पुस्तक : अथर्वा मैं वही वन हूँ
लेखक : आनंद कुमार सिंह
प्रकाशक : नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली
समीक्षक : विनोद शाही
मानव जाति का भविष्य कविता में है
“अपरा विज्ञानों के महाविकास के फलस्वरूप यहाँ पर गद्यदेश का विकास निरन्तर होने लगा और कवितादेश उपेक्षित रह गया। परिणाम यह हुआ कि गद्योन्मत्त देशों में अनेक महािवनाशक तारक युद्ध हुए जिससे पृथ्वी पर विकसने वाली संपूर्ण मानवता का ही संहार हो गया।…. सदािशव रुद्र ने इस चन्द्रमा को आदेशित किया कि वह पृिथवी पर चेतना के अवतरण में सहयोग करे और कवितादेश को पुनस्सृजित कराए।” । ( अथर्वा : कथासूत्र : हिंदी शिशु , पृ 16) आनंद कुमार सिंह के महाकाव्य ‘अथर्वा’ की शुरुआत बहुत पहले घटी घटनाओं के कथा सूत्र से होती है। इस कथा सूत्र में जिसे गद्य काल कहा गया है, वह हालांकि हमारी पृथ्वी के संदर्भ में हमारा भविष्य है; तथापि उसे पहले से घटित काल के रूप में देखा गया है। इस तरह हम यथार्थ के संदर्भ में, जिसे यह कृति इतिहास कहती है, समय के क्रम को आरंभ में ही उलट देती है। फिर हम भविष्य से वर्तमान में प्रवेश करते हैं और जिसे हम भविष्य मानते हैं उसे यहां अतीत की तरह प्रस्तुत किया गया है। इतिहास के सरलीकरण से हमारे सामने जो समस्याएं पैदा होती है, उनसे हमें निजात दिलाने के लिए यह कथा युक्ति अपने आप में संभावना पूर्ण मालूम पड़ती है।
यहां हम पूछ सकते हैं कि कवि ने इस कृति में गद्य को जिस प्रकार विध्वंसक व विनाशकारी परिणतिओ वाला मानकर नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, उसके निहितार्थ क्या है? क्या गद्य में कविता संभव नहीं होती? क्या गद्य में रचनाशीलता के लिए सारे रास्ते अंततः बंद हो जाते हैं? यह प्रश्न एक उलझन पैदा करता है । लेकिन हम इसे भी इतिहास के सरलीकरण से निजात पाने वाली एक अन्य युक्ति मानकर दरकिनार करके आगे चल सकते हैं। हम इससे केवल इतना अर्थ ग्रहण कर सकते हैं कि कवि यहां गद्य के विरोध में नहीं है, अपितु नकारात्मक एवं विध्वंसक गद्यात्मकता ही उसके निशाने पर है। कविता को इस कृति का निहितार्थ बनाने का प्रयोजन यह है कि कवि मानव जाति को रचनात्मक, माननीय और मुक्ति कामी चेतना से युक्त बनाना चाहता है। आइए, देखते हैं कि इस कृति में यह अर्थ किन रूपों में हमारे सामने प्रकट होता हैं?
