पत्थरों के इस शहर में आइने-सा आदमी,
ढूँढने निकला था खुद को चूर होता आदमी।
चिमनियाँ थीं, हादसे थे, शोर था काफी मगर,
इस शहर की भीड़ में कोई नहीं था आदमी।
तन जलेगा, मन जलेगा, घर जलेगा बाद में,
रोशनी के वास्ते पहले जलेगा आदमी।
दोस्तों में, रास्तों में, भीड़ में, बाज़ार में,
हर तरफ खंजर छिपे हैं, क्या करेगा आदमी
इस घनेरी धूप में है प्यास का मारा हुआ,
पाँव में छाले पड़े हैं, फिर भी चलता आदमी।

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