अथ श्री चौबे बाबा की यस से नो तक की ‘इंजीनियरिंग कथा’

फलां चच्चा को देख ले इंजीनियरिंग किए हैं, आज मौज काट रहा है अगला। कुछ साल का मेहनत है उसके बाद तो जिंदगी मजे में कटेगा। ये घनश्याम चौबे के पिता श्री थे जो उन्हें ब्रह्मज्ञान दे रहे थे।
घनश्याब चौबे अबोध था। जो कि एक पैदाईशी इंजीनियर का सबसे बड़ा लक्षण होता है। वर्ल्ड रिपोर्ट के हिसाब में नहीं मिलेगा मगर ये परम सत्य है कि 99.9999% अबोध मासूम और हर तरह की बुरी आदतों से बचे रहने वाले लड़के ही इंजीनियरिंग का सपना सजाते हैं। ये बात अलग है कि इंजीनियरिंग खत्म होते होते तक इन लड़का सब में से अबोधनेस एकदम्मे खतम होगया होता है। अब इनके दिमाग में खुराफात और ‘वहां’ खुजली के सिवा कुछ बचा नहीं होता । लेकिन ये खुराफात और ये खुजली ही है जो इनसे कुछ ऐसा करवा देती है कि वो फिर इतिहास बन जाता है। तो जैसा की हमने बताया घनश्याम चौबे अबोध था। अबोध था तभी तो इंजीनियरिंग जैसे जोखिम को बिना सोचे समझे उठाने का फैसला कर लिया। पिता जी के दिखाए मुंगेरी लाल वाले सपनों ने चौबे जी को ऐसे उलझाया कि उन्होंने ठान लिया ‘न भई न, अब तो साला जो करना पड़े लेकिन करेंगे इंजीनियरिंग।
फिर क्या था। मासूम सी जान, आफत में प्राण, मगर गम था किस ससुरे को। पी सी एम (फिज़िक्स, केमेस्ट्री मैथ्स ) से ऐसा शिद्दत वाला इश्क हुआ कि फिर तीनों कोचिंग मंदिर, तीनों सर लोग ईश्वर और इंजीनियरिंग मोक्ष का द्वार नज़र आने लगा। चौबे जी सारा दिन पी सी एम के पाठ में तल्लीन रहने लगे। खाने पीने तक तो ठीक था मगर हल्के होने भी किताब ले कर जाना तो हद ही थी। वो तो एक दिन मां समझाईं कि बेटा ‘किताब के पन्ना सब में मां सरस्वती का वास होत है।’ तब जा कर चौबे जी ये आदत छोड़े। चौबे जी पर ये पी सी एम ऐसे सवार हुआ कि सो रहे होते तो दिमाग में थियोरम नाचता और लगता जैसे कि साईन कॉज, थीटा, एल्फा गामा बीटा सब बदन को सहला रहे हों। जैसे फौज में जाने वाला हर जवान सपने में खुद के कंधे पर टंगी बंदूक देखता है ठीक उसी तरह चौबे जी जब मीठा खा कर गहरी नींद में सोते तो कंधे पर ड्राफ्टर वाला बैग टंगा देखते।
लगभग छः फुट से चार पाँच इंच कम वो हट्टा कट्टा जवान अब महज हड्डी की मुट्ठी में बदल चुका था। चौबे जी तो अब पोकेमोन देखना तक भूल गए थे। इतना सब के बावजूद भी लड़के की हिम्मत दिन पर दिन आसमान छूती जा रही थी। फिर क्या था किस्मत फूटी लड़के की और भाग जागे देश के कि उसे एक और भोलंटियर मिल गया था इंजीनियरिंग की राह पर अपनी खुशियों की बलि देने वाला। चौबे जी मेंस में गदर काट दिये और फिर एडवांस में तो गाड़ ही दिये (झंडा)। खुशी से लेकर जलन और हिदायतों की लहर कुछ इस तरह उठने लगी, चौबे जी “यस यस यस, आई मेक इट।” अब ये यस यस यस कब तक कायम रहता है ये भगवान जाने। पिता जी “अरे, बेटा किसका है। साहब ऐसे ही नहीं क्लीयर किया टेस्ट, तपस्या की है हमने तब जा कर हुआ है। अब बस इंजीनियर बन जाए तब इसका कमाई से चरों धाम घूमेंगे।”