कविता को मानव जाति के भविष्य दर्शन की तरह संभव बनाने वाली इस कृति की पूर्व कथा को पढ़ते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की याद बरबस हो आती है। वहां द्विवेदी जी यह दावा करते हैं कि उन्होंने वह जो उपन्यास लिखा था, वह दरअसल बाणभट्ट की प्रामाणिक आत्मकथा का हिंदी अनुवाद भर है। वह अपनी बात को ऐतिहासिक बनाने के लिए एक कल्पित पात्र का सृजन करते हैं और यह बताते हैं कि बाणभट्ट की आत्मकथा की पूरी पांडुलिपि सदियों पहले विलुप्त हो गई थी जिसे बाद में शोण नदी के किनारे भ्रमण करती हुई अंग्रेज इतिहासकार या पुरातत्व वेत्ता कैथराइन ने खोज निकाला था। उसी से उन्हें वह पांडुलिपि प्राप्त हुई, जिसका अनुवाद उन्होंने इस उपन्यास के रूप में प्रस्तुत किया, द्विवेदी जी इस मामले में ईमानदार मालूम पड़ते हैं कि वह साथ ही यह भी कह देते हैं कि यह एक गल्प है और गल्प का हिंदी अनुवाद गप्प हैं। आनंद कुमार सिंह ने इसी कथा युक्ति का इस्तेमाल अपनी इस कृति की प्रबंध मूलक संरचना को खड़ा करने के लिए किया है। परंतु उनका यह प्रबंध नुमा गल्प इतना अधिक रहस्यमय है कि वह एक गप्प नहीं, महागप्प प्रतीत होता है। वे दावा करते हैं कि भारत भ्रमण के लिए आए हुए फाह्यान या ह्वेन सांग जैसे यात्रियों को भारत में कुछ रहस्यमय पांडुलिपियां मिली थी।
“फ़ाह्यान, ह्वेनसांग, इत्सिग, अल बरूनी, इब्नबतूता उसे ही ढूंढऩे निकले थे और इनके बाद में वेनिस का यात्री माकोर्पोलो रेशम पथ पर उन्हीं की खोज में चला था।”
इस सूची में वे बाद के यात्रियों के रूप में कोलंबस और वास्कोडिगामा तक को जोड़ देते हैं। इस तरह इन यात्राओं के वास्तविक प्रयोजन को रहस्यमय बना कर वे यह परिकल्पना या महा गप्प प्रस्तुत करते हैं कि भारत में षोडशी विद्या नाम से जो बेहद गुप्त ज्ञान पद्धति प्रचलित थी, वह इन्ही 16 पांडुलिपियों पर आधारित थी। इनकी खोज में यह यात्री इसलिए सदियों तक एक के बाद एक दरबदर भटकते रहे थे, क्योंकि इनमें ‘सृष्टि रचना और समस्त ज्ञान-विज्ञान के सारे रहस्य छिपे थे और यह ऐसी विद्या थी, जिसे जानने के बाद फिर इस पृथ्वी पर और कुछ जानने को शेष नहीं बचता था’। परंतु इन 16 पांडुलिपियों के संबंध में चूकि इतिहास में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए एक कहानी खड़ी की जाती है कि इनकी रचना सृष्टि की रचना के साथ हुई थी, फिर बाद में होने वाली अंश प्रलय में, जिसे वे गद्य प्रलय कहते हैं, कुछ जानकार लोगों ने उन पांडुलिपियों को बचा लिया और मंजूषाओं में बंद कर दिया। अलग-अलग मन्वंतरों में मंजूषाओं में बंद यह पांडुलिपियां पुनः अलग-अलग यात्रियों या व्यक्तियों को उपलब्ध होती रही। यह कृति यह दावा करती है कि हमारी पृथ्वी पर जितने भी बुद्ध पुरुष या महान वैज्ञानिक हुए हैं, उनके ज्ञान विज्ञान के उत्कर्ष और बुद्धत्व का आधार यही पांडुलिपियां है। उन्हें यह पांडुलिपियां संयोगवश मिल गई, जिससे वे मौलिक खोज कर सके या बुद्ध हो सके। इसका अर्थ है कि ज्ञान के जो आधारभूत रूप हैं, उन पर किन्ही विशेष लोगों का कब्जा रहा है। फिर वे उस ज्ञान को मंजूषाओं में बंद करके आगे की पीढ़ियों को सोंपते रहे हैं। अगली पीढ़ियों में भी कुछ विशेष प्रबुद्ध जीवन वाले लोगों को ही वे पांडुलिपियां संयोग से पढ़ने को मिलती रही हैं। इस विशेषाधिकार को समाप्त करके इस महान और गूढ़ ज्ञान को सभी के लिए उपलब्ध कराने के उद्देश्य से अब यह कवि अपनी इस कृति के माध्यम से उन्हीं पांडुलिपियों का हिंदी अनुवाद हमारे सामने ला रहा हैं।
