संत रविदास और मार्क्सवाद का वैचारिक द्वंद्व वाया भारतीय संस्कृति

मध्ययुगीन साधकों में विशिष्ट स्थान के अधिग्राही हैं  रैदास जिन्हें हिंदी साहित्य में संत रविदास के नाम से भी जाना जाता है । मौखिक रूप से रैदास और लिखित रूप से रविदास के नाम से विख्यात इन संत के जन्म को लेकर तथा जन्मस्थान तक को लेकर एक लम्बी बहस छिड़ी है । किन्तु फिर भी कुछ विवादों के पश्चात इनका जन्म सन् 1398 में राजस्थान राज्य में स्वीकार किया जा सकता है । हालांकि कुछ विद्वानों के अनुसार रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन्  1388 को बनारस में हुआ था । रैदास कबीर के समकालीन हैं और कबीर की ही भांति रविदास भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं । मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में बिल्कुल भी विश्वास न रखने वाले इन क्रांतिकारी संत को कबीर ने ‘संतन में रविदास’ की संज्ञा दी है । उन्होंने व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते हुए अपनी रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया हैं ।  जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है । उदाहरण के लिए ये दो रचना देखें-

अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥
——–
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं।
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा।
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं, पेख्यो सोइ रैदासा।।

रैदास अथवा संत रविदास कबीर के समसामयिक कहे जाते हैं ।  मध्ययुगीन संतों में रैदास का महत्वपूर्ण स्थान है । अत: इनका समय सन 1398 से 1518 के आस पास का रहा होगा और ऐसे ही कुछ साक्ष्यों के आधार पर रविदास का चर्मकार जाति का होना सिद्ध होता है-

‘नीचे से प्रभु आँच कियो है कह रैदास चमारा।’

रविदास का विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सद-आचरण का पालन, परहित-भावना तथा सद्- व्यवहार का पालन करना सबसे आवश्यक तथा उसे प्राप्त करने की पहली सीढी है । अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने पर और नम्रतापूर्वक शिष्ट गुणों का समावेश करते हुए हुए  उन गुणों का विकास करने पर उन्होंने अधिक बल दिया है। उन्होंने अपने एक भजन में कहा है-

‘कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।’

उनके विचारों का आश्य यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है । अभिमान से न्यून रहकर काम करने वाला व्यक्ति ही जीवन में सफ़ल रहता है जैसे कि कोई एक जानवर शक्कर के कणों को चुनकर खाने में असफ़ल रहता है, जबकि वहीं दूसरी ओर शरीर में बहुत ही मामूली होने पर भी ‘पिपीलिका’ अर्थात् चींटी इन कणों को आसानी से चुन लेती है । इसी प्रकार अभिमान शून्य रहकर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है । क्रांतिकारी संत रविदास ने सत्य को अनुपम और अनिर्वचनीय कहा है । यह सत्य शिव की भांति सुंदर भी है और सर्वत्र एक रस भी । इसकी सुंदरता जल में रहने वाली तरंगों के समान है जिसमें  सारा विश्व निहित रहता है । यह नित्य, निराकार तथा सबके भीतर विद्यमान रहने वाला है और साधक को उस निराकार के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर देने से ही उसे लक्ष्य की सिद्धि प्राप्त करने वाला भी ।
यदि इतिहास में मुड़कर देखें तो हम पायेंगे कि मध्ययुगीन इतिहास के संक्रमण काल में जन्मे रविदास ब्राह्मणों की पशु समान दूसरों से व्यवहार करने की मनोवृत्ति से दलित, उपेक्षित तथा  पशुवत सा जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे । यह सब उनकी मानसिकता को उद्वेलित करता था और रविदास की समन्वयवादी चेतना सम्भवत इसी का परिणाम है । उनकी स्वानुभूत चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार तो किया ही साथ ही उनके मौलिक चिन्तन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार भी किया । परिणामत वे ब्राह्मणवाद की प्रभुता के सामने साहसपूर्वक अपने अस्तित्व की घोषणा करने में सक्षम हो पाए । मानवता की सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले महान संत रविदास के मन में सभी धर्मों के लिए एक सा आस्था भाव था । उनके समकालीन कबीर की वाणी में हम जहाँ आक्रोश की अभिव्यक्ति को देखते हैं, वहीं दूसरी ओर रविदास के काव्य में रचनात्मक दृष्टि।  इस तरह इन दोनों की अलग-अलग धर्म दृष्टि और समानता का भाव होने के बावूजद भी सम्पूर्ण मानवता को एक मंच पर लाने का प्रयास उन्हें सर्वकालिक और प्रासंगिक भी बनाता है ।
वर्णाश्रम धर्म को समूल नष्ट करने का संकल्प, कुल और जाति की श्रेष्ठता का मिथ्या भ्रम इस संत द्वारा अपनाये गए समन्वयवादी मानवधर्म का ही अंग है जिसे उन्होंने मानवतावादी समाज के रूप में संकल्पित किया । संत रविदास के जाति तथा वर्णाश्रम आधारित दोहे-

