पत्र साहित्य

पत्र-साहित्य ही वह विधा है जिसके द्वारा मनुष्य समाज में रहते हुए अपने भावों एवं विचारों को दूसरों तक पहुँचाता है। पत्र सूचना संप्रेषण का सबसे प्राचीनतम साधन है।प्राचीनकाल से ही पत्र का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्व रहा है। किसी भी तरह की सूचना के लिए पत्र ही एकमात्र साधन हुआ करते थे। ग्रामीण समाज तो बहुत लंबे समय तक पत्रों के माध्यम से सूचना ग्रहण करता रहा, क्योंकि सूचना के जितने भी आधुनिक तंत्र हैं, वे सभी ग्राम्य समाज की पहुँच से दूर रहे हैं।
पत्र लेखन का आविष्कार लिखने की कला के साथ ही हो गया और तभी से मनुष्य ने इसे अपनी सूचना के आदान-प्रदान का माध्यम बना लिया। विवाह की सूचना, मृत्यु का संदेशा, दूर-दराज रहते हुए अपने परिवार की ख़बर लेने और देने का कार्य प्रायः ये चिट्ठियाँ ही किया करती रहीं हैं। प्रेमी- प्रेमिकाओं ने आपसी संपर्क के लिए पत्र को ही विश्वसनीय माध्यम बनाया,जिसमें संवेदना -प्रेम और रिश्तों को नई ज़मीन मिली।
पत्र व्यक्ति के निज़ी और सामाजिक संवेदनाओं के साधन रहे हैं और साहित्यकारों ने भी इस साधन का भरपूर उपयोग किया है। वस्तुतः प्रत्येक साहित्यकार की एक विचारधारा के दबाव में अक़्सर यह देखा गया है कि घटना का आवश्यक अंश छूट जाता है या जानबूझकर छोड़ना पड़ता है। इस आवश्यक अंश को लेखक पत्रों के द्वारा समकालीन लेखक मित्रों या कई बार अपने पाठकों तक पहुँचाता है। आत्मीय संवाद के साथ साथ पत्रों में सामाजिक समस्याओं का भी ज़िक्र मिलता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला, प्रेमचंद, रेणु, केदरनाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, अज्ञेय, नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश आदि वरिष्ठ रचनाकारों और आलोचकों ने समय-समय पर सामाजिक समस्याओं कुरीतियों और विकृत होती व्यवस्था का संकेत अपने पत्रों में किया है।
यह प्रामाणिक तथ्य है कि साहित्यकारों के अप्रकाशित पत्र बड़ी मात्रा में विनष्ट हो चुके हैं। हज़ारों पत्र प्रकाशन की प्रतीक्षा में सीलन और दीमक की भेंट चढ़ रहे हैं। यदि इन अप्रकाशित पत्रों का प्रकाशन संभव हो जाए तो हिंदी साहित्य में निश्चय ही नई साहित्यिक बहसें, नए विचार-विमर्शों का दौर प्रारंभ हो जाएगा और इतिहास के लिए नई सामग्री उपलब्ध हो सकेगी। डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल कहते हैं कि ”मेरी समझ में किसी व्यक्ति की भारी-भरकम साहित्यिक कृति आँधी के समान है, उसके साहित्यिक पत्र उन झोकों के समान हैं, जो धीरे से आते जाते रहते हैं और वायु की थोड़ी मात्रा साथ लाने पर भी सांस बनकर जीवन देते हैं।”1
हिंदी साहित्य में इधर कुछ वर्षों में पत्र-संग्रह का प्रचलन चल पड़ा है, हालाँकि कम मात्रा में प्रकाशन हुआ है लेकिन इन सबके बीच कुछ महत्वपूर्ण संग्रह देखने को मिले हैं। प्रमुख पत्र संग्रह हैं- चिट्ठी पत्री, दो खंड(1962 ई) फ़ाइल और प्रोफ़ाइल (1968 ई.), बच्चन पत्रों के दर्पण में (1970 ई.), निराला के पत्र (1971 ई.), पंत के दो सौ पत्र बच्चन के नाम (1971 ई.), बनारसीदास चतुर्वेदी के पत्र (1971 ई.), निराला की साहित्य साधना खंड 3 (1976 ई.), प्रसाद के नाम पत्र (1976 ई.), यशपाल के पत्र (1977 ई.), अनुभूति के क्षण (1980 ई.), दिनकर के पत्र (1981 ई.), द्विवेदी जी के पत्र पाठक जी के नाम (1982 ई.), पत्र हजारी प्रसाद द्विवेदी (1983 ई.), अंचल पत्रों में (1983 ई.), पाया पत्र तुम्हारा (1984 ई.), नागार्जुन के पत्र (1987 ई.) आदि पत्र संग्रह महत्वपूर्ण हैं।