यह कृति एक और रहस्यमय बात यह कहती है कि इन पांडुलिपियों में दर्ज भाषा इतनी गूढ़ है कि वह हवा या जल के समान तरंग लिपियों में लिखी गई है, इसलिए उनका किसी भी भाषा में अनुवाद संभव नहीं है। तथापि यह यहां अब कैसे संभव हो सका, इसे समझने के लिए निम्न उद्धरण को देखना जरूरी लगता है:
“कहते हैं ये पाण्डिलिपयाँ हवा की पेटियों में बन्द हैं जिन्हें कोई मानव -नियति अगले मन्वन्तर में प्राप्त करेगी। उनका आकार-प्रकार किसी को नहीं ज्ञात। कब कैसे वे किन-किन भाषाओं और लिपियों और अक्षर-संकेतों में ढलकर स्वारोचिष मन्वन्तर में समूची पृथिवी के किन-किन अगम्य भागों में पहुचीं कहना कठिन है। …
शनिलोक की शक्तियों के प्रधान अध्यक्ष तत्रभवान दक्षिणामूर्ति सदािशव रुद्र ने उसे (अथर्वा को) जब पृथ्वी पर कवितादेश बनाने भेजा था, तो अन्य सुकिव कैसे पीछे रहते! वे सभी–श्वेतकेतु, वृद्धश्रवा, सनत्कुमार, अब्राहम, अलमुस्तफ़ा, अगस्त्य, माकर्ण्डेय, अपाला, दीघर्तमा और एक भारतीय आत्मा भी साथ-साथ पहुँचे।”
तथापि वे साथ साथ या अलग-अलग सदियों के अंतराल से एक-एक करके प्रकट होते रहे। ऐसे बुद्ध पुरुषों ने, जिन्हें यहां कवि कहा गया है, हवा की इन लिपियों को पढ़कर ऐसी पांडुलिपियां रचीं, जिन्हें बाद में किन्हीं पुरातत्वविदों या खोज करने वाले यात्रियों ने फिर से उपलब्ध किया। लेकिन यहां यह भी एक समस्या है कि यदि वे पांडुलिपिंया उपलब्ध है और उनका चीनी, अरबी, अंग्रेजी या हिंदी में अनुवाद उपलब्ध है, तो अब उन्हें पढ़ने वाला हर व्यक्ति ‘अति चेतना या अति मानस’ वाला व्यक्ति क्यों नहीं हो जाता? तथापि इस कथा को यदि हम एक प्रतीक कथा के रूप में ग्रहण करें तभी इस तरह की रहस्यमय बातों का तर्कसंगत अर्थ निकल सकता है। अन्यथा वे किसी को भी बेबूझ मालूम पड़ सकती है।
यहां जब सृष्टि रचना के रहस्य समझाने वाली पांडुलिपियों की बात की गई है, तो यह भी कहा गया है कि हर मन्वंतर में प्रलय और सर्ग के रूप में जब जब नई सृष्टि होती है, तब तब वह इन्हीं पांडुलिपियों में वर्णित ज्ञान को आधार बनाकर की जाती है। यह विचार वेदों में वर्णित इस पंक्ति से प्रेरित लगता है जिसमें कहा गया है ‘यथा पूर्वमकल्पयत्’ अर्थात इस सृष्टि को उसी रूप में फिर से कल्पित किया गया जैसे पिछले मन्वतरों में था। इससे यह विचार पुष्ट होता है कि इतिहास खुद को बार-बार यांत्रिक रूप में दोहराता है। तथापि यदि वेद की उक्त पंक्ति को भी ध्यान से पढ़ा जाए, तो हमें यह भी लग सकता है कि वहां यह नहीं कहा गया कि ”यथा पूर्वमकल्पितम्’ , अर्थात जैसे पहले सब रचा गया था वैसे ही बाद में रचा जाता है। अपितु केवल इतना कहा