जन्म जात मत पूछिए, का जात अरु पात।
रविदास पूत सभ प्रभ के कोउ नहिं जात कुजात।।

———-

‘वर्णाश्र अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
संदेह- ग्रन्थि खंडन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।’

आज एक लंबा इतिहास और शताब्दी गुजर जाने के बाद भी वर्तमान समय में संत रविदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए लाभदायी प्रतीत होते हैं तथा उन्हें एक सही दिशा प्रदान करने का कार्य करते हैं । उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से भी यह प्रमाणित कर दिखाया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर ही महान नहीं होता अपितु विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से कार्य करने वाला तथा सद्- व्यवहार जैसे गुण मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं । इस बात पर कबीर का एक दोहा याद आता है-

‘जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।।’

संत रैदास के यही गुण उन्हें संत से क्रांतिकारी संत रविदास बनने को मजबूर करते हैं ।  रैदास उन महान संतों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया । इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रहीं हैं जिससे जनमानस के मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव पड़ा है ।
मधुर एवं सहज इस संत की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह काम करती है इसका प्रबल उदाहरण उनका गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी उच्च-कोटि के विरक्त एवं संत स्वभाव होना है । ज्ञान एवं भक्ति के उच्च पद को सुशोभित करने वाले संत रविदास ने समता और सदाचार पर बल दिया ।  वे खंडन-मंडन की प्रक्रिया में विश्वास नहीं करते तथा सत्य को शुद्ध रूप में एवं सत्य रूप में ही प्रस्तुत करना उनका ध्येय था । यही कारण है कि उनका प्रभाव आज भी भारत में दूर-दूर तक देखने को मिलता है और उनके इस मत का पालन करने वाले उनके अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते हैं । संत रविदास की विचारधारा और सिद्धांत संत-मत की परम्परा का अक्षरश पालन करते दिखाई देते हैं । रविदास ने भक्ति के लिए परम् वैराग्य को अनिवार्य तत्व माना और ‘यह परमतत्व एकरस तथा जड़ और चेतन दोनों में समान रूप से अनुस्यूत है । वह अक्षर है, अनीश्वर है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में विद्यमान भी । रविदास की साधनापद्धति का विवेचन जहाँ-तहाँ प्रसंगवश संकेतों के रूप में मिलता है । हालांकि विवेचकों, आलोचकों ने रैदास की इस साधना तथा भक्ति में भी ‘अष्टांग’ योग को भी खोज निकाला है । रविदास के महान व्यक्तित्व को देखकर किसी अनाम व्यक्ति कि कही हुई पंक्ति याद आती है । कि ‘जिस कौम का इतिहास नहीं होता, उस कौम का कोई भविष्य नहीं होता ।’ रविदास जी प्रारम्भ से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। उन्होंने क्रांतिकारी संत कबीर की भांति ब्राह्मणों के चारों वेदों का खंडन किया तथा उन्हें व्यर्थ कि किताबें बताया ।  