“परनिंदा जे रस ले करिहैं 
निसच्य ही चमगादुर बनिहैं”
 अर्थात जो  दूसरों की निंदा करेगा वो अगले जन्म में चमगादड़ बनेगा।
परनिंदा का अपना सुख है,ये विटामिन है,प्रोटीन डाइट है और साहित्यकार के लिये तो प्राण वायु है। परनिंदा एक परमसत्य पर चलने वाला मार्ग है और मुफ्त का यश इसके लक्ष्य हैं।चतुर्दिक परनिंदा के बाद भी लघुकथा की भौजी को वो  यश प्राप्त न हो सका जिसकी वो आकांक्षी थीं ।इसके लिये उन्होंने अपना नाम दूबरी दूबे से मैना महारानी रखा।उन्होंने इंग्लैंड के
 “सर ऑफ़ सीवर” की उपाधि को सुन रखा था, वो भी बचपन में एक ढह चुके राजा के खंडहर नुमा महल में, रामायण और महाभारत सीरियल देखने जाती थीं, तो उस महल की महारानी उनसे पोंछा लगवाती थीं सीरियल देखने के शुल्क के तौर पर, ये और बात थी कि वे पोंछा लगाने के दौरान कुछ वस्तुएं टीप दिया करती थीं ।
कहावत  है कि “मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है”  सो ऱाजपाट की टीपी हुई वस्तुओं से वे अपना सिक्का लोगों पर चलाती ।इसीलिये अपने मूल राज्य से दूर जब वो एक नए राज्य में शिफ्ट हुईं तो उन्होंने इंग्लैंड के “सर ऑफ़ सीवर” की तर्ज पर अपना नाम मैना महारानी रख लिया। तेवर और किस्से राजपाट के ,मगर  कंजूसी के किस्से उस करोड़ीमल वाले जो अपने मेहमान को सबसे पवित्रतम और शुद्दतम वस्तु गंगाजल पिलाकर विदा करते हैं ।
कंजूसी भी थी। लघुकथा विधा भी कमाऊ नहीं थी और जीवित रहते यश और मरणोपरान्त अमरत्व भी चाहिये था। मैना महारानी की महत्वाकांक्षा  त्रिशंकु की भांति थी ।
अचानक उन्हें उनके गुरु का स्मरण हो आया जो उन्हें इस विधा में लाये थे और जो ऑफ़ द रिकॉर्ड कहा करते थे कि वे बालू से तेल निकालने में माहिर हैं यानी साहित्य की हर अनुत्पादक विधा को वे  कैश करने में सिद्धहस्त थे ,वे एक्सरे भी कराने जाते थे तो उसे विधा उन्नयन योजना से जोड़कर दो चार फोटो फेसबुक पर डाल देते थे ।शिष्या ने उन्हें फोन किया और कहा –
“मन बहुत व्यथित है, मुझे कोई सम्मान मिल नहीं रहा है ।लोग तफरी में मेरे नाम को अवार्ड देने की घोषणा कर तो देते हैं  और फिर कहते हैं कि आइये और अवार्ड ले जाइए ,जानते हैं लोग कि किराया भाड़ा खर्च करके तो मैं जाने से रही ।फूटी कौड़ी तो अवार्ड के नाम पर देते नहीं अलबत्ता मुझसे ही स्पॉन्सरशिप मांगने लगते हैं कि मैं तो राजवंशी हूँ शायद ।अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ “।
गुरु जी ने सुना हो हो करके हँसे ।मैना महारानी समझ गयीं और बोलीं-
 “मैं जानती हूँ कि आपके लिये मुफ्त की सलाह देना आपकी विद्या का अपमान करना होगा, आप कुछ न कुछ लेंगे जरूर ।मैं आपके आगामी साझा संकलन में सभी सशुल्क प्रतिभागियों की व्यवस्था करने का वचन देती हूँ “।
ये सुनते ही उनके गुरुश्रेष्ठ निहाल हो उठे, उन्होंने कहा –
