गुजरात में दलित पत्रकारिता प्रारंभ सात-आठ दशक से पहले हो चुका है तथापि उसकी स्पष्ट छवि अब तक नहीं बन पायी। दलित पत्रकारिता अर्थात वर्ण व्यवस्था, जाति प्रथा,अस्पृश्यता एवं सामाजिक भेद-भाव का शिकार बना हुआ जनसमूह, जो इस देश में आज भी उपस्थित है। डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान में दी हुई संज्ञा दलित या अनुसूचित जाति के रुप में पहचाना जानेवाला जनसमूह इतिहास के विविध काल खंड़ में अलग-अलग नामों से जाना जाता रहा है, जैसे—शूद्र, अति शूद्र, पंचम, अवर्ण, अस्पृश्य चांडाल, अंत्यज, हरिजन, दलित, डीप्रेस्ड वर्ग, बहिष्कृत, बहुजन, अनुसूचित जाति जिनके साथ जूडे हुए है तिरस्कार एवं उपेक्षा भाव। जिनकी विशिष्ट समस्याओं को मुखर करने की आवश्यकता स्वयं स्पष्ट है। दलितों की समस्यओं को राष्ट्रीय एजेन्डा पर लाने का श्रेय डॉ. आंबेडकर को जाता है। वे दलित पत्रकारिता के आद्य प्रणेता एवं प्रेऱणा स्रोत रहे हैं। उन्होंने प्रथम सामयिक ‘मूकनायक’ में तुकाराम के अभंग के उद्धरण के माध्यम से जो कहा—-
काय करु आता धरुनिया भीड़, निशंक है तौंड वाजविले,
नव्हे जगी कोणी,मुक्किकातयांचा जाण, सार्थक लाजुन नव्हे हित। (मराठी)
(अब मैं संकोच रखकर क्या करुँ, यूं भी मैं तो बिन्धास्त होकर बोलता रहा हूँ, इस दुनिया में गूंगे का कोइ काम नहीं, शर्म से न हित या कोइ अर्थ साध सकते है। मैं चूप बैठनेवाला नहीं हूं।)
इन पंक्तियों के द्वारा डॉ.आंबेडकर ने पत्रकारिता की बात स्वतः स्पष्ट की है। करोडों मूक लोगों की आवाझ अर्थात दलित पत्रकारिता ये भी स्पष्ट कहा ही है।
दलित पत्रकारिता का अर्थ स्पष्ट करते हुए वे कहते है—-‘हमारे बहिष्कृत लोगों के साथ जो अन्य़ाय हो रहा है, आगे भी होनेवाला है, उसका हल ढूँढने हेतु, उसका भावि पथ खोजने की चर्चा के लिए पत्रिका से श्रेष्ठ और कोई साधन नहीं।‘
1920 में प्रकट हो रहे मराठी पत्रिका मूकनायक को दलित पत्रकारिता का प्रथम सशक्त आविष्कार माने तो भी उसके पूर्व भी दलित पत्रकारिता की जमीं बांझ न थीं। महान समाज सुधारक ज्योतिबा फूले का दीनबंधु साप्ताहिक दलित पत्रकारिता का आरंभ बिंदु था। उस काल में हिंदु प्रकाश, दीनबंधु, सुबोध पत्रिका, मराठासुधाकर –सी पत्रिकाओं में गोपालबुआ लिखते थे। उन्हें प्रथम दलित नेता माना जा सकता है। 1904 में शंकर प्रासादित द्वारा स्थापित ‘सोमवंशीय हित चिंतक संस्था’ अस्पृश्यता निवाऱण और अस्पृश्यों की शिक्षा हेतु कार्यरत थीं। 1 जुलाई 1908 में इसके द्वारा ‘सोमवंशीय मित्र’ पाक्षिक प्रकाशित हुआ जो जून-1910 तक चला। निवृत न्यायधीश सर नारायण गणेश चंदावरकर के अध्यक्ष पद पर स्थापित डिप्रेस्ड क्लासीझ मिशन सोसायटी के साथ विठ्ठल रामजी शिंदे जुडे हुए थे जिन्होंने समाज सुधार एवं अस्पृश्यता निवारण हेतु 1907 में बहिष्कृत भारत नामक पत्रिका का प्रकाशन किया था।