मां “…………………………………………………..” अरे आंसू की बूंदे हैं भाई। खुशी वाले स्पैशल आँसू।
पड़ोस वाले फलां जी “हुंह, चौबे बड़ा उछलता है, सारी अकड़ ढीली पड़ जाएगी जब लौंडा एक साल बाद कहेगा कि हमसे न हो पाएगा पापा। हलवा समझा है इंजीनियरिंग को क्या कि जिसका मन वो मुंह उठा के खा ले। भाई साहब हमारे चाचा के लड़के ने…..।” चाचे के लड़के पर पूरी नाॅवेल फिर कभी ‘भुक्तभोगी’ मने इंजीनियर चच्चा फोन पर “भाई साहब मुबारक हो। कहां है श्याम बिटवा बात कराईए।’ चौबे जी से बात करते हुए “खुश तो बहुत होगे तुम।”
“जी चच्चा।”
“हो लो हो लो, इसके बाद पता नहीं कभी नसीब हो ना हो। अच्छा प्लांट में कुछ तकनीकि दिक्कत आ गया है, बुलावा आया है तो चलते हैं। फिर बात होगी। ध्यान रखना।”
“चच्चा बारह बज रहा है रात का।”
आगे से चच्चा “हाहाहाहाहाहाहाहाहहाहाहा, अगर टिके रहे तो चार साल बाद इस पर बात करेंगे।” चच्चा की आखरी बात चौबे जी समझे ही नहीं प्रणाम कह कर फोन रख दिया।
अब लड़का काॅलेज तक पहुंच गया। काॅलेज की ‘शोभा, सौंदर्या, सौम्या, आदि’ ने इतना आकृष्ट किया कि चौबे जी के सपने सजने लगे। दिल के अरमान खिलने लगे मगर इंजीनियरिंग ऊपर से मकैनिकल इंजीनियरिंग का प्रेशर इतना इस्ट्रांग था, कि दिल के अरमान उसके नीचे दब गये। हाॅस्टल में गये, कमरा नंबर अठतालिस मिला। कमरे में एक और पार्टनर, नाम था पद्मनाभ सक्सेना । मां बाप ने कितने प्यार से विष्णु जी का नाम चुरा कर दिया था मगर यहां पद्मनाभ अपनी बदबूदार हरकतों की वजह से कब पादू हो गया उसे खुद पता नहीं चला । चौबे जी कमीनेपन के बीज से अछूते थे मगर पार्टनर पादू में यह बीज बोया जा चुका था। अब देखना था कि चौबे जी अपनी प्रतिज्ञा पर कब तक टिके रह पाते थे ।
खैर समय बीता। चौबे जी पूरे जोश के साथ MA101, CL101, EE101 की तरफ बढ़े मगर MA201, PY101 , CL201 तक पहुंचते पहुंचते जोश ठंडा पड़ने लगा। केलकुलस से कैमेस्ट्री तक और फिर लाईनर अल्जेबरा से मकैनिक्स ऑफ साॅलिड तक पहुंचते पहुंचते आँते सूखने लगी, स्पाईनल कोड रेस्ट करने की अर्जियां देने लगा, दिमाग तो कभी कभी बिना बताए बंक मार लेता। हां मगर दिल जो पूरे शरीर में सबसे बड़ा हरामखोर है वो अभी तक सही सलामत था। दूसरी तरफ पार्टनर पादू में कमीनेपन के बीज अब फूलने लगे थे। लौंडा कभी कभी बियर चढ़ा आया करता था।
एक रोज तो किट में (हां अभी तक किट कंधे पर टंगी थी) माल्या मार्का बियर छुपा कर ले आया। सोचा जब चौबे जी जो अभी तक (चौबे जी का लौंडा था वो अब खुद चौबे बन गया था) सूखी अंतड़ियों में लंबी सांसों के द्वारा हवा भरने में लगे थे, सो जाएगा तब आराम से बियर गटकेंगे और हाॅस्टल रूम को शुद्ध करेंगे। मगर चौबे जिसका’ जी’ अब फट कर चिथड़ों में बिखर चुका था, जो अब सिर्फ चौबे था बिना’ जी’ के उसे आज नींद ही नहीं आ रही थी।
चौबे को न सोता देख थक हार कर पादू ने कह ही दिया “चौबे, टेंशन में लगा रहा है ?”