उन्होंने ब्राह्मण धर्म के सभी रीति-रिवाजों पूजा-पाठ आदि हर ब्राह्मणी कर्मकांड का तर्क के साथ खंडन भी किया । बहुजन समाज को अंकित करते हुए संत रविदास कहते हैं कि- केवल बहुजन समाज के लोग ही असल में भारत के शासक रहे हैं और सिन्धु सभ्यता से लेकर आज तक भी उनका यह कथन जायज प्रतीत होता है । उन्होंने बहुजनों को अपने उपदेशों के माध्यम से शिक्षा देना शुरू किया तथा उपअक्षरों की गुरुमुखी लिपि बनाई । उसी लिपि में अपनी बाणी की रचना भी की । संत रैदास की बानियों से ही ऐसा आभास होता है कि उन्होंने एक ऐसे राज्य की स्थापना करनी चाही जहाँ ऊँच-नीच, शोषण आदि का कोई नाम न हो । गुरु रैदास के वास्तव में कोई गुरु नहीं थे, क्योंकि किसी बहुजन को आज तक इस भारत में किसी ने अपना शिष्य नहीं माना, न ही शिक्षा दी इसके बरक्स उन्हें हमेशा गुलाम बनाये रखने की मानसिकता को लेकर शिक्षा से भी वंचित रखा गया । इतिहास भी इस बात का गवाह तथा साक्षी रहा है कि वाल्मीकि से लेकर डॉ० अम्बेडकर तक किसी भी बहुजन संत ने गुरु धारण नहीं किया । हिन्दू धर्म के तो वे प्रखर विरोधी स्वभाव में नजर आते हैं । शायद इसीलिए उनकी बाणी में हिन्दू धर्म या उससे सम्बन्धित किसी धर्म, वेदों आदि की छवि नजर नहीं आती ना ही कहीं उनका प्रभाव लक्षित होता है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि किसी भी जाति या वर्ण विशेष में जन्म लेने से कोई छोटा या बड़ा नहीं हो जाता और उन्होंने मंदिरों, अवतारों, त्रिमूर्ति आदि सभी को इसीलिए उन्होंने शायद झूठा और धोखा बताया ।
गुरु रैदास कहते हैं कि “बिन देखे उपजे नहीं आशा, जो देखू सो होय विनाशा ।” अर्थात जो दिखाई नहीं देता उसके प्रति भावना पैदा नहीं होती तथा जो दिखाई देता है वह नश्वर है और उसका अंत होना निश्चित है । रविदास जी ने भी भगवान बुद्ध की भांति सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के अस्तित्व से इंकार किया । रैदास के समकालीन रहे फक्खड़ तथा सरल भाषा के कवि कबीर कुछ ज्यादा ही मुखर शब्दों में बोलते हैं कि- अगर ईष्ट देव का नाम जपने से ही फल मिलता हो तो रोटी-रोटी जपने मात्र से पेट भर जाना चाहिए था? इसीलिए वे केवल शुभ काम करने मात्र से ही दूसरों का भला होना मानते हैं । गुरु कबीर ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देते हुए स्पष्ट कहा कि “जो तू बामण बामणी जाया, तो अवर राह ते क्यों नहीं आया ।” अर्थात् तुम अगर ब्राह्मण के पेट से पैदा होने के कारण ही ब्राह्मण होने का दावा करते हो तो तुझे आम आदमी की तरह माँ के गर्भ से पैदा होने के बजाए किसी अन्य रास्ते से पैदा होना चाहिए था । रैदास और कबीर दोनों ने साथ मिलकर ब्राह्मणवादी सत्ता के विरुद्ध आन्दोलन चलाया और उनकी प्रखर आलोचना की साथ ही शुद्र जनों और उनके समाज के लोगों में वैचारिक चेतना जगाने का भी काम किया । सिखों के गुरु गुरुनानक देव भी संत रविदास के समकालीन अथवा समकक्ष माने जाते हैं और समाज में प्रचलित लोक- कथाओं आदि में प्रचलित किस्सों के आधार पर यह कहा जाता है कि वे उनसे मिले भी थे और भेंट के पश्चात उनकी बाणियों को वे अपने साथ संग्रहित करके भी ले गए थे । वे  