दलित समस्याओं की लगातार चर्चा करनेवाली पत्रिका दीनमित्र,जागरुक,डेक्कन,रेटत,विजयी मराठा ज्ञान प्रकाश और सुबोध उल्लिखित है। हिन्दी की दलित पत्रकारिता पर आंबेडकर का प्रभाव, डॉ.आंबेडकर के शोध आलेख में डॉ. श्यौराज सिंह लिखते है कि— ‘दलित पत्रिकाओं का हेतु जितना महान था उतना उसका प्रभाव व्यापक, सशक्त और पर्याप्त नहीं था। आर्थिक कठिनाइयां, अच्छे पत्रकारों का अभाव, दीनता, अल्प शिक्षित पाठक वर्ग, विज्ञापनों का अभाव एवं आय के सीमित स्रोत जैसी समस्याएँ दलित पत्रिकाएं भुगत रही थीं’।
डॉ.आंबेडकर ने अपने जीवन के दौरान पांच पत्रिकाएं प्रकाशित की और जारी भी की। 1.मूकनायक(1920–1923) 2.बहिष्कृत भारत(1927-1929) 3. समता(1928-1929) 4. जनता (1930-1956) 5. प्रबुध्ध भारत (1956-1958) इस प्रकार बहुमूल्य और मातबर प्रदान रहा उनका। डॉ.आंबेडकर के इस प्रदान के कारण दलित पत्रकारिता जन-जन तक पहुंची और वे पत्रकारिता के प्रेरणा स्रोत बन गये।इनकी निश्रा में 50 से अधिक दलित पत्रिकाएं फूली-फली। अप्रैल 1930 में अहमदाबाद से प्रकाशित पत्रिका ‘नवयुवक’ से गुजराती दलित पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ। इसके संपादक बडौदा के दलित युवान ल्लुभाई मकवाना थे। इस पत्रिका की विशेषता रही है कि कोम के लिए आत्म-बलिदान हेतु युवाओं को आह्वान किया गया। स्वामी सेवानंद द्वारा युवा जागृति का भी आह्वान किया गया था। आंबेडकर युग 1930-1956 तक गिने तो इस समय के दौरान गुजराती दलित पत्रिकांओ के दो प्रकार देखने को मिलते है—(1) गांधीवादी गुजराती दलित पत्रिकाएँ, (2) आंबेडकरवादी गुजराती दलित पत्रिकाएँ। 20 अक्टूबर 1931 से अस्पृश्यता निवारण संघ के मुख पत्र के रुप में दलित उन्नति पाक्षिक का प्रारंभ हुआ था, जिसके संपादक बिन दलित थे और दलितोद्धार की बात करते थे। 1932 में हरिजनों की मासिक पत्रिका विजय का प्रकाशन हुआ जिस पर कॉंग्रेस एवं गांधीवाद का गहरा प्रभाव था।जिस पत्रिका की उम्र दो साल की थीं। 1934 में हरिजन समाचार प्रकट हुआ, 1937 में प्रकाशित ‘अंत्यज’ मासिक पत्रिका में दलित समस्याएँ बिन दलित द्वारा रखी जाती थीं।ये एक मात्र पत्रिका लोकप्रिय सचित्र थीं। 1949 में ‘तुलसी क्यारो’ एवं मंगल प्रभात पाक्षिक पत्रिका प्रकाशित होती थीं, जिसके अंतर्गत किश्तों में आंबेडकर ग्रंथ “शूद्र कौन था” उपन्यास किश्तों में छपा था। जय भीम में दलितों के संघर्ष एवं आंदोलन,मानव अधिकार हेतु हलचल के समाचार अनवरत छपते रहे।अभी-अबी आझाद भारत के दलितों की स्थिति, उसकी चुनौतियां,क्या थीं इन प्रश्नों के समाधान के लिए कॉंग्रेसी नेता क्या करेंगे, आदि का चित्र इससे प्राप्त होता था।