“हां यार कल फिज़िक्स का टेस्ट है और अभी तक आधी तैयारी ही कर पाया हूँ। कुछ दिमाग में घुस ही नहीं रहा।” ये कहते हुए चौबे की अंतड़ियों का सूखापन उसके होंठों तक आगया जिन्हें वो बार बार अपनी जुबान से चाट कर उनमें नमी बनाए रखने की कोशिश कर रहा था । उसके सूखे होंठों को देख कर पादू को कमरे में बियर मारने की एक नई राह दिख गया।
“अबे झोंपड़ी के कितना पढ़ेगा। देख अपनी शक्ल, जब आया था तब टाॅम क्रूज था अब साला नवाज़ूदिन सिद्दकी होता जा रहा है वो भी सरफरोश वाला। ऐसा ही रहा तो एक दिन यहीं, इसी हाॅस्टल के कमरे में तेरी समाधि बनी होगी और हम सब उसके आसपास बैठ के पी सी एम के लैसन्स का पाठ कर रहे होंगे। मेरे भाई तू कुछ लेता क्यों नहीं ?” पादू ने बड़े प्यार से उसे समझाया, जैसी कि वो उसकी बहुत फिक्र करता हो।
“अरे, यार दूध लूंगा कल से। अब तो सच में हद है।” बड़ी मासूमियत से जवाब दिया चौबे ने।
“भाई, तू जहर खा ले इससे अच्छा। तुझे नहीं पता दूध से नींद आती है, यार सो जाएगा तो फिर पढ़ेगा कैसे।” पादू यह साबित करने पर तुला हुआ था कि बहुत ज़्यादा होशियार को बहुत जल्दी बेवकूफ़ बनाया जा सकता है।
“हां यार, तो तू बता क्या करूं।” शायद पादू कामयाब रहा
“ये ट्राई कर, बाॅस एनर्जी का लैवल मल्लब यहाँ एक दम हाई पर होगा।” बैग से बियर केन निकालते हुए पादू ने उसका बड़ा खास गुण भी चौबे को बता दिया।
“अबे साले, ये तो दारू है। मैं कल ही तेरी कंप्लेन करूंगा।”चौबे का गुस्सा अचानक से फूट पड़ा। पादू तो अपने ही जाल में फंसता जा रहा था।
“यही होती है दोस्ती में करो और मरवाओ वाली बात। भाई मैं तुझे इतनी बुरी हालत में नहीं देख सकता था इसीलिए तेरे लिए लाया था। मैं कितने दिनों से नोट कर रहा था ये सब। मैने तेरा सोचा और तू कंप्लेन तक आ गया। भाई मैने तो आज तक इसकी दुकान नहीं देखी थी मगर तेरे लिए खरीदने भी गया। खैर अब मैं इसे फैंक देता हूँ।” बचने के लिए पादू ने संवेदना और मासूमियत को मिला कर एक झूठी फिक्र तैयार की और दे मारी चाबे की तरफ। अब पादू की किस्मत चौबे उसे कैच करता है या जाने देता है। धड़कते दिल और डगमगाती अरमानों की इमारत के साथ पादू बालकोनी की तरफ बढ़ा।
“रुक पदोड़े।” पादू तक ठीक था मगर कोई पदोड़ा कह दे तो पादू की जल जाती थी मगर आज पादू ने ये विषडंक भी सह लिया इस बियर के लिए। पादू सुनते ही झट से मुड़ा।
“क्या सच में एनर्जी बढ़ती है इसे पी कर।” चौबे ने पूछा।
“भाई मैं अपने पैसे खर्च के तुझ से झूठ बोलूंगा क्या? मेरे चाचा के दोस्त के भाई को कमज़ोरी आ गयी थी। डाॅक्टर ने उसे यही दवा पीने को बोला। भाई तू मानेगा नहीं लौंडा एक महीने में सांड हो गया था।” पादू छोड़ने में माहिर था फिर वो गप्प हो या पाद।
“अच्छा, तो ठीक है पर एक घूंट ही बस। और हाँ तू भी पिएगा साथ में।” चौबे को ये भी डर था कि कहीं मैं अकेला ना फंस जाऊं। वो भोलू राम क्या जाने कि यही तो पादू चाहता था।
पादू ने अपार खुशी दिल में दबाते हुए बस एक चुटकी मुस्कान होंठों पर सजाई और फिर उसकी तरफ बियर बढ़ाई। फिर क्या था एक घूंट कब आधी बोतल में बदल गयी समझ ही नहीं आया। पहली बार तो बियर भी ऐसे चढ़ी जैसे बोतल शराब गटक गया हो। नशे के कारण शरीर हल्का लगवे लगा, पिता जी से लेकर अम्मा तक फिज़िक्स के टेस्ट से इंजीनियरिंग तक सब भूल गया। ये सब भूल जाना ही सुख का चरम है, याद रहे तो बस वो पल जो हम जी रहे हैं। चौबे और पादू दोनों अपने अपने बिस्तर पर लेटे बड़बड़ाते जा रहे थे और फिर कम नींद ने दोनों को अपनी गोद में छुपा लिया पता ही नहीं लगा।
अगले दिन चौबे के टेस्ट में नंबर उतने ही आए जितने ना पीने पर आते फिर भी उसने पादू को खूब सुनाया। मगर ये बियर तो छूत है भाई, तगड़ी छूत। शेर खून का स्वाद भूल जाए पर लौंडा पहली बियर का स्वाद और सुरूर नहीं फूल पाता। पादू के अंदर तेज़ी से कमीनेपन के बीज फसल का रूप लेने लगे थे और इसका कुछ असर चौबे में भी देखा जा सकता था, ऊपर से आधी बोतल बियर की सींचाई भी हो गयी। अब क्या था, आधी कब पूरी में, पूरी कब दो में और दो कब क्वाटर दारू में बदला पता ही नहीं चला। कभी कभी तो धुएं की चिमनी भी चलती। मगर जब जब समेस्टर का अंत आने लगता इंजीनियरिंग का भूत फिर से हावी हो जाता। कमर तोड़ मेहनत और मेहनत से हुई थकान मिटाने के लिए दारू के साथ समय किस तरह हाथों से फिसलने लगा पता ही नहीं चला।
चौथे समेस्टर में वो मोड़ आया जो एक इंजीनियरिंग स्टूडेंट को पक्का इंजीनियर और सच्चा इंसान बना देता है। भाई बंदी पसंद आ गयी चौबे को। फिर क्या था दिल के अरमान जो कभी इंजीनियरिंग के एकमात्र लक्ष्य के नीचे दब गये थे उन्होंने फिर से फुंफकारना शुरू कर दिया। अब दारू थकान मिटाने के लिए नहीं बल्कि स्वीटी को याद करने के लिए पी जाने लगी। स्वीटी नोट्स बदलती थी, हंस हंस कर बातें करती थी, एक आध बार कैंटीन में साथ साथ काॅफी भी पी थी, ये बात अलग की साथ साथ चार पांच और मूर्तियां भी थीं मगर उससे क्या स्वीटी एक टेबल साथ साथ तो बैठी थी न, चौबे के भीतर प्रेम की हरी बत्ती जलाने के लिए इतना काफी था। मगर फिर एक दिन ‘बिना पास’ हुए चौबे इंजीनियर बन गया क्योंकि स्वीटी ने घोषणा कर दी कि ‘वी आर जस्ट गुड फरेंडस’। भाई अब तो चौबे ने वो सीखा जो इंजीनियरिंग में बंदा खुद सीखता है और वो ये कि “कोई किसी का नहीं है जग में, झूठे नाते हैं नातों का क्या, कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या।”
अब दारू दुःख कम करने के लिए पी जाने लगी। ऐ दारू तेरे रंग नेयारे, कभी थकान मिटाने को, कभी खुशी मनाने को, कभी गम भुलाने को और ये सब करते करते आदत हो जाए तो बस यूं ही मन बहलाने को। चौबे का दर्द इतना गहरा था कि नये सिंगर रत्ती भर भी ना कम कर पाए उसे आखिर में कुमार सानू का सहारा ही लेना पड़ा। अब पी सी एम का खौफ ‘दिल जब से टूट गया’ में बदल गया। चिकना चुपड़ा लौंडा दाढ़ी बढ़ा कर हिमालय का पहुंचा संत नज़र आने लगा। पादू का भी पाँच सात बार ब्रेकप हो गया था। मानो कि जैसे हाॅस्टल ना हो संतों का डेरा हो।
मन में दबा दर्द अब कागज पर शब्दों का रूप लेने लगा। देखते ही देखते चौबे। कवि चौबे बन गया। चौबे की पहचान कवि के रूप में बढ़ने लगी, कविता में दर्द समा ना सका तो चौबे लेखक बन गया। मगर कवि लेखक थोड़े न चाहिए था पिता जी को उन्हें तो इंजीनियर चाहिए था। पिता जी की गालियों में रोज चौबे अपने प्रति बढ़ रही निराशा को महसूस करने लगा। तब दौर आया वो वाला जो इंजीनियर को सिद्ध पुरुष की श्रेणी में ला खड़ा करता है और वह क्षण था लोक कल्याण के लिए अपनी खुशी ग़मी का परित्याग। चौबे ने भी सब कुछ एक किनारे कर के सातवें समेस्टर में बचीखुची सप्लियों को तोड़ कर इंजीनियरिंग क्लीयर करने का लक्ष्य साध लिया।