गया है कि हर बार नई सृष्टि को पहले के समान कल्पना का सहारा लेकर रचा जाता है। कल्पना सदा कुछ नया करती है। इसे ही कविता करना या लिखना कहते हैं। अगर इस भिन्न अर्थ पर ध्यान देंगे तो हम कवि के पूर्व कथा वाले आख्यान को गप्प कहने की बजाय एक नवोन्मेष कह कर आराम से पीछे छोड़ सकते हैं। और उसकी जगह उनकी एक अन्य बात को आगे बढ़ने के लिए आधार बना सकते हैं। वे कहते हैं कि पिछले मन्वंतर में गद्य की ओर उन्मुख अति विकसित जातियों के बीच जो परमाणु युद्ध हुए, उन्हें हमारे आज और कल की खबर देने वाले प्रतीकात्मक देवासुर संग्राम कहा जा सकता है।
अब आप इसे पृथ्वी की भविष्य कथा कह सकते हैं जो इस प्रकार है। देवासुर संग्राम में पूरी सृष्टि का विनाश हो गया। उसके बाद फिर से सृष्टि को रचने के लिए एक नयी पृथ्वी को खोजा जाने लगा। तब एक ऐसी पृथ्वी की खोज हुई, जहां पिछले विकास के कारण वनस्पतियां और पशु तो थे, परंतु मनुष्य अभी प्रकट नहीं हुआ था। तब पहले से रची गई पांडुलिपियों में बताए गए तरीके से अति मानस होने की सामर्थ्य रखने वाले मनुष्य को पैदा होने में सहायता की गई। इसे वे पृथ्वी पर गद्य युग के बाद कविता युग के आरंभ के लिए बनाई गई योजना कहते हैं।
यह विचार बहुत काम का है। इसका मतलब यह है कि पृथ्वी पर जिसे हम मनुष्य कहते हैं, उसका अर्थ उसके आखिरकार काव्यमय रूप में रचनात्मक होने में छिपा है। इसे ही यह कृति अलग अलग तरीके से खोजने की कोशिश करती है।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अब तक घटित समाज सांस्कृतिक इतिहास में उतरती है। वहां उन तमाम चीजों को हमारे सामने रखती है जो हमें गद्योन्मुख बनाती हुई आपस के वैर विरोध एवं हिंसा वाले संबंधों में ले जाती हैं। इस तरह वे तमाम चीजें जो पृथ्वी पर मानव चेतना के काव्यमय विकास के रास्ते में रुकावट बनती रही हैं, उन्हें यह कृति बहुत मनोयोग से हमारे सामने लाने की कोशिश करती है और फिर उस भविष्य की परिकल्पना का प्रयास करती है, जहां इस काव्य में चेतना का ठोस और व्यावहारिक रूप हमारे सामने जमीन पर उतरता हुआ संभव हो सकता है । अतीत में जितने लोग इस पृथ्वी को इस काव्यमय चेतना से युक्त करने में मदद करते रहे हैं, उन सब की ओर भी यह कृति एक-एक करके आती है और वहां से सूत्र लेकर हमारे भविष्य के लिए रास्ता खोजने में मदद करने का प्रयास करती है।
अब यदि इस कृति की इस मूल संरचना को हम अपने सामने रखेंगे तो कह सकते हैं कि इस कृति का आधार इतिहास चेतना है। यह बात भी हमारे आधुनिक काल के अनुरूप है। मध्यकाल तक मानव जाति चेतनामूलक तरीके का चिंतन करती रही है। आधुनिक काल में पहली दफा वह यथार्थ को आधार बनाकर आगे बढ़ी है। इस कारण इतिहास उसके लिए प्रमुख चिंता बन गया है। इससे आगे विकास का रास्ता निकलता है, क्योंकि तब हम यह देख पाते हैं कि वहां पीछे क्या कमी थी और आगे उसकी पूर्ति कैसे संभव है। इस बारे में हासिल विवेक को इतिहास चेतना कहा जाता हैं। जबकि मध्यकाल में केंद्रीय बात यह थी कि अतीत में अतमानस व्यावहारिक रूप में उपस्थित था और मध्यकाल से होकर आधुनिक