1 मार्च 1951 में समानता का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ। ये सामयिक आंबेडकर के आदेशानुसार “दलित जनता उद्धार के लिए सतत प्रवृत हो जाए….भगवान बुद्ध की वाणी इस सत्य को समर्थित करें” का उद्घोष कर रहा था। 1952 के मुंबई विधान सभा चुनाव में चाणस्मा,हारिज, पाटण क्षेत्र से खेमचंदभाई चावडा की जीत हुई।उन्होंने अपने कार्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1953 में 1 जुलाई से टंकार पाक्षिक को जन्म दिया।इस पत्रिका से जुड़े जयंती भाई ने 1955 में अहमदाबाद से तमन्ना पाक्षिक का प्रारंभ किया। जिसमें दलित जीवन के अनेक पक्षों का उद्घाटन होता था। समता-स्वतंक्षता-बंधुता की एक मात्र गुजराती मासिक पत्रिका ज्योति थीं, जो भगवान बुद्ध और आंबेडकर के विचारों के प्रचार-प्रसार कार्य को समर्पित थीं।ज्योति के मुखपृष्ठ पर आंबेडकर का विचार संदेश रखा जाता था।
1960 के पश्चात प्रकाशित दलित पत्रिकाएं—–
बींसवीं शती के उतरार्ध के चार दशक दलित इतिहास की द्रष्टि से गुजरात राज्य के अलग अस्तित्व के पश्चात, दलित विकास की समस्याएँ, कोमी दंगे,आंतरिक खिंचाव, अनामत विरोधी आंदोलन और बाबरी ध्वंस का काल था। इसी समय में दलित पेंथर तथा अन्य दलित आंदोलनों का जन्म हुआ था। 1960-1970 के दौरान अहमदाबाद से अंबालाल वोरा के संपादन में आंतर्नाद और ईश्वरलाल शाह के संपादन में परिवर्तन पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थी। प्रायश्चित पत्रिका का संपादन गांधीवादी कार्यकर दलपत श्रीमाली करते थे। उन दिनों वह लेखक, पत्रकार और शोधकर्ता के रुप में वे विख्यात हो चुके थे।उन्होंने कहा कि—आज जनता भ्रष्टाचार को जडमूल से नेस्त वाबूद करना चाहती है,जिन पर तिरस्कार छूटे ऐसे कूकर्म करनेवालों के प्रति जनता में पूर्ण आक्रोश है। ऐसे समय में कूचले वर्ग की घुटनभरी जुबान को वाचा प्रदान करनेवाली पत्रिका गरुड का जन्म हुआ।1971 से 1978 तक ये प्रकाशित होती रही। दलपत श्रीमाली का कहना है—गरुड का कार्य करना अर्थात विषधर के बिल में हाथ डालने से भी भयानक था। गरुड का महत्वपूर्ण कार्य था कि उसने गांधीवादी सेवकों के दंभ को बेनकाब किय।.इस पत्रिका में प्रकाशित समाचार ने अच्छे-अच्छे लोगों की निंद ऊड़ा दी। गरूड के संपादक आत्मखोजी सुधारक भी थे।1973 से भावनगर से सामंतभाई विंझुडा के संपादन में दलितबंधु प्रकाशित होता था।ये किसी वाद या पक्ष का वाद्यंत्र नहीं था अपितु दलित कल्याण की चौक्कस विचारधारा का नीडर और निष्पक्ष मासिक था। मुंबई के माह्यावंशी शिक्षा प्रचारक संघ द्वारा पिछले 36 सालों से अर्थात 1974 से तरस नामक त्रैमासिक प्रकाशित हो रहा था, उसका मूल ध्येय मंत्र ‘प्यास: सत्य और तथ्य’ था। इसके संपादक प्रो.मणिलाल रानवेरिया थे।जिन्होंने मानव जीवन और समाज की जागृति एवं विकास के कार्य अपनी लेखनी के माध्यम से किए। उनकी दीर्घ द्रष्टि के कारण पत्रिका ने प्रसिद्धि पायी। “दलित पेंथर गुजरात“ के मुखपत्र के रुप में 6 दिसम्बर1975 से नारण वोरा के संपादन में ‘पेंथर’ मासिक पत्रिका का प्रारंभ हुआ। इस पत्रिका का ध्येय था सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की निराशा में से राह खोजना और मनुष्य की मूल बातें जान-समजकर भविष्य का चिंतन करना। विपत्तियों से भागने की अपेक्षा हँसते हुए सामना करके,हस्तगत साधनों का उपयोग कर शोषितों के शोषण को मुखर रुप में प्रस्तुत करना। पेंथर मासिक ने गुजराती दलित पत्रकारिता में अमूल्य प्रदान किया है। इस पत्रिका ने गुजरात के दलितों में सामजिक, राजकीय, साहित्यिक, सांस्कृतिक चेतना का स्फूरण किया।
