khud se khud ka sakshatkar

अगर लिखती कविता मैं, तो लिखती ख़ुद पर
स्वयं की प्रशस्ति में, ख़ुद को समर्पित ।
अगर गाती गीत मैं, गुनगुनाती स्वयं को
स्वयं के आह्लाद को या स्वयं की पीड़ा को ।
अगर उड़ती मैं, तो उड़ती अपने आकाश में
अपने पंखों से अपनी आख़िरी हद तक ।
अगर कहीं खो जाती मैं, तो खोती अपने ख्यालों में
अपनी ही स्मृति में अपने ही स्वप्न में ।
अगर करती प्रेम मैं तो करती स्वयं से
ख़ुद की आँखों से स्वयं की मुस्कान से ।
फिर होता मेरा अपना मेरे ख़ुद के लिए,
मेरा लिखना, मेरा गाना, उड़ना, खो जाना और करना प्रेम ।
हर अपेक्षा-उपेक्षा से परे, प्रत्येक लाभ-हानि से मुक्त
बस, स्वयं से संयुक्त, जग से उन्मुक्त, आत्म-भुक्त ।
परंतु ,नहीं लिखी कविता, नहीं गाया गीत
न ही उड़ी, न ही खोयी और प्रेम तो किया ही नहीं ।
सच!….. कितना मुश्किल होता है , ख़ुद से ख़ुद का साक्षात्कार ।

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