काल तक आते-आते उसमें गिरावट ही गिरावट उपस्थित होती गई। इसलिए हमारे मध्यकालीन काव्य उपस्थित हो रहे कलिकाल को लेकर बहुत चिंतित दिखाई देते हैं। चेतना मूलक तरीके का चिंतन हमें इतना नीचे गिर जाने के संदर्भ में शर्मिंदगी में ले जाता है। वह हमें यह बताता है कि हम अपने अतीत से कितने पिछड़े हुए हैं। इसके उलट यथार्थ पर आधारित चिंतन हमें अतीत के प्रति विवेकशील आलोचना में ले जाता है और हमारे विकसित होते रहने की हमारी सामर्थ्य पर मुहर लगाता है। इसे हम अपने समय में प्रकट होने वाला इतिहास बोध कह सकते हैं। यह कृति यद्यपि अपने भाषा संसार में उसी मध्यकालीन मुहावरे को अपनी प्रबंध योजना का रूप देती है, परंतु अर्थ के धरातल पर वह अपने इस प्रबंधत्व का खुद ही अतिक्रमण कर जाती है। इस तरह जो कृति वास्तव में हमारे सामने उपस्थित होती है, वह इतिहास चेतना पर आधारित कृति होती है।
इस कृति में इतिहास को उस सीमित अर्थ में नहीं लिया गया है, जिस अर्थ में आमतौर पर आधुनिक काल की कृतियां उसे ग्रहण करती हैं। यह जो पक्ष है वह इस कृति को एक संभावनापूर्ण कृति के रूप में हमारे सामने ले आता है। हम देखते हैं कि यहां इतिहास का अर्थ सत्ता पर काबिज़ वर्चस्वी लोगों के इतिहास से उलझा हुआ हो कर भी वहीं तक सीमित नहीं रहता। यह कृति बार-बार हमें सत्ता मूलक इतिहास से पहले जन मूलक इतिहास में ले जाती है और फिर वहां से उस इतिहास में, जिसे हम मनुष्य जीवन का इतिहास कह सकते हैं। जीवन के इतिहास का दमन करने के लिए सत्ता सबसे पहले मनुष्य की देह का दमन करती है। यह कृति मनुष्य देह के गहरे में उतर कर वहां तक जाती है, जहां हम देह के भीतर की देहों तक पहुंच सकते हैं और इस तरह हम सत्ता के उपभोक्तावादी दुष्चक्र से बाहर आकर उसके द्वारा दमित होने से निजात पाने का रास्ता पकड़ सकते हैं।
मैंने देखा मेरी देह तिब्बती पहाड़ी पर सूख रही है
मैंने देखा मैं ब्रह्माण्ड में घूम रहा हूँ
और यह पृिथवी भी अित क्षिप्र गित से घूम रही है
यों क्षण भर में अरबों साल बीत गए हैं ( पृ 235)
हालांकि इतिहास का यह जो तीसरा और सबसे गहरा पक्ष है, उसे यह कृति बार बार सृष्टि रचना के रहस्यमय प्रसंगों से उलझा देती है।
दीघर्तमा:
एक-न-एक दिन
पृथ्वी की आयु वाली
ब्रह्माण्ड की सारी पृिथिवयाँ
गोपथ से चलकर
मनुष्य की प्रज्ञा तक आएँगी 505
लेकिन आखिरकार बात जब जीवन के इतिहास को समझने और समझाने की होती है, तब वह यह कहती है कि वह सोलहवीं पांडुलिपि जिसमें जीवन के विकास के रहस्य छिपे थे, अनुपलब्ध है। इसलिए उसके संबंध में मौन बने रहना ही उचित है। इसे हम यथार्थ की वास्तविकता की समझ से जुड़ी बात की तरह भी देख सकते हैं। वास्तविकता यही है कि हम जीवन के रहस्य को अभी तक नहीं जान पाए हैं। इसलिए उसकी बाबत बात करना अपने अज्ञान को प्रदर्शित करना ही होता। इसलिए उसे अलहदा कर दिया गया है। परंतु यह कहा गया है कि हमें आखिरकार जीवन के रहस्य को समझते हुए वहां जाना होगा, जहां हम जीवन से जुड़े इतिहास की मार्फत पहुंचते हैं।