1980 से 1998 धीणोज से प्रकाशित होनेवाले अभ्युदय साप्ताहिक के संपादक रहे महेन्द्रभाई चावडा। इस पत्र में दलितों के अनेक प्रश्न,समस्याएँ,अत्याचार,अन्याय को वाचा मिली है। 1989 से ये अहमदाबाद से प्रकाशित होने लगा था। इसमें दलित रचनाकारों की साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित होती थीं।1980 में अहमदाबाद से मुक्तिनायक मासिक प्रकाशित हुआ,जिसके संपादक सुनितीकुमार सुतरिया थे। इस मासिक का ध्येय था आंबेडकर की सोच को उचित रुप से मल्यांकित करना,उसके आर्थिक,राजकीय,सामाजिक,धार्मिक चिंतन को लोगों तक पहुँचाना। सच्चे कर्मनिष्ठ आंबडकरवादियों को तैयार करके दलित समाज के समाचारों को दलित आंदोलन की भूमिका तक पहुँचाना।समग्र समाज को वैचारिकक्रांति की राह पर तैयार कर इस मनहूस समाज व्यवस्था के सामने संगठित शक्ति से संघर्ष करना। समग्र गुजरात के पिछडे वर्ग की समस्याओं को उजागर करनेवाला सामाजिक मासिक अजंपो सुरत से प्रकाशित हो रहा था। संपादक थे त्रिलोक रेवार। गुजरात में चल रहे अनामत विरोधी आंदोलनो का प्रतिघोष इसमें गुंजता था।
इसी दौर में दलितमित्र पाक्षिक भी प्रकाशित हुआ जिसके संपादक वालजी पटेल का कहना था—‘सदियों से जो प्रजा शोषित-कूचली जा रही है, अपनी अस्मिता, अपना सत्व-चेतन खो चुकी है, उसकी मुक्ति मार्ग हेतु एक पत्रिका बहुत कुछ कर सकती है। जनता के दुःख,दर्द,आशा-अरमानों को वाणी देकर एक समाजोपयोगी जनमत का गठन कर सकती है। जुल्मकारी जनता में भी लोगों की चेतना को जगा सकती है’। आगे वे कहते है—धर्मशास्त्रों की पवित्रता के विचार को आह्वान दिये बिना परिवर्तन संभव नहीं। दलित मुक्ति विष्णु मकवाणा के संपादन में प्रकाशित मासिक पत्रिका थी,जिसका समय था 1986-87। अनवरत 24 साल से प्रकाशित होनेवाली दिशा पत्रिका 1987 में मासिक पत्र रुप में प्रकाशित हुई और 1993 से पाक्षिक रुप धारण कर चुकी। कूचली गई स्त्रियों,बालमजदूर,अस्पृश्य, आदिवसियों की समस्याआओं को मुखर करनेवाली पत्रिका रही। 1989 में गुरू ब्राह्मण समाज के त्रैमासिक मुखपत्र के रुप में अहमदाबाद से कनारसी का जन्म हुआ। दलितों में कर्मकांड करनेवाले गरो-गरूडा(गुरु ब्राह्मतेण) लोग भी अपनी इस बोली को छूपाते है, ये बोलि को पारसी कहा जाता है।गुरू ब्राह्मणों इसे कनारसी कहते है।कनारसी को जीवित रखने के लिए यही शीर्षक दिया गया है। 