सन् 1990 के बाद के वर्षों में देखें तो मित्र संवाद (1992 ई.), राकेश और परिवेश पत्रों में (1995 ई.), आपस की बातें (1996 ई.), प्रतिनाद (1996 ई.), तीन महारथियों के पत्र (1997 ई.), मैं पढ़ा जा चुका पत्र (1997 ई.), चिठिया हो तो हर कोई बाँचे ( 1999 ई.), अक्षर अक्षर यज्ञ (1999 ई.), कवियों के पत्र (2000 ई.), हमको लिख्यो है कहा (2001 ई.), पत्राचार (2001 ई.), पत्रों की छांव में (2003 ई.), अत्र कुशल यत्रास्तु (2005 ई.), अब वे वहाँ नहीं रहते (2006 ई.), काशी कस नाम (2006 ई.), बनारसीदास चतुर्वेदी के पत्र दो खण्ड (2006 ई.), प्रियराम (2006 ई.), मेरे युवजन मेरे प्रियजन (2007 ई.), चिट्ठियों के दिन (2009 ई.), देहरी पर पत्र (2010 ई.), अज्ञेय के पत्र (2011 ई.) आदि कई महत्वपूर्ण पत्र संग्रह प्रकाशित हुए।
मित्र संवाद डॉ. रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल के बीच होने वाले दीर्घकालीन पत्र-व्यवहार का संग्रह है। इस संग्रह को दो भागों में प्रकाशित किया गया है।दरअसल,ये पत्र 56 वर्षों की लंबी अवधि की मित्रता का दस्तावेज़ हैं। हालाँकि, पत्र दोनों तरफ़ से लगातार भेजे गए हैं, फिर भी कहीं कहीं देखेंगे कि एक ही लेखक के लगातार पत्र दिखाई देंगे। उसका प्रमुख कारण हैं कि रामविलास जी नौकरी के सिलसिले में मकान बदलते रहे जिसकी वजह से केदार जी के पत्र खो गए। कहीं कहीं केदार जी के ही पत्र लगातार दिखाई पड़ेंगे उसका प्रमुख कारण है रामविलास शर्मा अपने अध्ययन और अध्यापन के व्यस्त कार्यक्रम से पत्र के लिए समय नहीं निकाल पाते थे।
अशोक त्रिपाठी भूमिका में लिखते हैं कि – “मित्र संवाद के पत्र महज़ पत्र नहीं हैं – आज के युग के लिए दुर्लभ, अकुंठ और अनाविल मैत्री के जीवंत दस्तावेज़ हैं। इन पत्रों से गुज़रना मेरे लिए ब्रह्ममुहूर्त की, फूलों की ताज़ी ख़ुशबू से भरी, विलम्बित लय में चलने वाली बयार से गुज़रना था। छप्पन वर्षों की परवान चढ़ती मैत्री, हर सोपान पर एक प्रीतिकर ताज़गी से उत्फुल्ल कर देती थी-अंदर तक सराबोर हो जाता था। पत्र पढ़ते-पढ़ते भावोद्रेक में गला रुँधा है, आँखों में पानी की चादर बुन उठी है और अक्सर कब होठों पर मुस्कुराहट खेल गयी-पता ही नहीं चला।”2
आज की बनावटी दुनिया में जहाँ इंसान चेहरे पर चेहरा चढ़ाकर मित्र बनाते हैं उस जगह मित्र संवाद के दो मित्रों को पढ़ेंगे तो उनके जज़्बात मित्रता की अलग दुनिया से, अलग ही आत्मीयता से परिचय कराएंगे।केदार जी का हमेशा एक ही ठिकाना रहा बाँदा और रामविलास जी के ठिकाने नौकरी की वजह से बदलते रहे। इसके बावजूद उनकी मित्रता हमेशा स्थिर रही, क़ायम रही।उसमे कहीं भी भटकाव, बदलाव नहीं आया।
मुझे मित्र संवाद के दोनों मित्र कृष्ण- अर्जुन के समान लगते हैं। जैसे कृष्ण ने सारथी बनकर अर्जुन को सफल बनाया कुछ इसी तरह केदार जी के सारथी रामविलास जी लगते हैं। केदार जी अपनी कविता को बेहतर बनाने के लिए, अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए सदैव पत्र में रामविलास जी से उनके विचार की मांग करते हैं और कहते हैं प्यारे जरा कस के आलोचना करना ताकी मैं कविता और ज़ोरदार लिख सकूँ,उसमे सुधार कर सकूँ।