जीवन को समझने की कुंजी यहां वन में है। वन से ज्यादा अज्ञात और रहस्यमय वस्तु दूसरी नहीं है। उसे यह कृति आरंभ में ही ‘कुंडल वन’ के रूप में हमारे सामने रखती है। वन गमन करके अतिमानस को पाने वाली जितनी बातें इस पृथ्वी पर कही गई है, वे सभी दरअसल हमें जीवन के रहस्य को ही समझाती है। कुंदन वन भी जीवन के उसी रहस्य से संबंधित एक कूट की तरह हमारे सामने आता है। कुंडल को नाभि में मौजूद बताया जाता रहा है। वहां से जीवन प्रकट होता है। गर्भनाल नाभि से जुड़ी होती है। वहीं से जीवन का देह में प्रवेश होता है। इसलिए नाभि में कुंडल के रहस्य को जानने वाले दार्शनिकों ने उसे देह के भीतर मौजूद बताया है। ‘कस्तूरी कुंडल बसे’ जैसी पंक्तियां कुंडल वन में सत्य के छिपे होने की इशारा करती हैं। तंत्रों में कुंडल का संबंध मणिपूर चक्र से है। सिद्धों और नाथों ने इस पर काफी विचार किया है। कानों में कुंडल पहनने का अर्थ भी इस रहस्य के प्रति सदा जागृत होने में छिपा है। यहां इस कृति का आरंभ ‘कुंडल वन’ से होता है। यह कहा गया कि ब्रह्मा का पुत्र ‘अथर्वा वही कुंडल वन है’। ‘मैं वहीं वन हूं’, यह पंक्ति एक शीर्षक के रूप में वहां बार-बार आती है। इस कृति में बहुत बाद में यह बात हमारे सामने स्पष्ट होती है कि यह कुंडल वन मनुष्य की देह के भीतर मौजूद है।
वृक्ष एक सोया है आदमी के मन में
अत्यन्त आदिम वनपशुओं को छाँह दे
जङ़ है गहरी अनमोल धरती में
स्वयं से ही होता है भावना का प्रारम्भ वही प्रारम्भ उसका अन्त भी अनन्त भी। 196
जीवन के रहस्य को जानने से जुड़ी पंक्तियां इसी तरह की होती है, जिन्हें हम ‘तत्वमसि’ यानी ‘वह तुम हो’, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ यानी मैं वह हूं या मैं ब्रह्म हूं, अथवा ‘अनअलहक’ यानी वह सत्य मैं हूं, जैसी पंक्तियों के रूप में देख सकते है। अथर्वा का संबंध कुंडल वन से है और वह स्वयं को वन कहता है। इसका अर्थ जीवन के रहस्य से जुड़ा है।
जहाँ बावले जोगियों की सारंगी करुणादग्ध जीवन उपजाती है
मैं वही वन हूं
मैं महत् और अणु
मैं देश और काल
मैं सिन्ध और युद्ध
मैं पुरुष और प्रकृति
मैं रवि शिश नीहार
मैं मन आशा और विचार
मैं कवि और मनीषी
मैं रस और आनन्द
मैं सत् और असत्
मैं वन और संगीत
मैं पशु और पाश
मैं मधुर और तिक्त
पृ 134
मैं ब्रह्माण्ड की स्रुवा से
सृजन का हवन करता हूँ। पृ 141
जहाँ न गति है न प्रकाश
जहाँ न जल है न वैश्वानर
जहाँ आशा काल की फलाकांक्षा है
जहाँ चिन्ता राग की स्मराकांक्षा है
जहाँ निद्रा मृत्यु की स्वसाकांक्षा है
जहाँ मृत्यु मेरी स्पशार्कांक्षा है।
मैं वही वन हूं। पृ 144
अनेक वैदिक ऋषियों के आपसी संवादों के बाद वह अब्राहम और अल मुस्तफा तक आता है और फिर आधुनिक काल के अनेक दार्शनिकों से होता हुआ भारत के गांधी और सुभाष चंद्र बोस तक पहुंचता है। आधुनिक काल में इतिहास की व्याख्या के केंद्र में जिस तरह पूंजी की प्रमुख भूमिका दिखाई देने लगी है उसे यह काव्य अपने विशेष दृष्टिकोण से माननीय बनाता हुआ पकड़ता है और इस तरह पूंजी से होने वाले अवमानवीकरण तथा अजनबीपन से खुद को बचा लेता है।
पूँजी से क्यों घबराते हो?