1978 में कनुभाई व्यास के संपादन में लगाम मासिक पत्रिका आणंद गुजरात से प्रकाशित हो रही थी, जिसका ध्येयमंत्र ‘जन जागृति द्वारा समाज नवरचना का था। ‘1988 में केंद्र के गृह राज्यमंत्री पद पानेवाले योगेश मकवाणा ने अखिल भारत अनुसूचित जनजाति परिषद की स्थापना की और मुख पत्र के रुप में परिषद संदेश नामक गुजराती मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसका मूल उद्देश्य था कि असंख्य फिरका में बंट रही जाति-उपजाति को एकत्रित करना, नीजि स्वार्थ हेतु समाज का विभाजन करनेवाले लोगों के सामने लाल आँख दिखाना, बाबासाहब के मार्ग पर क्रांति करना था। इस पत्रिका में दलित कविताओं को विशेष स्थान मिलता।गुजराती दलित पत्रकारिता में चार रंगबिरंगी रंगों के ऑफसेट मुद्रण के साथ प्रकाशित होनेवाली ये एक मात्र पत्रिका थीं।
दिल्ली के अखिल भारतीय अनुसूचित जाति, जनजाति,पिछडा वर्ग,अल्पसंख्यक कल्याण महासंघ, ‘सेवास्तंभ’ द्वारा अंग्रेजी—हिंदी में ‘वोईस ऑफ धी वीक‘ पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। वही अंग्रेजी-हिंदी पत्रिका 1990 में गुजराती में प्रकाशित हुई। दलित कवि शंकर पेइन्टर इसके मानद संपादक थे। ‘मेहनतकश लोगों का मुखपत्र’ के रुप में इसकी पहचान बनी रही। गुजराती दलित पत्रकारिता में गांधीनगर से दिसम्बर-1983 से अप्रैल-2005 तक प्रकाशित समाजमित्र पत्र का बहुमूल्य योगदान रहा। प्रवेशांक में हेतु स्पष्ट करते हुए लिखा है—-“ अन्याय एवं शोषण की बातें हमें करनी है, भले ही छोटे पैमाने पर हम भी लोकजागरण लाना चाहते है, समाज चेतना के कार्य में समाजमित्र के झरिए जुड़ना चाहते है, हमारी बात यह है कि हम चूप बैठना नहीं चाहते, बस”।
गांधीनगर के कस्बा कुडासण से सामाजिक न्याय का प्रतिबद्ध पाक्षिक, अवसर प्रकाशित होता था।1995-2000 तक इसके संपादक श्रीपाल वर्धन रहे। इस पत्र में विशेषतः सामाजिक न्याय, दलित अधिकार संबंधी आलेख प्रकाशित होते रहे।बाद में मधुकांत कल्पित के संपादन में ये पत्र फूलाफला और दलित कविताएँ एवं दलित आंदोलन के आलेख भी छपते रहे। हिंदी वार्तानुमा नाम-पत्र कहानी जामनगर से 1996 वे में वेरसीभाई गढ़वा के संपादन में प्रकाशित हई। जो शोषित-कुचले लोगों को वाचा देनेवाले साप्ताहिक के रुप में प्रचलन में आया। बाबासाहब के विचारों को समर्पित 1997 से लगातार प्रकाशित मुक्तिनायक एवं प्रबुद्ध भारत गुजरात सरकार के महात्मा फूले दलित पत्रकार पुरस्कार से पुरस्कृत है,और आज भी निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। पिछले 33 सालों से प्रकाशित पत्र नयामार्ग का गुजराती दलित साहित्य अवं पत्रकारिता में अभूतपूर्व प्रदान रहा है।वंचितलक्षी विकास प्रवृति,वैज्ञानिक अभिगम और शोषणहीन समाज रचना के लिए प्रतिबद्ध पाक्षिक के संपादक इन्दु कुमार जानी है। नयामार्ग दलित कविता मंच का परिपाक है। नयामार्ग को भले ही जड़ अर्थ में दलित पत्र न माने पर वह सवागुना दलित पत्र है।
अन्य छिटपुट दलित पत्रों की झांकि—-
आर्तनाद—संपादक—एल.के लोधा,अहमदाबाद।
अखंड भारत—संपा. हरिलाल राणवा, जुनागढ़1989
बामसेफ बुलेटीन— जनक मकवाणा, बडैदा
समानता नो संदेश—संपा. मगनभाइ वणोल, अहमदाबाद-1993.