“तुम एक कमेटी बना दो पांच लोगों की जो अवार्ड देगी। अध्यक्ष मुझे बना दो सेलेक्सन कमेटी का। बाकी चार मैं अपने बन्दे डाल दूंगा ।सब पुराने चावल हैं ,सब खाली बैठे हैं। अवार्ड अपने किसी परिवार वाले के नाम पर रखो या कोई स्पॉन्सर खोज लो।उसके बाद एक बड़ी सी ट्रॉफी बनवा लो ,दो इंच में उनका नाम लिखवा लो जिनके नाम अवार्ड देना हो तुम्हारी नानी,मौसी ,सास कोई भी हो ,शर्त सिर्फ एक है कि वो स्वर्गीय हों और उनके बारे में कोई भी जानकारी उपलब्ध न हो।  फिर पूरी ट्रॉफी के अस्सी परसेंट हिस्से पर बोल्ड अक्षरों में अपना नाम और फोटो डाल दो।इसका नतीजा देखना फेसबुक से लेकर व्हाट्सअप तक सिर्फ ट्रॉफी पर तुम्हारी फोटो घूमेगी।जो लोग तुम्हारी पोस्ट तक लाइक नहीं करते वे दिन रात इतना तुम्हारे नाम और फोटो का प्रचार करेंगे कि जब तक लोग आजिज होकर उन्हें ब्लॉक करना ना शुरू कर दें।एक बात का ध्यान रहे कि ये अवार्ड किसी यश लिप्सा की प्रार्थिनी को ही देना,वो तुम्हारी मुफ्त प्रचारक के तौर पर जीवन भर काम करेगी।दस हजार की इनामी राशि हो ,और सौ रूपये का शुल्क भी रख दो।सौ लगाकर दस हजार कमाने का ख्वाब पालने वाले बहुतेरे हैं इस यश के वर्तुल में”।
“आईडिया तो ठीक है, मगर पैसे ,मेरे प्राण तो उसी में बसते हैं ।कमाने का आईडिया माँगा आप तो गंवाने की बात कर रहे हैं,ट्रॉफी और दस हजार कहाँ से आएंगे “मैना महारानी ने अपनी व्यथा बतायी ।
“धैर्य रखो ,पूरी बात सुनो ,प्रवेश शुल्क से जो पैसे आएंगे उनसे ट्रॉफी बनवा लेना ।अपना नाम और फोटो वगैरह छपवा लेना।किसी को हम अवार्ड के लिये चुन लेंगे ,आयोजन की डेट और जगह भी फाइनल कर लेंगे ।जब आयोजन की तिथि नजदीक आयेगी ,तब हम फेसबुक पर पोस्ट डाल देंगे कि देश में ऐसे दुःख और संकट का माहौल है सो उत्सव मनाना उचित नहीं होगा ,इसलिये आयोजन कैंसिल किया जाता है ।फिर कुछ दिन बाद ये पोस्ट डॉल देना कि अवार्ड सलेक्शन कमेटी और तुमने ये निर्णय किया है कि अवार्ड की रकम जरूरतमन्दों को दान देने के निमित्त्त खर्च कर दिया जाय।इस तरह की फेसबुक पोस्ट डालना और फ़ेसबुक पर उसको और उसके परिवारवालों ,रिश्तेदारों को टैग कर देना।बेचारी नैतिकता और महानता की अपेक्षा के बोझ तले कुछ बोल भी नहीं पायेगी ।सो तुम्हारी ये रकम भी बच जायेगी ।वैसे भी तो तुम चंदा उगाहने और उस खर्च करके यश लूटने  में तो माहिर हो ही।मगर अपना वादा याद रखना कि मेरे अगले साझा संकलन के समस्त प्रतिभागी तुम्हारे तरफ से होंगे”।
जी गुरूजी, सलाह हेतु शुक्रिया। वैसे मेरा भी एक संकलन प्रस्तावित है सशुल्क वाला। वो निकाल लूँ पहले ये कहते हुए हँसकर उन्होंने फोन काट दिया और अपने अवार्ड परियोजना की प्रस्तावना बनाने में जुट गयीं।
इधर गुरु जी फोन पकड़े अवाक खड़े हैं कि सब कुछ जानते हुए वो क्यों अपनी शिष्या  के झांसे में आये और फिर ठगे गये। नेपथ्य में कहीं एक गाना बज रहा है “झूठा है तेरा वादा, वादा तेरा वादा” ये गीत सुनकर उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है ।

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