितता ज्यादा है। अभी तक अपने सफ़र में मैं
तेज़-मंद गति से चलता चला जा रहा था… मेरे साथ मेरी योजनाएं, आकांक्षाएं, सपने और मंजिलें थीं। मैं इनमें
लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीटी ने पीठ पर टैप किया, ’आपका स्टेशन आ रहा है, प्लीज उतर जाएं।’
मेरी समझ में नहीं आया… न न, मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है…।’ जवाब मिला, ‘अगले किसी भी स्टॉप पर
उतरना होगा, आपका गंतव्य आ गया…।’ अचानक अहसास हुआ कि आप किसी ढक्कन (कॉर्क) की तरह
अनजान सागर में अप्रत्याशित लहरों पर बह रहे हैं। लहरों को क़ाबू करने की ग़लतफ़हमी लिए।
जब मैं पहली बार दर्द के साथ अस्पताल (लंदन के) में गया, मुझे लंबे वक्त तक इस बात का एहसास तक
नहीं हुआ कि मेरे बचपन का सपना लॉर्ड्स स्टेड‍ियम मेरे अस्पताल के पास बना है। जब मैं अस्पताल की
बालकनी पर खड़ा होता था तो एक तरफ स्टेड‍ियम में लगी क्रिकेटर विवियन र‍िचर्ड्स की मुस्कुराती तस्वीर
देखता। एक तरफ मेरा अस्पताल था, दूसरी तरफ स्टेड‍ियम। इस बीच एक सड़क थी जो मुझे जिंदगी और
मौत के बीच का रास्ता जैसा लग रही थी..✍️- इरफान खान।
एक बेहतरीन अभिनेता, शानदार इंसान हमारे बीच से चला गया। न्यूरोएंडोक्रिन कैंसर की प्राणघातक बीमारी से
जूझते हुए उन्होंने जिजीविषा की मिसाल पेश की थी। एक माह पहले ही उनकी फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ आई
थी, तब किसे पता था यह उनकी आखिरी फिल्म होगी। अब वे हमारे बीच नहीं रहे, पर उनका संवाद, अभिनय
सदैव जीवंत रहेगा।
कार्य के प्रति उनकी लगन, उनकी जिजीविषा, उनकी अदाकारी और सबसे बढ़कर उनका बेबाक व्यक्तित्व सदैव
नई पीढ़ी को प्रेरित करेगा। उनकी विरासत को सहेजना हमारा दायित्व भी हैं और हमारे लिए उनका व्यक्तित्व
प्रेरणा स्रोत भी है। कहते हैं जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। इरफान साहब आपने ‘ज़िंदगी तो लंबी नहीं जी
पर बहुत बड़ी जिंदगी जी’।

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