उन्हें अक्सर गुनगुनाया करते थे । सिखों के दशम् पिता गुरु गोविन्द सिंह ने अपने जीवनकाल में समस्त भारत के संतों की वाणी को “गुरु ग्रन्थ साहिब” संकलित करने का प्रयास किया था । जिसमें संत रविदास की बाणियों के भी लगभग 41 पदों को शामिल किया गया । यह आम धारणा तथा मान्यता है कि रैदास ने शतायु से भी अधिक जीवन व्यतीत किया । किन्तु इसके साथ ही यह विचारणीय तथ्य तथा प्रश्न बन जाता है कि उन्होंने सम्पूर्ण जीवन में क्या मात्र 41 पदों की ही रचना की ।
यह बात पूर्णत: अविश्वसनीय सी ज्ञात होती है कि जब गुरु नानक संत रविदास से मिले थे तब तक उन्होंने अपनी हत्या होने से पूर्व मात्र 41 पदों को ही उन्हें दे पाए थे। ऐसा माना जाता है कि  इन पदों का संकलन लगभग डेढ़ सौ वर्षों बाद गुरु ग्रन्थ साहिब में किया गया था । किन्तु साथ ही यह प्रश्न उठता है कि शेष बाणियाँ कहाँ गई ? रविदास पर शोध करने वाले विद्वान चन्द्रिका प्रसाद का मानना है कि रविदास की हत्या करके उनकी समस्त बाणियों को उनकी चिता के साथ ही अग्नि की भेंट चढा दिया गया था । अगर उनकी हत्या नहीं की गई होती तो आज भी संभवत: उनकी शेष बाणियाँ अवश्य मिलती । जिसे पढ़कर यह देश तथा समाज युग- युगांतर तक लाभ उठाता और एक सफ़ल व्यक्ति बनकर अपने आप को अवश्य ही जान पाता ।
विचारणीय प्रश्न यह भी है कि यह आमियाना तथा घटिया काम किया किसने? जिसका सीधा सा उत्तर हो सकता है कि- ऐसा काम हो न हो उन्हीं लोगों ने किया होगा जिन्होंने उनके शरीर से ब्राह्मणों द्वारा पवित्र घोषित ‘जनेऊ’ निकाले । एक किंवदन्ती के अनुसार ब्राह्मणों व सामंतशाहों ने बड़ी चतुराई से मिलकर एक षड्यंत्र के तहत जनेऊ दिखाने के बहाने से उनके शरीर को राणा विक्रम सिंह जो उस समय चित्तौडगढ़ के राजाधिराज पद पर विराजमान थे।  उनके भरे दरबार में सीना चीरकर उनकी जीवनलीला/ईहलीला समाप्त कर दी और उनके पार्थिव शरीर को मेघवालों (नीची जाति के लोगों) की बस्ती में भिजवा दिया गया ।  यह कहलवाकर कर कि तुम्हारे गुरु ने भीतर का जनेऊ दिखाकर सभी को चकित कर दिया और स्वेच्छा से शरीर त्याग दिया है । अपने पति संत रविदास की हत्या की खबर सुनते ही उनकी धर्मपत्नी लोना  भी सदमे को बर्दाश्त न कर सकी और यह समाचार सुनते ही वे भी परलोक मार्ग को गमन कर गई ।
संत रैदास की हत्या के बारे में लेखक सतनाम सिंह ने अपनी पुस्तक में प्रमाणिक दस्तावेजों का उल्लेख करते हुए कुछ महत्वपूर्ण कारण जगजाहिर किए हैं । जिसमें गुरु रैदास द्वारा ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देना, मीराबाई को दीक्षित करना, वेदों, कर्मकांड आदि का खंडन करना तथा हरिजनों में राजनैतिक चेतना जाग्रत कर, राजमहलों में ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देना आदि सर्वप्रथम कारण रहे । साथ ही लेखक सतनाम सिंह ने इस क्रांतिकारी गुरु की हत्या के घटनाक्रम का भी विस्तार से वर्णन किया है । इस क्रन्तिकारी गुरु के विचारों को अमली जामा पहनाने का कार्य वर्तमान के आजाद तथा आधुनिक भारत के पितामह डॉ० अम्बेडकर ने किया, जिसकी झलक आधुनिक भारत के संविधान में साफ़ दिखाई देती है ।

