सर पर गठरी तेज धुपहरी 
रक्त निकलता, फूटा छाला
मन घबराये कदम बढ़ाये
कहां मिलेगी छांव
कैसे रखें कदम धरा पर
जलते मेरे पाॅव…
हाय!जलते मेरे पाॅव !
मैं भारत की सच्ची तस्वीर
फूट गई मेरी तकदीर
ए. सी. में रहने वालों
बड़ी बातें करने वालों
सुबह-शाम करके मजदूरी
तब खायेंगे रोटी पूरी
भूखे बच्चों को भेद रही जैसे, भीषण-गर्मी-तीर
मैं भारत का मजदूर-अधीर !
मन-संकल्प कहे यह पीर
चलो बढ़ चलो वीर-कबीर
राजमार्ग पर युगपथ-धीर
हे भारत की जननि के क्षीर
मत बहने दो अक्षु से नीर
मीलों के सफर को, क्षण-भर में चीर
भूल अरे पैरों के घाव
खून-सनी रोटी और पाॅव
तुझे बुलाता तेरा गाँव !
जीवन में क्या खोया-पाया
क्या सपना लेकर आया था
सड़क किनारे ही मरना था
मैं गाँव छोड़कर आया था
जीवन-विपदा से मैं मजबूर
मैं भारत का बेघर-मजदूर
पथरिली पटरी पर चलकर
बिन पतवार चलाते नाॅव
खून-सनी रोटी और पाॅव
मुझे बुलाता मेरा गाँव।
जीवन की पाठशाला में
अक्षर-सारे जाने थे
भूख-प्यास मीलों का सफर
देनदारों के सर पर ताने थे
मिला-जुलाकर जो बच पाया
फटी-जेब में चार-आने थे
राह हमारी कोसों दूर
हम पथरिली सड़कों पर, चलने को मजबूर
मैं भारत का बेघर मजदूर
चलना है मुझे मीलों तक दूर।

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