रुख हवाओं का ऐसे बदलने लगा
सोना शीशे के साँचे में ढलने लगा
लोग करने लगे कत्ल लग कर गले
स्वार्थ रिश्तों को जमकर निगलने लगा
देखकर उनकी रोटी परेशान हूँ
दाल गलने लगी, मुल्क जलने लगा
अब अँधेरे के आलम से परहेज़ क्यों
जब दिया भी अँधेरा उगलने लगा
है गज़ब की तपिश, हर तरफ हर जगह
फिर कहीं दर्द कोई पिघलने लगा