चौबे जिसने अडवांस क्लियर होते यस यस यस तीन बार कहा था उसकी ज़ुबान पर अब नो नो नो आते आते रुक जाता था। जैसे तैसे चौबे ने वह डिगरी हासिल कर ली जो किसी तपस्या से कम न थी। इंजीनियरिंग सच में ज़िंदगी से भी ज़्यादा सख्त है। मानव जीवन को समझने और उसकी परेशानियों को पार करने के गुण सीखने का एक मात्र रास्ता है इंजीनियरिंग। हर साल हर इंजीनियरिंग काॅलेज से एक संत निकलता है जिसने जीवन का हर रंग देखा, पाप से पुन्य तक हर तरह की क्रिया का भोग करते हुए उसके अच्छे बुरे की पहचान की।
चौबे बाबा भी इन्हीं संतों की श्रेणी में आ गये थे और अब दिन को दिन और रात को रात न समझते हुए हर समय काम करने को तत्पर रहते थे। यूं कहें तो अच्छा होगा कि चौबे बाबा एक साधक बन गये थे जिसे न कुछ पाने का लोभ था न कुछ खोने पर क्षोभ होता। मां बाप बच्चे की तरक्की देख कर खुश थे, फलां अंकल तरक्की देख कर सुलग रहे थे, चच्चा मन ही मन मुस्किया रहे थे मगर चौबे जी ने इस घोर साधना को किन यतनों से पूरा किया ये किसी को ना पता था।
इंजीनियरिंग के दो साल बाद
“हैलो चच्चा प्रणाम।”
“खुश रहो, क्या चल रहा है बेटा।”
“कुछ नहीं चच्चा प्लांट में कोई मशीनी फाल्ट आगया है। बुलाए हैं वहीं निकल रहे थे।”
“बारह बज रहा है बेटा।” चच्चा की बात बात नहीं व्यंग्य थी
“अच्छा चच्चा कल सुबह बतियाते हैं प्रणाम।” व्यंग्य वहीं लगा जहां चच्चा मार किए थे। इधर चच्चा फोन काट कर लोट पोट हो रहे थे उधर चौबे समझ गया था कि उस दिन चच्चा क्यों हंसे थे। यही सोच कर ऐसा गरिया दिया चच्चा को मन ही मन कि बता नहीं सकते थे कि नर्क है बबुआ मत कूदो। इस में अपनी जिंदगी खाक कर के दूसरों का चुल्हा जलाना पड़ता है।
यही सोच कर आखिरकार चौबे जी का एडवांस के बाद वाला यस यस यस एक बड़ी सी चीख़ के साथ ‘नो नो नो’ में बदल ही गया।
इति श्री चौबे इंजीनियरिंग कथा समाप्त।

मजाक से परे

आज इंजीनियरिंग डे है, हर इंजीनियर का दिन। मगर असल बात तो यह है कि इंजीनियर का कोई दिन ही नहीं होता, अपने सपनों के महल को अधूरा छोड़ कर वो देश की इमारतों से ले कर मशीनरी तक हर वो चीज़ बनाता और उसकी देखरेख करता है जिससे देश आगे बढ़ सके। हम कुछ पायों के पुल पर बेधड़क गाड़ियाँ दौड़ाते हैं, बसों गाड़ियों, रेल, हवाई जहाज़ में बेफिक्र हो कर सफर करते हैं क्योंकि हमें भरोसा है कि इंजीनियरों ने इसे हमारी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बनाया होगा। होते हैं कुछ जो अपने सपनों को आगे रख कर लोगों की जान से खेल जाते हैं मगर उन कुछ के लिए हम सभी इंजीनियरों का मान नहीं घटा सकते। देश के संभाले हुए अनेक कंधों में से एक मजबूत कंधा है इंजीनियर।
आपके घर की डोर बैल से लेकर बाथरूम के नल तक सब किसी ना किसी इंजीनियर का डिज़ाईन किया हुआ ही है। और ऊपर जो मैने हास्य कथा लिखी ये मज़ाक नहीं ये वो दर्द है जो हर सच्चा इंजीनियर खुद से ही हंसते हंसते आपको सुनाएगा क्योंकि आधे से ज़्यादा इंजीनियरों ने ऐसी ही ज़िंदगी जी है और सच जानें तो जो जी है वो यहीं जी है क्योंकि उनकी ना तो इंजीनियरिंग से पहले कोई अपनी ज़िंदगी होती है और इंजीनियरिंग के बाद तो ख़ैर हाल ही ना पूछिए। नमन है देश के हर उस छोटे बड़े, डिग्रीधारी नाॅन डिग्री धारी, शायर, लेखक, कहानीकार हर उस इंजीनियर को जिसने खुद को जलाया है दूसरों को रौशनी देने के लिए।

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