रविदर्शन—संपा. मोहनलाल आसोडिया, गांधीनगर-1992 तथा अन्य कई पत्र रहे।
**21 वीं शती के दलित पत्र—-
2001 से दलित अस्मिता,वंचित,श्रमिक, शोषितों की लोक लड़त और लोक शिक्षा को समर्पित मासिक पत्र के रुप में पेंथर न्युझ का जन्म हुआ। उसके शीर्ष स्थान पर निम्न विचार टंकित करके उद्देश्य को अभिव्यक्त किया है— “मानव जीवन का मिशन, अन्याय, अत्याचार, शोषण, धर्मांधता, अंध विश्वास, दोषपूर्ण परपराएँ, सामाजिक दोषों का अनवरत विरोध औऱ समता,स्वतंत्रता,भाईचारा तथा न्याय आधारित समाज रचना की सहमति के पक्ष में होना चाहिए।“ भाषा संरचना की द्रष्टि से ऊँझा परिषद द्वारा स्वीकृत गुजराती वर्तनी के अनुसार प्रकाशित होता था। 2001 से प्रकाशमान बहुजन की पुकार अखबार, बहुजन समाज की पीड़ा को वाणी देनेवाला था,जिसके संपादक नरेन्द्र संखालिया थे। 2003 से बहुजन एकता मासिक रुप में अहमदाबाद से प्रकाशित पत्र के संपादक जयप्रकाश प्रेम थे। इस पत्र का मूल मंत्र था—समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व एवं मानवमूल्यों के सजग प्रहरी। 2001 से बनासकांठा जिल्ला संगठन पत्रिका का प्रकाशन हुआ,जो 2004 में दलित अधिकार एवं 2005 में दलित अधिकार शक्ति के नाम से प्रकट होती रही। 1927में बाबासहब ने बहिष्कृत भारत नाम से पत्र प्रारंभ किया था, इसी नाम से 2002 में वैचारिक क्रांति द्वारा सामाजिक जागृति लाने को संकल्पबद्ध बहिष्कृत भारत के संपादक है धाराशस्त्री गौतम गोहिल। गुजराती दलित पत्रकारिता के इतिहास में दलित शक्ति, एक एसा मासिक पत्र है जो सर्वांग दलित है पर इसके संपादक बिनदलित, प्रमुख धारा के दैनिक-सामयिक पत्रकारिता की नयी पीढ़ी का मशहुर नाम ऊर्वीश कोठारी। उन्होंने अपने कार्य द्वारा दलित पत्रकारिता को नयी दिशा प्रदान की इस पत्र का उद्देश्य –दलित आंदोलन में जो संघर्ष कर रहे हैं उसे सघन बनाना,जो निराश हो चुके हैं उन्हें आशान्वित करके फिर से जोड़ना, लोगों को दीर्घ द्रष्टा बनाना है। समानता ही स्वतंत्रता के ध्येय मंत्र को समर्पित इस पत्र में दलित अत्याचार के किस्से अधिक छपते है।
दलित अधिकार ही मानव अधिकार का मूल मंत्र लेकर 2005 में दलित अधिकार पाक्षिक का प्रकाशन हुआ। संपादक रहे प्रकाश महेरिया। दलित अधिकार दलितों के सामाजिक, राजकीय, सांस्कृतिक, आर्थिक तमाम अधिकारों को मानव अधिकार के रुप में देखते है। हाशिये पर ढकेल दिये गये दलितो को स्वमान सः स्थापित करने का इसका उद्देश्य है। सांप्रत घटनाएं एवं राजनीतिका दलित द्रष्टि से समीक्षित आलेख इस पत्र में छपते है। देश-दुनिया के दलित आंदोलनों का अपडेट यहां मिलता है। समाज सौरभ पाक्षिक 2006 में राजकोट से संपादक नीता परमार की निश्रा में प्रकाशित हो रहा है।परंपरागत रूढ़िवादी ज्ञाति के मुखपत्र की अपेक्षा परिवार के सभी सदस्यों के लिए उपयोगी सामग्री,समाज के गठन को ध्यान में रखकर पाठ्य सामग्री परोसने का अभिगम इस पत्र का है। 2009 से ये पत्र का शीर्षक अनुसूचित जाति सौरभ हुआ है,ये मासिक पत्रिका है। 2003 में रोहितमित्र पाक्षिक संपादक नटवरलाल सोलंकी अहमदाबाद से प्रकाशित हो रहा है। 2004 से वाल्मिक समाज के प्रश्नों को मुखर करनेवाला नीडर,निष्पक्ष एवं विश्वसनीय साप्ताहिक वाल्मिक दर्शन, संपादक एस. साकरेचा के निदर्शन में अहमदाबाद से प्रकट हो रहा है। 