बंदूकें
तुम्हें
भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी
बंदूकों की फसल
लेकिन-
मुझे आनन्दित करती है
पीली-पीली सरसों
और/दूर तक लहलहाती
गेहूं की बालियों से उपजता
संगीत।
तुम्हारे बच्चों को
शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट
लेकिन/सुनो..
कभी खाली पेट नहीं भरा करतीं
बंदूकें,

सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।

कुछ देर बाद
जी लो जी भरकर
कह लो/सह लो/बह लो/दह लो
हां, सब कुछ
खत्म हो जाना है
कुछ देर बाद ही|
बाकी न रहेगा
कुछ भी
न याद/न तड़पन,
कुछ देर बाद ही
सुनाई देने वाली है
विदाई की पायल की
छम-छम
और तब/तुम
सहर्ष-प्रफुल्लित होकर जाना
रणक्षेत्र को कूच करते
योद्धा की तरह
क्योंकि-
शाश्वत सत्य से मुंह मोड़ना
विजेता के सिद्धांतों के खिलाफ होता है।

वर्षा : एक शब्दचित्र
गली के नुक्कड़ पे
बारिश की रिमझिम के बाद 

उस छोर से आती 
छोटी सी नदी में 
छपाक-छपाक करते 
अधनंगे बच्चे,
डगमगाकर आतीं 
कागज़ की छोटी-छोटी कश्तियां
पल भर को ताजा कर गईं
स्मृतियां-
घर/बचपन की।
घर और बचपन
दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं
अस्थायित्व के 
बचपन-
हमेशा पास नहीं रहता
सरक जाता है घुटनों के बल
जाने कब?
और घर भी 
हमेशा ‘घर’ होने का एहसास
नहीं दिलाता
हर किसी को।

नहीं चाहिए चांद

मुझे
नहीं चाहिए चांद/और
न ही तमन्ना है कि
सूरज
कैद हो मेरी मुट्ठी में
हालांकि
मुझे भाता है
दोनों का ही स्वरूप|
सचमुच
आकाश की विशालता भी
मुग्ध करती है
लेकिन
तीनों का एकाकीपन
अक्सर
बहुत खलता है
शायद इसीलिए
मैंने कभी नहीं चाहा कि
हो सकूं
चांद/सूरज और आकाश जैसा
क्योंकि
मैं घुलना चाहता हूं
खेतों की सोंधी माटी में,
गतिशील रहना चाहता हूं
किसान के हल में,
खिलखिलाना चाहता हूं
दुनिया से अनजान
खेलते बच्चों के साथ,
हां, मैं चहचहाना चाहता हूं
सांझ ढले/घर लौटते
पंछियों के संग-संग,
चाहत है मेरी
कि बस जाऊं/वहां-वहां
जहां-
सांस लेती है ज़िन्दगी
और/यह तभी संभव है
जबकि
मेरे भीतर ज़िन्दा रहे

एक आम आदमी।

उसे आना ही है...

खोल दो
बंद दरवाजे/ खिड़कियां
मुग्ध न हो/ न हो प्रफुल्लित
जादू जगाते
दीपक के आलोक से।
निकलो
देहरी के उस पार
वंदन-अभिनंदन में
श्वेत अश्वों के रथ पर सवार
नवजात सूर्य के।
वो देखो-
चहचहाने लगे पंछी
सतरंगी हो उठीं दिशाएं
हां, सचमुच
कालिमा के बाद
आना ही है/ उसे
रश्मियां बिखेरकर
आल्हादित करने

विश्व क्षितिज को..!

आज भी

आज फिर
मचल गया
देहरी पे पांव रखता
नन्हा बच्चा।
एक पल ठिठक कर
कल मिली
पिता की डांट याद करता है
फिर, हौले से पुचकार कर
ज़मीन पे रेंगते
जहरीले कीड़े को-
सूखे पेड़ के सुपुर्द करते हुए
क्लास में
टीचर के पढ़ाए सबक को
कार्यरूप देता है।
बच्चा/कीड़ा/पेड़
तीनों-
एक दूसरे के कोई नहीं
शायद इसीलिए
अब भी सांस ले रही है

मानवता..!

सरहदें

टूटकर रहेंगी
सरहदें
भले ही खड़े रहो/तुम
मज़बूती पांव जमाये
तरफदारी में|
विश्वास है मुझे
जब किसी रोज
क्रीड़ा में मग्न
मेरे बच्चे
हुल्लड़ मचाते
गुजरेंगे करीब से
सरहद के-
एकाएक
उस पार से उभरेगा
एक समूह स्वर
ठहरो!
खेलेंगे हम भी
तुम्हारे साथ..
एक पल को ठिठकेंगे
फिर सब बच्चे
हाथ थामकर
एक दूसरे का
दूने उत्साह से
निकल जाएंगे दूर
खेलेगे संग-संग
गायेंगे गीत
प्रेम के,बंधुत्व के,
तब-
न रहेंगी सरहदें
न रहेगी लकीरे
तब रहेंगी
सिर्फ..सिर्फ..सिर्फ…!

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