अशोक त्रिपाठी लिखते हैं-“मित्रता एक महत्वपूर्ण जीवन मूल्य है- इसे हम इन पत्रों से ही प्रमाणित पाते हैं। मित्रता करने से पहले हमें अपने संभावित मित्र की कमजोरियों से परिचित होना अनिवार्य है। अगर हम उन कमजोरियों से भी उतना ही प्यार कर सकें जितनी अच्छाइयों से तब तो हमें मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहिए अन्यथा हाथ खींचे ही रहना ही दोनों के हित में है।”3 विपरीत मिज़ाज़ के होने के बावजूद साहित्यिक गलियारों में केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा की दोस्ती चर्चा का विषय रही। दोस्ती इतनी गाढ़ी रही कि जैसे वे एक-दूसरे को चुनौती देते हुए प्रतीत होते हैं।एक कवि है और दूसरा आलोचक। केदार जी जब भी कोई कविता लिखते हैं तो रामविलास जी से कहते हैं बताओ कैसी लिखी है और रामविलास जी उत्तर में कई बार कविता के शिल्प पर चर्चा करते हैं, कभी शब्द बदलने की सलाह देते हैं, कभी कभी पूरी पंक्ति बदलने की सलाह देते हैं और केदार जी दोबारा अपनी कविता पर काम करते हैं और सुधार कर रामविलास जी को भेजते हैं।
रामविलास शर्मा को केदारनाथ अग्रवाल का लिखा हुआ गद्य बेहद पसंद था और उनके गद्य की तारीफ़ भी करते थे जबकि केदारनाथ अग्रवाल को अपनी कविता पसंद थी और उन्हें अपना गद्य प्रिय नहीं था। लेकिन आप केदार जी के पत्र में लिखे हुए गद्य को देखेंगे तो कहेंगे कि वाकई केदार जी का गद्य भी केदार जी की कविता सरीखा ऊँचा था। केदार जी का लिखा एक पत्र यहाँ दृष्टव्य है- तारीख़ : 05-12-1943
“प्रिय शर्मा,
मैंने तो तुम्हें लंबा पत्र लिखा और भेजा, तुमने एक छोटा-सा ‘टुटरुं टू’ पोस्टकार्ड ही मेरी ख़िदमत में पेश किया। मैं नहीं जानता कि सिवाय साहित्यिक ज़बान में तुम्हें गाली दूँ और क्या कहूँ। कविताएँ नहीं अच्छी लगीं, जाने भी दो। दोस्त! ख़त को तो बसंत की बहार से भर देते।…मैं तो कलम पकड़ना सीख रहा हूँ। मुझे तुम्हारे विचार बिल्कुल बुरे नहीं लगते।”4
इसी पत्र के जवाब में रामविलास शर्मा लिखते हैं तारीख़ : 08-12-1943
“फ्रीवर्स मेरी जान।
जीते रहो। पत्र पढ़कर तबियत खुश हुई।…मेरी राय एक दोस्त की राय है। उसे सुनो; झगड़ो। करो हमेशा वही जो जचे।कलाकार की यही परख है और समझदार की यह कि औरों की भी सुने।”5
इन दो पत्रों में मित्रता और आलोचक दोनों ही भाव देखने को मिल जाते हैं। इस तरह के अनेकों पत्र इस संग्रह में संग्रहीत हैं।इस संग्रह में पत्र एक तरफ मित्रता की गहरी आत्मीयता से भरे हुए हैं, दूसरे तरफ आलोचक की नज़र, उनके आपसी सहमति-असहमति के स्वर, सुख-दुख का भाव, वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, शंका- समाधान की गूँज है।
संदर्भ-
1 डॉ कैलाश चंद्र भाटिया, रचना भाटिया, साहित्य में गद्य की नई विविध विधाएँ, पृष्ठ-105
2 रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी, मित्र संवाद से गुजरते हुए
(भूमिका) पृष्ठ-22
3 रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी, मित्र संवाद से गुजरते हुए (भूमिका) पृष्ठ-30
4 रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी, मित्र संवाद, पृष्ठ-68
5 रामविलास शर्मा, अशोक त्रिपाठी, मित्र संवाद, पृष्ठ-70

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *