यह बात अक्सर मुझे तंग करती रही है कि भारत में और विशेष रूप से मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा में साहित्य पर बनने वाली फिल्मों की संख्या इतनी कम क्यों है। वैसे तो यह संख्या हमेशा ही बहुत कम रही है लेकिन पिछले दो तीन दशकों में तो साहित्य पर बनने वाली फिल्मों की संख्या बहुत ही कम हो गई है। इससे ठीक उलट स्थिति हम हॉलीवुड में पाते हैं। वहां हमेशा से किसी भी वर्ष बनने वाली कुल फिल्मों में से कम से कम पचास फीसदी फिल्में किसी न किसी साहित्यिक कृति पर आधारित होती हैं भले ही वह नाटक हो, उपन्यास हो या फिर कहानी हो। इस स्थिति में आज भी कोई कमी नहीं आयी है बल्कि पिछले कुछ वर्षों से तो हॉलीवुड में साहित्य पर बनने वाली फिल्मों की तादाद बहुत बढ़ गई है। मसलन सन् 2015 में हॉलीवुड में साहित्य पर बनने वाली फिल्मों की संख्या थी    पिछले दस सालों में से किसी भी एक साल को ले लें। आप निश्चित रूप से यह पायेंगे कि उस साल कम से कम बीस पच्चीस फिल्में साहित्य या कला के किसी अन्य रूप पर आधारित होंगी। चाहे वे गंभीर साहित्य पर आधारित हों या फिर पॉपुलर क़िस्म के साहित्य यानी बेस्टसैलर्स पर और यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं अमरीका के कला सिनेमा की बात नहीं कर रहा हूं जिसे इंडी सिनेमा के नाम से जाना जाता है। मैं वहां के मुख्यधारा के सिनेमा की ही बात कर रहा हूं। वहां की बड़ी से बड़ी ब्लॉकबस्टर्स साहित्य पर आधारित होती हैं। और सुपरहिट भी होती हैं। इन सब बातों के मद्देनज़र इस बात की पड़ताल करना ज़रूरी है कि आखिर क्या कारण है कि हमारे यहां के साहित्य के विशाल भंडार का फिल्म निर्देशक लाभ नहीं उठाना चाहते। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे साहित्य और ख़ास तौर पर हिन्दी साहित्य में ही ऐसी कुछ कमी है जो हिन्दी फिल्मों के निर्देशक इन पर फिल्में बनाने से डरते हैं।

सबसे पहले तो जिस बात पर ध्यान जाता है वह यह कि हमारे यहां मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा बहुत ही फॉर्मूलाबद्ध सिनेमा है। इसमें प्रयोगधर्मिता को कभी भी अधिक बढ़ावा नहीं दिया गया। नई कहानियों की तलाश करने और इसके लिए भारतीय कथा साहित्य को खंगालने की बजाय वही घिसीपिटी प्रेम कहानियां दोहराई जाती रही हैं नए नए चेहरों के साथ। कहीं प्रेम का त्रिकोण होता है तो कहीं चौकोण। वास्तविकता तो यह है कि बिना प्रेम के तो मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा का काम ही नहीं चलता। जबकि हॉलीवुड में ऐसी कितनी ही फिल्में बनती रहती हैं और हमेशा से बनती आई हैं जिनमें कोई नायिका ही नहीं होती और जब नायिका ही नहीं है तो प्रेम किससे हो ? ज़ाहिर है कि ऐसे में प्रेम कहानी का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। मसलन वहां की ज़्यादातर साइंस फ़िक्शन वाली फिल्मों में कोई प्रेम कहानी नहीं होती। यहां जुरैसिक पार्क (छ भाग), इंडीपेंडेंस डे, वॉल्कैनो, डे आफ़्टर टुमॉरो आदि फ़िल्मों का नाम लिया जा सकता है। बहुत सारी ऐक्शन फिल्मों के नाम भी गिनाए जा सकते हैं जिनमें लवस्टोरी के नाम पर आपको कुछ ख़ास नहीं मिलेगा। जबकि ऐसा नहीं है कि उन लोगों पर बॉक्स ऑफ़िस का दबाव नहीं है। हॉलीवुड की फिल्मों में जितना ज़्यादा पैसा लगता है उसको देखते हुए तो वे लोग बहुत ज्यादा ख़तरा उठाते हैं। फिर भी उन लोगों को ये डर नहीं सताता कि हम प्रेम कहानी नहीं रखेंगे तो फिल्म फ्लॉप हो जाएगी। इतना ही नहीं वहां की फिल्मों में जम के नए नए प्रयोग किए जाते रहे हैं। हमारे यहां तो प्रेमचंद के ज़माने से लेकर आज तक निर्देशकों को यही डर सताता रहा है कि अगर लव स्टोरी न रखी गई तो फ़िल्म चलेगी कैसे। यही वजह है कि कोई मिल गया जैसी साइंस फ़िक्शन की फ़िल्म में भी आपको प्रेम कहानी के दर्शन हो जाते हैं। दूसरी ओर आतंकवाद जैसी गंभीर समस्या पर बनने वाली माचिस या सरफ़रोश जैसी फिल्मों में भी इश्क़ मुहब्बत का ऐंगल ज़रूरी समझा जाता है। नहीं तो फ़िल्म के बॉक्स ऑफ़िस पर अच्छा बिज़नेस कर पाने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा रहता है।

यहां इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस सूरत ए हाल के लिए हमारे दर्शक भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। उन्हें भी हर तरह की फ़िल्म में रोमांस चाहिए होता है भले ही वो ऐक्शन फिल्म हो या साई-फ़ाई फ़िल्म। कम से कम हिन्दी फिल्मों के निर्देशक ऐसा ही मानते हैं। असल में हमारे यहां रोमांस और गानों के बिना किसी मुख्यधारा की फिल्म की परिकल्पना नहीं की जा सकती भले ही वो फिल्म किसी भी ज़ॉनरा की हो।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां एक तरफ हिन्दी फिल्मों की फॉर्मूलाबद्धता फिल्मांतरण के आड़े आती रही है वहीं ये बात भी सच है कि हिन्दी का कथा साहित्य भी किसी हद तक इस सोचनीय स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है। हिन्दी में बहुत अलग अलग तरह के उपन्यास लेखन को बढ़ावा नहीं दिया गया है। यानी इसमें विषयगत और विधागत विविधता की बेहद कमी रही है। हमारे यहां के अधिकतर उपन्यास किसी न किसी सामाजिक समस्या को लेकर लिखे जाते हैं। इसमें अधिक से अधिक राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं को और जोड़ सकते हैं। लेकिन इनके अलावा भी बहुत और तरह के उपन्यास होते हैं जिनको हिन्दी में ढूंढ पाना मुश्किल है। साइंस फिक्शन के उपन्यास तो बिल्कुल नदारद ही रहे हैं हिन्दी में। असल में हिन्दी उपन्यास अपने को अतिरिक्त गंभीरता से लेता रहा है और यह स्थिति उसके बहुविध विकास के लिए अच्छी नहीं रही है। अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं में सामाजिक के अलावा ऐतिहासिक, जासूसी, साइंस फिक्शन, बच्चों के लिए आदि अनेक प्रकार के उपन्यास आसानी से मिल जाएंगे। लेकिन चूंकि हिन्दी के आलोचक इस तरह के उपन्यासों को नीची निगाह से देखते रहे हैं इसलिए लेखकों ने इन्हें लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं ली। अंग्रेज़ी में कभी किसी ने जासूसी उपन्यासकार आर्थर कॉनेन डॉयल या अगाथा क्रिस्टी को या साइंस फिक्शन के सुप्रसिद्ध लेखकों एच जी वेल्स या जूल्स वर्न को नीची निगाह से देखने की हिम्मत नहीं की और न इन्हें चार्ल्स डिकन्स और थॉमस हार्डी जैसे महान सामाजिक उपन्यासकारों से किसी तरह कम करके आंका गया। मुख़्तसर ये कि हिन्दी कथा साहित्य में उस तरह की विविधता ही नहीं है जैसी अंग्रेज़ी में है और जिसका लाभ फिल्म निर्देशक उठा सकें।

इसी तरह हम देखते हैं कि हिन्दी में ऐसे नाटक भी बहुत अधिक नहीं हैं जिन पर बॉक्स ऑफिस पर चल सकने लायक़ फीचर फिल्में बन सकें। हिन्दी में नाटकों पर आधारित जो फिल्में बनी भी हैं वे अधिकतर ग़ैर हिन्दी साहित्य पर बनी हैं। ये स्थिति भी साहित्य के फिल्मांतरण के लिए बहुत आदर्श नहीं कही जा सकती।

एक और बात जो हिन्दी साहित्य के कम फिल्मांतरण के लिए जिम्मेदार है वो यह है कि हिन्दी फिल्मों के अनेक लब्धप्रतिष्ठ निर्देशक खुद अपनी कहानियां लिखना पसन्द करते हैं या फिर विदेशी साहित्य का फिल्मांतरण करना ही पसन्द करते हैं। उदाहरणस्वरूप अनुराग कश्यप, अनुराग बसु, मधुर भंडारकर, शूजित सरकार, आर बाल्की, विशाल भारद्वाज, नीरज पांडे, रजत कपूर, चन्द्रप्रकाश द्विवेदी आदि निर्देशकों की लंबी सूची है। ऐसे में हिन्दी साहित्य के सफल और सार्थक फिल्मांतरण के लिए स्थितियां और भी प्रतिकूल हो जाती हैं।

पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी फिल्मों में एक और प्रवृत्ति उभर कर सामने आई है जिसके कारण भी साहित्य को फिल्मों का आधार नहीं बनाया जा रहा। आजकल तो यह प्रवृत्ति बिल्कुल हावी ही हो गई है। यह ट्रेंड है बाओपिक्स का। डर्टी पिक्चर, शाहिद, पान सिंह तोमर, भाग मिल्खा भाग, मैरी कॉम जैसी कुछ बाओपिक्स के सफल होने के बाद तो जिसको देखो बाओपिक्स ही बना रहा है। लगता है जैसे बाओपिक्स की बाढ़ सी आ गई है। देखते ही देखते कितनी बाओपिक्स आ चुकी हैं। इसी क्रम में 2015 में मांझी द माउंटेन मैन, गौर हरि दास्तान और मैं और चार्ल्स आई। 2016 में एम एस धोनी, नीरजा, सरबजीत, अलीगढ़ और दंगल आदि फिल्में आईं। 2017 में राहुल बोस की पूर्णा और हसीना पारकर आईँ। जल्दी ही कुछ और बाओपिक्स आने वाली हैं जैसे झांसी की रानी पर बनने वाली मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी, सायना नहवाल पर बनने वाली फिल्म सायना (फिलहाल अनिश्चित काल के लिए रुकी हुई है) और संजय दत्त पर बनने वाली बाओपिक संजू। हालांकि यह ट्रेंड शुरू तो बैंडिट क्वीन (1994) से ही हो गया था लेकिन इसने ज़ोर पकड़ा है हाल के वर्षों में। बाओपिक का विषय तो अलग लेख की मांग करता है। यहां इसका ज़िक्र इसलिए किया जा रहा है कि इस प्रवृत्ति के कारण साहित्य पर फिल्में बनने की संभावना और भी कम हो गई है। इस वक्त असली व्यक्तित्वों (विशेष रूप से खिलाड़ियों) और असली घटनाओं (विशेष रूप से आपराधिक घटनाओं) पर फिल्में बनाने का दौर चल रहा है (जैसे तलवार और रुस्तम) ऐसे में यह आशा करना कि लोग साहित्य पर फिल्में बनायेंगे ख़ामख्य़ाली ही होगी। बॉलीवुड में तो जो ट्रेंड एक बार चल पड़ा वो चल ही पड़ता है जब तक कि उसकी सारी संभावनाएं चुक न जाएं।

ऊपर गिनाए गए सभी कारणों से ऐसा लगना स्वाभाविक है कि साहित्य और उस पर भी हिन्दी साहित्य पर बड़े पैमाने पर फिल्में बनने में अभी अनेक वर्ष और लगेंगे। लेकिन इस अंधकार में आशा की किरण बनकर ये ख़बर आई है कि अगले दो तीन वर्षों में साहित्य पर आधारित कई फिल्में आने वाली हैं। सुप्रसिद्ध निर्देशक मीरा नायर विक्रम सेठ के महाकाव्यात्मक उपन्यास कोई अच्छा सा लड़का पर फिल्म बनाने जा रही हैं। मेघना गुलज़ार की जासूसी थ्रिलर फिल्म राज़ी आने वाली है जो हरिन्दर सिक्का के पहले उपन्यास कॉलिंग सहमत पर आधारित है। इसी तरह दुनिया भर में खूब नाम और पैसा कमा चुकी द फॉल्ट इन अवर स्टार्स पर निर्देशक मुकेश चोपड़ा अपनी पहली फिल्म बनाने जा रहे हैं। सर्वविदित है कि मूल अंग्रेज़ी फिल्म इसी नाम के जॉन ग्रीन के उपन्यास पर आधारित थी। अनुजा चौहान के 2008 में प्रकाशित बेहद लोकप्रिय उपन्यास द ज़ोया फैक्टर पर अभिषेक शर्मा फिल्म बनाने जा रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार सागरिका घोष की हाल में प्रकाशित इंदिरा गांधी की जीवनी इंदिरा : इंडियाज़ मोस्ट पावरफुल प्राइम मिनिस्टर के अधिकार अभिनेत्री विद्या बालन ने खरीदे हैं। अंग्रेज़ी के उपन्यासकार और नाटककार सुजित सराफ के उपन्यास दी कन्फेशन्स ऑफ सुल्ताना डाकू पर भी मधुरिता आनन्द के निर्देशन में फिल्म बनने जा रही है। पॉला हॉकिन के बेस्टसेलर उपन्यास द गर्ल ऑन द ट्रेन पर हॉलीवुड में पहले ही सफल फिल्म का निर्माण हो चुका है। अब इस पर हिन्दी में भी फिल्म बनने जा रही है। और अंत में एक किताब का और ज़िक्र करना चाहूंगा। ऐड्रियन लेवी और कैथी स्कॉट क्लार्क द्वारा मिलकर लिखी गई द एक्ज़ाइल : द फ्लाइट ऑफ ओसामा बिन लादेन पर विशाल भारद्वाज के निर्देशन में फिल्म बनने जा रही है।

हिन्दी साहित्य न सही अंग्रेज़ी साहित्य ही सही लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है कि साहित्य पर अनेक वर्षों बाद (कला फिल्म आंदोलन के बाद) इतनी सारी फिल्में बनने जा रही हैं। यह साहित्य के फिल्मांतरण के लिए बहुत शुभ लक्षण है। हमें इनकी कामयाबी की दुआ करनी चाहिए क्योंकि यदि ऐसा होता है तो बहुत संभव है कि हिन्दी साहित्य पर भी बड़े पैमाने पर फिल्में बनने लग जाएं।

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