2005 से वणकर संस्कृति मासिक पत्र के रुप में प्रकट हो रहा है,जिसके संपादक है खातुभाई रोठोड।गुजरात के दलितो में सर्वाधिक जनसंख्या प्रभावी उपजाति बुनकर के साथ जुडी हुई है। अतः वणकर संस्कृति मासिक की पहचान कुछ इस प्रकार की है—बुनकरों का,बुनकरों के लिए,बुनकरों द्वारा प्रकाशित होनेवाला एख मात्र मुखपत्र। खातुभाई इसके उद्धेश्य पर प्रकाश डालते हुए कहते है—- “मानव मात्र के अंगों को आवृत करनेवाले बुनकर भाइयों, आपकी आवाज़, वाणी, सोच, ख्वाहिशें, पहचान आज तक नीतिवाद,वर्णवाद के आधार पर गोपनीय रखी गई थी। इस पत्रिका के द्वारा आपके सहयोग से सही पहचान और सही संस्कृति के जतन कार्य मैं करना चाहता हूँ”।
युवा पत्रकार कवि उमेश सोलंकी ने निर्धार के माध्यम से दलित पत्रकारिता की नयी जमीन को तराशा है। अनियतकालीन होने के अतिरिक्त नयी पीढ़ी के युवा दलित-आदिवासी-पिछडी कोम के युवक-युवतियों के स्वानुभव की कथा इसमें आले-खित होती है। मुद्रित की अपेक्षा समय की ढाल पर इ-पत्रिका के रुप में ये अधिक व्याप्त है। त्रौलोक्य बौद्द महासंघ सहायक गण, बडौदा का धम्म क्रांति, गुजरात बुद्धिष्ट अकादमी का मुखपत्र बोधिपर्ण—संपा. जन-बंधु कौसाम्बी, ये पत्र बौद्ध धर्म और आंबेडकर के बौद्ध धर्म विषयक विचारों के प्रचार-प्रसार का कार्य करते है।
अतिरिक्त अन्य पत्रिकाएँ—-
• ओ.बी.सी आवाझ़—पाक्षिक —संपा. अंबालाल चौहाण
• वोइस ऑफ कडी—साप्ताहिक—संपा. नरेश सोलंकी.
• समाज संत्री—साप्ताहिक—संपा. ईश्वरभाई मकवाना.
• सागरमन—साप्ताहिक—संपा. हरजीवन परमार
• गुजरात फ्रन्टलाइन—मासिक—संपा. विशाल कटारिया आदि-आदि
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि गुजराती साहित्य में दलित साहित्य का अनोखा प्रवाह दलित साहित्य की स्वतंत्र पत्रिकाओं के माध्यम से प्रकट हुआ। समतायुक्त समाज की रचना और दलितो के मानव अधिकारों की स्थापना के स्पष्ट ध्येय को स्मर्पित दलित पत्रिकाओं का सफर क्लिष्ट है। आज दलित पत्रकारिता मिशन नहीं पर पेशा बन चुका है। दलित पत्रिकाओं की प्राथमिकता बदल चुकी है। दलितो के सामाजिक पत्र व्यवसायिक और साहित्यिक पत्र कलावादी बन चुके हैं, अतः दलितों की वाचा की अभिव्यक्ति के लिए पत्रों का अभाव नज़र आता है। प्रश्न ने अपना स्थान यथावत रखा है। पुनश्च प्रारंभ की स्थिति असमंजस पैदा कर रही है।
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संदर्भ ग्रंथ सूची
1 मूकनायक—डॉ.आबेडकर, संकलन एवम अनुवाद.—डॉ.श्यौराजसिंह
2 हिंदी की दलित पत्रकारिता पर पत्रकार आंबेडकर का प्रभाव—डॉ.श्यौराजसिंह
3 मूल खोजो, विवाद मिटेगा(मूक नायक में डॉ.आंबेडकर के संपादकीय) संकलन और अनुवाद — डॉ.श्यौराजसिंह
4 बहिष्कृत भारत,डॉ.आंबेडकर,संकलन एवम अनुवाद– डॉ.श्यौराजसिंह
5 गुजरातनी आंबेडकरी चळवळनो इतिहास(1920-1970) प्रा.डॉ.पी.जी ज्योतिकर
6 दलित पत्रकारत्व : गइकाल आज अने आवतीकाल—मानद् संपादक—बालकृष्ण आनंद
7 अतीतनां अनेरा संस्मरणो—खेमचंद चावडा
8 रुद्रवीणानो झंकार—ले—भानु अधवर्यु, संपादक— चंदु महेरिया.
9 गांधी आश्रमना भ्रष्टाचरियोंनो अड्डो—ले. दलपत श्रीमाळी
10 कर्मशीलनी कलमे—ले.वालजीभाइ पटेल. संपादक—चंदु महेरिया।
लेखक : चंदु महेरिया, अनुवाद : डॉ. नयना डेलीवाला