संत रैदास केविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, जातिवाद, ब्राह्मणवाद की आलोचनास्वरूप उन पर करारी चोट करता दोहा-

रैदास एक ही बूंद से, भयो सब विस्तार।
मुर्ख है जो करे वर्ण-अवर्ण विचार।।

इसके माध्यम से संत रैदास उस कृष्ण को मुर्ख बता रहे हैं जो एक ग्वाला है और गोपियों संग रास-महारास रचाने वाला है । रविदास उसी को जो इंसान को अलग-अलग बांटता है, जो गीता जिसे कि श्रीमद्भाग्वद का भी दर्जा प्राप्त है उसी में वह इंसानों में ही भेदभाव कर उन्हें अलग-अलग वर्ण- अवर्ण जातियों में बांटता है । जबकि रैदास के अनुसार सभी इंसान एक ही है ।

रैदास हमारे राम जी दशरथ हजे सूत नाहीं।
राम रम रह्यो में, बसें कुतुम्भ माहीं।।

मेरा राम वह नहीं है जो दसरथ पुत्र है । मेरा राम तो मेरे रोम, रोम में है, मेरे कर्म में है। जैसे कबीर कहते हैं “मौको कहाँ ढूंढे से बंदे मैं तो तेरे पास में ।”

मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में न मूरत में, न एकांत निवास में
न मन्दिर में न मस्जिद में, न काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बंदे, मैं तो तेरे पास में
न मैं जप में न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं कौनो क्रिया करम में, नहिं जोग संस्यास में
नहिं पिंड में नहिं अंड में, न ब्रह्मांड आकाश में
न मैं प्रकटी भवंर गुफ़ा में, सब स्वासों की स्वांस में
खोजी होए तुरंत मिल जाऊं, पल भर की तलाश में
कहत कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में।

या फिर

जात जात के फेर में उलझ रहे सब लोग।
मनुष्यता को खा रहा, रैदास जात का रोग।।
जात-जात में जात है, ज्यों केले में पात।
रैदास मानस न जुड़ सके, जब तक जात न जात।।

संत रविदास इस दोहे में ब्राह्मणों, आर्यों की बनाई गई वर्ण-व्यवस्था, जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना करते हुए कहते हैं कि- “ब्राह्मणों का बनाया तथा प्रचारित किया गया जातिवाद नसों में जहर बनकर धीरे धीरे इस कदर फ़ैल गया है । जिसे देखो वह जाति के इस घिनौने दलदल में उलझा हुआ है । रविदास कहते हैं कि जाति एक प्रकार का रोग है, एक बीमारी है जो इंसान में घुन्न की तरह लगी हुई है और उसे धीरे-धीरे खाकर खोखला करती जा रही है । जिससे इंसानों के अंदर का इंसान तथा उनकी मानवीयता ही खत्म होती जा रही है । जाति से पनपे भेदभाव, छुआछूत, गैरबराबरी शोषण ने इंसानियत तथा मानवता को ही खत्म कर दिया है । उन्होंने इसी तरह एक अन्य दोहे में कहा है कि ब्राह्मणों ने इंसान को जातियों, उपजातियों तथा उसमें भी फिर अनगिनत जातियों में बाँट रखा है । रविदास जातियों के इस विभाजन की तुलना केले के कमजोर पेड़ से करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार केवल पत्तियों के सहारे से बने इस पेड़ में जैसे एक पत्ते को हटाने पर दूसरा पत्ता निकल आता है । ऐसे ही दूसरे को हटाने पर तीसरा, चौथा और क्रमशः पांचवा भी निकल आता है और इस प्रकार धीरे-धीरे पूरा पेड़ ही खत्म हो जाता है । ठीक उसी तरह इंसान विभिन्न हिस्सों में बंटा हुआ है । जातियों के इस विभाजन में इंसान आगे भी धीरे-धीरे बंटता ही चला जा रहा है पर जातियां है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती, इंसान भले ही उसके कारण खत्म हो जाए । इसलिए रविदास कहते हैं कि जाति को खत्म किया जाना चाहिए क्योंकि इंसान तब तक जुड़ नहीं सकता, एक नहीं हो सकता, जब तक की जातियां चली नहीं जाती ।

सौ बरस रहो जगत में, जीवत रह कर करो काम।
रैदास करम ही धरम है, करम करो निष्काम।

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