पूँजी को मित्रवत चलने दो बस, साथ-साथ अपनी आत्मा की शक्ति को
गुहान्धकार से बाहर प्रकाश में निकलने दो। (पृ 256)
इतना ही नहीं पूंजी के तंत्र ने हमारे सांस्कृतिक यथार्थ को जिस तरह प्रदूषित किया है उसकी आलोचना भी इस काव्य में दिखाई देती है ।
भाषा का संबंध बाजार जा चुका
रचना के सरोकार बन्द हुए
पाठ की आलोचना को बार-बार पढ़ते पाठक स्वछन्द हुए
इस पूरी यात्रा का प्रयोजन गहरे में उस मनुष्य को खोजने से है। वह इतिहास चेतना के आधुनिक और उत्तर आधुनिक रूपों में भी जीवनमूलक इतिहास को उसका वास्तविक अर्थ बनाता है।
कैसे जीवन अपनी पूवार्परता को बाँधेगा
तू ही बता उत्तर-आधुिनकता? ( पृ 414)
इन अर्थों में भारत को फिर से खोजना महत्वपूर्ण लगता है। हमारे समय में भारत की खोज बार-बार पुनरुत्थान से उलझती रही है। यहां अतीत के प्रति हम श्रद्धा से अवनत होते हुए यह कहते दिखाई देते हैं कि हमने अतीत में, ‘जो कुछ जानने लायक था, और जिसे जानने के बाद कुछ और जानने को नहीं बचता’, वह सब जान लिया था। हम इस बात को लेकर भी परेशान होते हैं कि हमारे पास ज्ञान के ऐसे ‘परम गुप्त स्रोत हैं और वह भारत से ही शेष दुनिया की ओर गए हैं’, इसके बावजूद ‘शेष संस्कृतिया भारत के अवदान को स्वीकार करके उसे इसका श्रेय नहीं देती ‘ । यह पुनरुत्थान वादी विचार इस कृति में भी इसकी पूर्व कथा वाले आख्यान में हस्तक्षेप करता है, परंतु जब बात काव्य की होती है, तो वहां कृति इस विचार से बाहर आकर अब तक के भारत के अवदान के महत्व को ही नहीं, उसकी सीमाओं को भी समझने और उद्घाटित करने से पीछे नहीं हटती। कृति का इस रूप में जिम्मेदार होना उसे पुनरुत्थान वादी होने से बचा लेता है।
श्वेतकेतु
मिथ्या है जाति-अभिमान और अहंकार… परमेश्वर के अपने हाथों रचे गये हैं हम! पृ 157
फिर हम अपनी सीमाओं के साथ संभावित कविता देश की सृष्टि करते हुए रचनात्मक होने की इमानदार कोशिश करने लगते हैं। तथापि उन सभी स्थलों तक पहुंचने के लिए हमें काफी कशमकश करनी पड़ती है। अतीत में उद्घाटित हुए ज्ञान के महान स्रोतों के प्रति गैर भावुक होना एक कठिन साधना है। तथापि जैसे ही हम उतने जरूरी विवेक को उपलब्ध होते हैं, हम मौलिक रूप में अपनी अलग तरह की रचनात्मक किस्म की वैज्ञानिक चेतना को खोजने लगते हैं।
इस कृति को मैं अपने समय के उलझा भरे बौद्धिक उहापोह के बीच रचनात्मक होने की एक संभावना भरी उम्मीद की तरह देखता हूं।